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कहानियाँ

आप्रवासी भारतीय लेखकों की कहानियों के संग्रह वतन से दूर में
यू.के. से
डॉ. गौतम सचदेव की कहानी— 'आकाश की बेटी'।


साधना ने रोज की तरह डबल रोटी के छोटे–छोटे टुकड़े और कॉर्न फ्लेक्स कबूतरों के आगे डालने शुरू कर दिये। यह उसका रोज का नियम था। सवेरे आठ बजते ही जगदीश लाल घर के पिछवाड़े का पैटियो डोर खोल देता और साधना उर्फ मिसेज कालड़ा अपनी व्हील चेयर चलाते हुए वहाँ आ जाती। जगदीश लाल को आठ बजे काम पर जाना होता था और तब तक उसे नाश्ता करने–कराने से लेकर घर के सारे काम करने होते थे।

पिछले दस वर्षों से जबसे साधना चलने–फिरने योग्य नहीं रही थी उसकी यही दिनचर्या हो गई थी। इधर साधना की व्हील चेयर अपनी जगह पहुँचती उधर आकाश के टुकड़ों जैसे कबूतर पंख फड़फड़ाते हुए बगीचे में उतरने लगते। चंचल उत्सुक और भूखे।
वह हर रोज़ एक डबल रोटी और कटोरा भर कॉर्न फ्लेक्स कबूतरों को चुगाती थी। उनमें खाने की जैसी होड़ मचती और घास के उस हिस्से को वे जिस तरह से रौंदते रहते, उसे देखना साधना के जीवन का सबसे बड़ा सुख था। कबूतर भी उससे ऐसे परच गये थे कि अक्सर उसके कंधों बाहों और उसकी पहियेदार कुर्सी पर भी
आ बैठते और कटोरे से हबड़–हबड़ चुगते जाते। जब उनमें से कोई उसपर बीट कर देता तो वह डबल रोटी के टुकड़ों और मुठ्ठी भर कॉर्न फ्लेक्स को बगीचे की घास पर उछालते हुए कहती – "हटो नालायको। एक तो खिलाती हूँ, ऊपर से हगते हो।"

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