राखी की लाज
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कादंबरी मेहरा
हमारे देश के एक पुरुष ने अपनी बहन की राखी की लाज के
बदले अपने शत्रु की जान बचा दी और इतिहास सदा के लिए
उसका ऋणी हो गया। बात ढाई हज़ार वर्ष पुरानी है।
अपनी साम्राज्यवादिता को न्यायसम्मत साबित करने के लिए
लुटेरी आक्रामक शक्तियों ने भारत के इतिहास के अनेक
स्वर्णिम पन्नों पर अलकतरा पोत दिया। शिक्षा की भारतीय
व्यवस्था को तहस नहस करके, इतिहास को तोड़ मरोड़ कर अपने
पक्ष में लिखा। ऐसा ही एक पृष्ठ सिकंदर की पराजय और
पोरस की उदारता का है। उपनिवेशवादियों ने सिकंदर को
अपना प्रतिमान बनाकर भारत में उसके आगमन को जो विजय
अभियान का रूप दिया वह आज के विद्वानों को मान्य नहीं
है। इसका प्रबल उदाहरण अभी हाल में बनी फिल्म
''एलेग्जेंडर'' है। निर्माता ने सिकंदर के सम्पूर्ण
अभियान की कहानी दर्शाई मगर उसकी भारत विजय का अंश
अछूता छोड़ दिया क्योंकि यह विश्व इतिहास का सर्वाधिक
विवादित प्रश्न है। इस पेचीदा वार्ता से फिर कभी निपट
लिया जायेगा। आज का किस्सा उससे कहीं अधिक मनोहारी है।
सिकंदर का जन्म ३५६ ई० पू० जुलाई मास में पेल्ला नामक
नगर में मैसिडोनिया में हुआ था। ३३६ ई० पू० में बीस
वर्ष की आयु में अपने पिता फिलिप द्वितीय के निधन के
बाद वह गद्दी पर बैठा। उसका गुरु प्रख्यात दार्शनिक
अरस्तू था।
सिकंदर बचपन से ही प्रखर बुद्धि और बलशाली था केवल
ग्यारह वर्ष की अल्पायु में उसने बैसोफेलस नामक एक
बिगड़ैल घोड़े को नाथ लिया था। उसकी वीरता से खुश होकर
उसके पिता ने उसे ही वह घोड़ा दे दिया जो सदा उसके साथ
रहा। इसी घोड़े पर बैठकर सिकंदर ने विश्व विजय की, मगर
भारत में झेलम के युद्ध में यह मर गया और आश्चर्य यह
है कि उसके बाद सिकंदर ने कोई युद्ध नहीं जीता।
उस युग में फारस / पर्शिया / ईरान सबसे बड़ी ताकत थे।
२०० वर्षों से फारस के शहंशाह अपने आस पास के सभी
देशों को जीतकर एक छत्र के नीचे लाने में सफल रहे थे।
उनका राज्य पश्चिम में काला सागर से लगाकर पूर्व में
बल्ख और पामीर तक फैला था। दक्षिण में ग्रीस के भी कुछ
अंश वह अपने राज्य में मिला चुके थे।
इसका बदला लेने की आग सिकंदर के दिल में धधका करती थी।
वह इसी उद्देश्य से विश्व विजय करने निकला। ३३४ ई ० पू
० में वह ३२००० पदार्थी व ५००० घुड़सवारों को लेकर अपने
विजय अभियान पर निकला और फारस के राजा डेरियस तृतीय को
आईसस और गौगामेला के युद्ध में पराजित किया। इसके बाद
उसने अलेप्पो को जीता और उसके अगले साल मिस्त्र और
सीरिया को भी अपने अधिकार में ले लिया। यहाँ उसने
अलेक्सांड्रिया नामक नगर की स्थापना की। ३३० ई० पू०
में पर्शिया की पूरी लम्बाई चौड़ाई नापने के बाद वह
पूरब में बैक्ट्रिया यानि आधुनिक बल्ख तक आ पहुँचा।
यहाँ आते आते उसकी किस्मत बदलने लगी। हमारी आज की
कहानी यहीं से सम्बंधित है।
बैक्ट्रिया आधुनिक मानचित्र पर उत्तरी अफगानिस्तान का
हिस्सा है, यानि आमू नदी के दक्षिण और कंधार के उत्तर
का क्षेत्र। प्राचीन संस्कृत भाषा में इसे बाह्लीक
कहते हैं। यह प्रदेश विशाल नदियों से सिंचित था/ है।
अतः बेहद उपजाऊ और संपन्न क्षेत्र था। बैक्ट्रिया का
राजा विक्षुणवर्त पराक्रमी एवं शांतिप्रिय था उसका
राज्य बुखारा व समरकंद से भी आगे तक फैला था। उस समय
