इस पखवारे- |
अनुभूति-में-
मधु प्रधान, महावीर उत्तरांचली, कृष्णा
वर्मा, रतनप्रेमी प्रजापति और डॉ. अजय पाठक की रचनाएँ। |
- घर परिवार में |
कलम गही
नहिं हाथ में- वर्ष २०१६ के लिये अभिव्यक्ति विश्वम द्वारा नवांकुर पुरस्कार की घोषणा।
|
फेंगशुई
में-
२४ नियम जो घर में सुख समृद्धि लाकर
जीवन को सुखमय बना सकते हैं-
१७- बच्चों के कमरे की सजावट। |
बागबानी-
के अंतर्गत लटकने वाली फूल-टोकरियों के विषय में कुछ उपयोगी सुझाव-
१७-
सदाबहार की बारहमासी बहार |
सुंदर घर-
शयनकक्ष को सजाने के कुछ उपयोगी सुझाव जो इसके रूप रंग को
आकर्षक बनाने में काम आएँगे-
१७-
पीला रंग और पारंपरिक कलाकारी |
- रचना व मनोरंजन में |
क्या
आप
जानते
हैं- आज के दिन (१ सितंबर को) प्रभुपाद, फादर कामिल
बुल्के, राजेन्द्र सिंह बेदी, हबीब तनवीर, दुश्यंत कुमार, विजयदान देथा...
विस्तार से
|
नवगीत संग्रह- में प्रस्तुत है-
आचार्य संजीव सलिल की कलम से कल्पना रामानी के नवगीत संग्रह-
खेतों ने खत लिखा का परिचय। |
वर्ग पहेली- २७५
गोपालकृष्ण-भट्ट-आकुल
और
रश्मि-आशीष के सहयोग से
|
हास परिहास
में पाठकों द्वारा भेजे गए चुटकुले |
|
साहित्य एवं
संस्कृति में- |
समकालीन कहानियों में प्रस्तुत
है भारत से
अमित मिश्र की कहानी
बिना टिकट
- भईया ज़रा जल्दी करो।
- हाँ दीदी, जल्दी ही चल रहे हैं। अब गरमी भी तो आप देख ही रही
हैं।
-हाँ भाई, देख रही हूँ। कहने को अभी सुबह के ९ ही बजे हैं, मगर
अभी से धूप ऐसी। लेकिन ट्रेन जो निकल जाएगी, उसी की चिंता है।
-आप जो ट्रेन बता रही हैं, वो तो शायद नहिंए मिलेगी। अपनी
गाड़ी से भी जाएँ तो भी नहीं पहुँच पाएँगी। हमें तो सवारी से
मतलब है, सो चले चलेंगे। लेकिन बाद में मत कहिएगा।
-बात सही कह रहे हो भईया, लेकिन कोशिश करने में क्या जाता है?
फिर ट्रेन लेट भी तो होती ही है।
- सो तो है। आगे प्रभु की इच्छा। ऑटो काहे नाहीं कर लीं?
- कोई था नहीं उधर। फिर सोचा कि जितना समय ढूँढने में लगाऊँगी,
उतने में तो वैसे ही पहुँच जाऊँगी।
- सो तो है। सुबह के वक्त यही समस्या रहती है। फिर जो पैसा को
लेकर किचिर-पिचिर।
- अब आप बात छोड़िए और जल्दी कीजिए।
आगे-
*
डॉ. नरेन्द्र शुक्ल का व्यंग्य
हिंदी दिवस के मायने
*
सामयिकी में डॉ शुभ्रता से जानें
-
हिंदीतर राज्यों में व्यावहारिक हिंदी की दशा, दिशा और
संभावनाएँ
*
ज्योतिर्मयी पंत से पर्व परिचय
कुमाऊँनी पर्व
सातूँ-आठूँ
*
हिंदी दिवस के अवसर पर-
संकलित सामग्री हिंदी दिवस समग्र में
1 |
|
पिछले पखवारे-
रक्षाबंधन के अवसर पर |
विष्णु बैरागी का व्यंग्य
मैं अकेला बैठा हूँ
*
पवन कुमार जैन का आलेख
साधना की सुरक्षा में रक्षाबंधन
*
कादंबरी मेहरा की कलम से
राखी की लाज
*
वरुण कुमार सिंह से जानें
रक्षाबंधन इतिहास और पुराण से
*
समकालीन कहानियों में प्रस्तुत
है भारत से
प्रेमपाल शर्मा की कहानी
अजगर करे न
चाकरी
मैं इतने ठंडेपन से कभी पेश नहीं
आया था। यहाँ तक कि कमरे में घुसने
से पहले ही मुझे सारी संवेदनाओं को फ्रीज करना पड़ा था।
बार-बार चकनाचूर। मैं नहीं चाहता था कि मैं हर बार की तरह इस
बार भी अजगर का एक निवाला मात्र सिद्ध होऊँ। और न तर्क-कुतर्क
में उलझना चाहता था। तुम अपने रास्ते भले, हम अपने रास्ते।
मैं या कोई भी कब तक झक-झक करता रहेगा! वही तर्क, वही
मुद्राएँ, यह शख्स सुनता रहेगा बीच-बीच में यह कहता हुआ कि
'हमारा भी वक्त आएगा रे लाला! हम भी बता देंगे कि हम क्या
हैं।' और यह वक्त पिछले २५ वर्ष से वहीं खड़ा है, लेकिन उनकी
सेहत पर क्या असर पड़ा है। असर पड़ा है माँ पर, पिताजी पर और
कुछ छींटे हम सब पर। 'दाढ़ी बढ़ाकर मस्त पड़ा रहता है। ऊपर से
देशी घी की मिठाइयाँ, फल। लड़की घुट-घुटकर जी रही है।' पिताजी
का रोष उनकी आवाज से जाहिर था। कई बार तो पिताजी लगभग इन्हीं
बातों को इतनी जोर से कह बैठते कि हो न हो, उन्होंने पिताजी की
आवाज को अपने कानों से खुद ही...
आगे- |
|