इस पखवारे- |
अनुभूति-में-
शीला पांडेय, पंकज मिश्र, सुरेन्द्रकुमार चांस, इंद्र कुमार दीक्षित और
अमरनाथ श्रीवास्तव की रचनाएँ। |
- घर परिवार में |
रसोईघर में- झटपट खाना शृंखला के
अंतर्गत-हमारी-रसोई संपादक शुचि लाई हैं
जल्दी से तैयार होने वाली पौष्टिक व्यंजन विधि-
हरियाले
सैंडविच।
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फेंगशुई
में-
२४ नियम जो घर में सुख समृद्धि लाकर
जीवन को सुखमय बना सकते हैं-
१५- फेंगशुई में गृह शुद्धि। |
बागबानी-
के अंतर्गत लटकने वाली फूल-टोकरियों के विषय में कुछ उपयोगी सुझाव-
१५-
टोकरी में सजी गुलदावदी |
सुंदर घर-
शयनकक्ष को सजाने के कुछ उपयोगी सुझाव जो इसके रूप रंग को
आकर्षक बनाने में काम आएँगे-
१५-
सलोना सुहाना सिंदूरी |
- रचना व मनोरंजन में |
क्या
आप
जानते
हैं- आज के दिन (१ अगस्त को) पुरुषोत्तमदास टंडन,
कमला नेहरू, मोहम्मद निसार, भगवान दादा, मीना कुमारी
और इरा दुबे... विस्तार से
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नवगीत संग्रह- में प्रस्तुत है-
आचार्य संजीव सलिल की कलम से श्याम श्रीवास्तव (जबलपुर) के नवगीत संग्रह-
यादों की नागफनी का परिचय। |
वर्ग पहेली- २७३
गोपालकृष्ण-भट्ट-आकुल
और
रश्मि-आशीष के सहयोग से
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हास परिहास
में पाठकों द्वारा भेजे गए चुटकुले |
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साहित्य एवं
संस्कृति में- |
साहित्य संगम में ईश्वरचंद्र की
सिंधी कहानी का
रूपांतर- अपने ही घर
में रूपांतरकार हैं देवी नांगरानी
वसुधा और उसका बच्चा ताँगे के
पिछले हिस्से में बैठे रहे। सामान उन्होंने आगे रखवा दिया।
वसुधा के पिता ताँगे के आगे वाले हिस्से में बैठ गए। जब ताँगा
चलने लगा तो वसुधा को लगा कि उसका शहर काफी बदल गया है। पाँच
सालों के लम्बे अरसे के बाद इस शहर में आई थी, जहाँ उसने अपना
बचपन बिताया, जहाँ बड़ी होते-होते बहुत से फूलों को खिलते और
मुरझाते देखा था, जहाँ पक्षियों के जोड़ों को देखकर अपनी आँखों
में अनेक सपने सजाए थे, जहाँ एक दिन सजी-सजाई डोली में बैठकर
वह अपने मैके से बिछड़ गई थी।
पाँच साल बीत गए।
तब और अब में कितना फर्क आ गया है।
उसने रास्ते के दोनों ओर देखा। कितना बदल गया था उसका शहर!
रास्ते चौड़े हो गए थे। टाऊन हॉल के पास से गुज़रते, उसने देखा
कि सभी दुकानें पक्की हो गईं थीं। टाऊन हॉल के सामने एक बगीचा
बन गया था। बहुत सारे फूल राहगीरों की ओर देखकर मुस्करा रहे
थे। चौराहे पर सिग्नल लाइट्स लग गई थीं और रास्तों पर बीमार
बल्बों की जगह पर ट्यूब लाइट्स...
आगे-
*
महेश द्विवेदी का व्यंग्य
सफाई अभियान
*
कुमार रवीन्द्र का आलेख
नवगीत के 'अवांगार्ड' कवि डॉ.शिवबहादुर सिंह भदौरिया
*
चीन से गुणशेखर की पाती
श्वेनत्सांग के
चतुर्चक्रवर्ती सम्राट
*
पुनर्पाठ में कृष्ण बिहारी की
आत्मकथा
सागर के इस
पार से उस पार से का अठारहवाँ भाग |
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पूनम पांडेय की
लघुकथा-
कर्तव्य बोध
*
सुबोध नंदन के साथ पर्यटन
जैनियों का तीर्थस्थल-
चंपापुर
*
डॉ. अमिता की समीक्षात्मक दृष्टि
से
सुधा ओम ढींगरा का उपन्यास- नक्काशीदार कैबिनेट
*
पुनर्पाठ में कृष्ण बिहारी की
आत्मकथा
सागर के इस
पार से उस पार से का सत्रहवाँ भाग
*
समकालीन कहानियों में प्रस्तुत
है भारत से
जयनंदन की कहानी
जरा धीरे जाएँ पुल
कमजोर है
जगदल ने अपनी आँखों के सामने
देखा कि पुल का फुटपाथ रेत के टीले की तरह भर-भराकर ढह गया।
स्कूली बच्चों का एक झुंड एक सेकेंड के फासले से नदी में
गिरते-गिरते बचा। उसे लगा कि एक बड़े अनिष्ट ने जान-बूझकर
चेतावनी दे दी है कि सावधान! अब यह पुल कभी भी गिर सकता है।
मन एकदम उचट गया उसका। इतनी लापरवाही! कैसे चलेगा आदमी
का धरम-करम। इंजीनियरों द्वारा मुकर्रर आयु यह पुल बीस साल
पहले पूरी कर चुका है। फिर भी इसका विकल्प ढूँढने का कहीं से
कोई प्रयास होता नहीं दिख रहा। उलटे इसकी वजन-क्षमता से हमेशा
दस-पंद्रह गुणा अधिक भार इस पर लदा रहता है।
चालीस-पचास चक्कोंवाले एक से एक बड़े ट्रेलर भारी-भारी
मशीनरी और अन्य लौह-सामग्री लेकर अक्सर गुजरते रहते हैं। उस
पार मुख्य कारखाना और शहर की दो तिहाई आबादी स्थित है तो इस
पार सैकड़ों लघु कारखाने और एक तिहाई आबादी। अतएव आवाजाही का
सघन सिलसिला दिन भर चलता रहता है।
क्षण भर के लिये भी कोई बाधा पुल के बीच में...
आगे- |
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