तक बौद्ध धर्म का प्रसार नहीं हुआ था। ईसाई धर्म पैदा
ही नहीं हुआ था और इस्लाम भी इसके १००० वर्ष बाद आया।
पूरे फारस में मिस्त्र से लगाकर उत्तर भारत तक सूर्य
और अग्नि के पूजक धर्म प्रचलित थे जिनमें जरस्तु
सर्वोपरि था। इस देश के लोग बहुत शक्तिशाली माने जाते
थे। यहाँ तक आते आते सिकंदर की सेना थक गयी थी मगर जो
भी ऐसा कहता था उसे सिकंदर मरवा डालता था या वापिस भेज
देता था जो कि और भी खतरनाक था।
एक ऊँचे पर्वत पर सीधी खड़ी चट्टानी चोटी पर सौगडियाना
का अभेद्य दुर्ग था। विक्षुणवर्त के सेनापति अरिमासीज़
ने सिकंदर को चेतावनी दी कि इस दुर्ग को जीतने के लिए
उसे पंखों वाले सिपाही लाने होंगे। बर्फ से ढँके पहाड़
पर, रात के अँधेरे में सिकंदर ने स्वयं चढ़ाई आरम्भ की।
उसकी सेना के ३०० पर्वतारोही ऊपर चढ़े। ३० रास्ते में
मर खप गए परन्तु बाकी सफल रहे। दो तीन दिन की चढ़ाई के
बाद सिकंदर विक्षुणवर्त के आँगन में कूद सका। तभी उस
घर का दरवाजा खुला और एक लड़की बाहर उद्यान में आई।
सिकंदर उसकी सुंदरता पर मोहित हो गया। जीवन में पहली
बार उसे प्रेम की अनुभूति हुई। इतने सारे सिपाहियों को
अपने दुर्ग में दाखिल हुआ जानकार विक्षुणवर्त ने
सिकंदर का आधिपत्य स्वीकार कर लिया। सिकंदर ने उसे उसी
के घर में परिवार सहित बंदी बना लिया। विक्षुणवर्त ने
उसके स्वागत में अपने सभासदों के साथ दावत दी जिसमें
उसकी पुत्री रौशनक ने नृत्य प्रस्तुत किया। यह वही
सुंदरी थी जिस पर सिकंदर दिल को हार गया था। उस समय
सिकंदर की आयु छब्बीस या सत्ताईस वर्ष की रही होगी।
रौशनक को हम रुखसाना के नाम से जानते हैं। अंग्रेजी
में रोक्सेन लिखा जाता है। इसका मतलब होता है- चमकता
सितारा। फिर क्या था धूम धाम से रौशनक का विवाह सिकंदर
से हो गया। सिकंदर संस्कृति और परम्पराओं का दीवाना था
अतः जहाँ भी जाता उनकी मर्यादा का ध्यान रखता। यह
विवाह भी बैक्ट्रिया के रिवाजों से हुआ। प्लूटार्क
लिखता है कि रोटी को आधा आधा तोड़कर दूल्हा और दुल्हन
को खिलाया गया। है न मज़े की बात! हम आज भी यह रीत
निभाते हैं, कहीं पान की गिलौरी से कहीं लड्डू से। इस
विवाह की ख़ुशी में सिकंदर ने अपने दस हज़ार सैनिकों का
विवाह भी सौगड़ियाना और बल्ख की सुंदरियों से करवा
दिया। विक्षुणवर्त को उसका राज्य वापिस दे दिया और उसे
अपना क्षत्रप घोषित कर दिया।
इस गठबंधन से भविष्य में एक उन्नत संस्कृति की स्थापना
हुई जो यवन एवं फारसी सभ्यताओं के मेल से पनपी, जिनमे
गणित, विज्ञान, दर्शन और कलाओं का संगम हुआ जो सिकंदर
अपने नए राष्ट्र के लिए चाहता था। इसके दो वर्ष बाद तक
सिकंदर अपनी सैन्यवाहिनी को पुनः संगठित करता रहा।
इतने लम्बे अभियान के बाद उसके सैनिकों में उत्साह की
कमी हो गयी थी। उसने थके सिपाही वापिस भेजे और नए
मँगवाए। वापिस भेजे सैनिकों को उसने इतना सोना चाँदी
दिया कि उसकी चकाचौंध से नए लोग लालच में झट आ गए।
सेना का पुनर्गठन करने के बाद उसने भारत की राह पकड़ी।
भारत को सोने की चिड़िया कहा जाता था। भारतीय युद्ध
पद्धति और योद्धा उस समय के विश्व में अपना सानी नहीं
रखते थे। उत्तर-पश्चिम का राजा पौरव, जिसे इतिहास पुरू
या पोरस के नाम से जानता है, अपने शौर्य और पराक्रम के
लिए प्रसिद्द था। सिकंदर उसे हराना चाहता था। पोरस के
आगे भी भारतवर्ष है, यह उसे पता ही नहीं था।
बैक्ट्रिया से सिंधु नदी तक का प्रदेश कोरा जंगल था
जिसमे हाथी बहुतायत से पाये जाते थे। भारतीय हाथी
युद्ध में इस्तेमाल किये जाते थे। यह बेहद प्रबुद्ध
पशु था। आज तक अफ्रीका के हाथियों को शिक्षित करना
संभव नहीं हो सका। अफ्रीका के जंगलों की सफाई के लिए
भारत से हाथी भेजे जाते थे। सिकंदर ने हाथी देखा तक
नहीं था।
भारत और फारस पड़ोसी शक्तियाँ थीं और इनकी धार्मिक,
भाषाई कलात्मक संस्कृतियाँ एक जैसी थीं। विज्ञान और
गणित का आदान प्रदान, भारतीय जवाहरात व मसालों का
व्यापार स्थलमार्ग से होता था जो बैक्ट्रिया एवं
सुगड़ियाना के रास्ते काला सागर व यूरोप तक जाता था।
३२७ ई० पू० में सिकंदर सिंधु नदी के किनारे आ पहुँचा।
इतना बड़ा नदी का पाट देखकर उसने समझा कि वह समुद्र के
किनारे आ पहुँचा है।
उसने बन्दर व हाथी पहली बार देखे थे। उसने भारत के
साधुओं को वन में तपस्या करते देखा। उसने पहली बार
मनुष्यों को नदी में नहाते देखा। सूर्य प्रणाम करते
हुए एक साधू से उसने अभिमान भरे स्वर में बात की तो उस
साधू ने उसे शिक्षा दी और कहा कि वह जितनी भूमि पर खड़ा
है केवल उतनी भूमि का मालिक है। यह स्वामी डंडी स्वामी
थे। इन्हें ग्रीक इतिहास में डंडामस के नाम से जाना
जाता है। यह सुनकर सिकंदर का अभिमान जाता रहा और वह
उनका चेला बन गया। भारत से लौटते समय वह उनके एक शिष्य
को अपने साथ ग्रीस ले गया जिनका नाम कल्याण स्वामी था।
ग्रीक भाषा में इन्हें कैलानस के नाम से जाना जाता है।
सिकंदर तक्ष-शिला पहुँच गया। वहाँ का कायर राजा आम्भी
पौरव से खार खाता था। पौरव की राजधानी पुरुषपुर
(पेशावर) थी जो स्वर्ण नगरी मानी जाती थी। उस समय के
मानचित्र में देखें तो कंधार बैक्ट्रिया की सीमा पर था
और पेशावर उससे अधिक दूर नहीं था। दोनों में कितना
सम्बन्ध रहा होगा इसका अंदाजा लगाया जा सकता है। दोनों
उन्नत नगर थे। बैक्ट्रिया में १००० नगर थे ऐसा कहा
जाता है। आम्भी ने सिकंदर को पुरुषपुर का रास्ता
दिखाने का निर्णय लिया और वादा लिया कि सिकंदर विजय के
बाद पौरव का राज्य उसे दे देगा। सिकंदर ने उसे इस भेद
के लिए २५ टन सोना दिया। आम्भी की सेना को साथ मिलाकर
सिकंदर ने पौरव पर आक्रमण किया।
स्वयं सिकंदर के चाटुकार लिपिक, प्लूटार्क का कहना है
कि पोरस सात फुट लंबा था कद में और उसके सामने सिकंदर
वैसा ही लगता था जैसे हाथी के आगे घोडा। सिकंदर की
लम्बाई केवल पाँच फुट पाँच इंच थी और वह मोटा नहीं था।
हाथियों को देखकर एवं सेना के होश उड़ गए। हाथियों पर
बीस से तीस फुट के ऊँचे हौदे रखे जाते थे जो हलके बाँस
और सूखी लताओं से बने हुए होते थे। इनपर बैठकर छद्म
धनुर्धर दो दो गज के रोज़वुड से बने तीर चलाते थे जो
तीन चार पदार्थियों को एक साथ बींध देते थे। सिकंदर की
सेना में चतुर घुड़सवार थे मगर जब नशा किये हाथी पीछे
से उनको रौंदते हुए उन पर पिल पड़ते थे तो बचने का
मार्ग नहीं मिलता था। जंगलों में छुपे तीरंदाज़ एक साथ
तीरों की वर्षा करके मारते थे। सिकंदर ने युद्ध की यह
शैली कभी नहीं देखी थी। उसकी सेना बिदकने लगी।
यह सब देखकर रौशनक / रुखसाना का दिल बैठने लगा। उसने
अपने दूत से पौरव को राखी भिजवाई। उसने जताया कि
पुराने संबधों को याद रखे और अपनी बहन के सुहाग की लाज
रखे। प्लूटार्क लिखता है कि ३२६ ई० पू० में झेलम नदी
के किनारे युद्ध हुआ। पहले ही दिन के युद्ध में पौरव
के भाई अमर ने सिकंदर के अभिन्न मित्र घोड़े ब्यूसीफेलस
को मार गिराया। जिससे सिकंदर ज़मीन पर आ गिरा। रोमन
इतिहासकार मारकस जस्टिनस अपने वृत्तांत में कहता है कि
पौरव ने सिकंदर को ललकारा।
सिकंदर उसपर पिल पड़ा मगर इस मुकाबले में सिकंदर घोड़े
पर से गिर पड़ा और पौरव का भाला उसकी छाती पर था। मगर
पौरव के हाथ रुक गए। वह सिकंदर का वध न कर सका। कदाचित
उसके हाथ पर बँधी राखी उसके आड़े आ गयी।
इसी दुविधा के क्षण में सिकंदर के एक अंगरक्षक ने उसे
घसीट लिया और उसके प्राण बचा लिए। प्लूटार्क ने लिखा
है कि इस युद्ध के बाद यवन सेना के छक्के छूट गए और
उन्होंने आगे युद्ध करने से मना कर दिया। सिकंदर
उन्हें किसी कीमत पर राजी न कर सका। उसने पौरव को पत्र
लिखा और युद्ध रोकने की प्रार्थना की। उसने कहा कि
उसकी सेना अपने भाई बंधुओं के निधन से क्षुब्ध हो गयी
थी और उसे कोई हक नहीं था उन्हें इस प्रकार मौत के
मुँह में धकेलने का। अतः पौरव से उसने संधि कर ली। यही
नहीं आम्भी का सारा राज्य भी उसे दे दिया। अपने
चाटुकार लिपिकों से उसने चाहे कुछ भी लिखवाया हो, मगर
तथ्य यही निकलता है कि वह पौरव से हार गया था। अन्यथा
वह उसे आम्भी को सौंप देता जिसको २५ टन सोना देकर वह
साथ लाया था दुश्मनी निभाने। यह उलटा सलूक क्यों किया?
क्या राखी का मान रखने और अपनी जान बख़्शने के बदले
में? पौरव ने बहन के सुहाग की लाज रखी और सिकंदर की
मित्रता स्वीकार कर ली।
सिकंदर वापिस अपने देश लौट गया। सिंधु नदी पार करके
नन्द राजा से लोहा लेना उसके सामर्थ्य से परे था।
वापसी का रास्ता भी उसने दूसरा चुना। यदि वह हारे हुए
सिपाही लेकर उसी रास्ते से वापिस जाता तो अन्य विजित
राज्य उसको मार डालते और स्वतन्त्र हो जाते। वापसी में
वह मुल्तान (मूलस्थान) के रास्ते से गया जहाँ के
मालवों के राजा ने उसे ललकारा। इस युद्ध में सिकंदर को
स्त्रियों ने बेलन फेंक कर मारे। बेलनों पर घोड़े फिसल
गए। यहाँ तक कि उसे ज़मीन पर से युद्ध करना पड़ा। यहीं
सिकंदर को पसली में तीर लगा जो घाव उसे उसकी मौत तक ले
गया।
चलते चलते एक कहानी और। सिकंदर अपने साथ कल्याण स्वामी
को ग्रीस ले गया। वह चाहता था कि भारतीय दार्शनिक उसकी
सभा की शोभा बढ़ाए और अरस्तु को भारतीय धर्म सिखाएँ।
कल्याण स्वामी मरकस के रेगिस्तान तक आते आते गर्मी और
पानी की किल्लत से बीमार पड़ गया। उसे संग्रहणी हो गयी।
सिकंदर के सिपाही उसको बहुत चाहने लगे थे। स्वयं
सिकंदर उसका मुरीद बन गया था। कल्याण स्वामी ने अपना
अंत निकट आया जानकार अपने मित्रों को चिता बनाने की
आज्ञा दी। इस आदेश पर सब रोने लगे। चिता पर सिकंदर ने
बहुत सा सोना आदि रखा जो कल्याण स्वामी ने सिपाहियों
में बाँट दिया। इसके बाद उसने सिकंदर से कहा कि मैं
तुमसे बेबीलोन में मिलूँगा। और प्राण छोड़ दिए। तब किसी
को उसकी बात का अर्थ नहीं समझ में आया।
इसके कुछ मास बाद सिकंदर का कारवाँ बेबीलोन पहुँचा
जहाँ उसकी मौत हो गयी। मरते समय उसने इच्छा रखी कि
उसके हाथ खुले रखे जाएँ ताकि सब देख सकें कि सिकंदर
महान दुनिया से खाली हाथ गया।
१५
अगस्त
२०१६ |