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जैनियों
का तीर्थस्थल श्री चम्पापुर
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सुबोध कुमार नंदन
भागलपुर शहर का पश्चिमी उप नगर चम्पानगर के
नाम से जाना जाता है। चम्पा नगर जैनियों का अतिपवित्र
तीर्थस्थल माना जाता है। केवल यही क्षेत्र ऐसा है जहाँ किसी
तीर्थंकर के पाँचों कल्याणक एक ही स्थान पर हुए। यह महान
सौभाग्य अन्य किसी नगर को नहीं मिला। ऐसी पुण्य नगरियाँ तो हैं
जहाँ किसी एक तीर्थंकर के गर्भ, जन्म, दीक्षा और केवल्यज्ञान
में चारों कल्याणक माने गए। इस दृष्टि से इस नगरी को विशेष
महत्व प्राप्त है। ईसा पूर्व ५४१ में निर्मित श्री चम्पापुर
में जैन सिद्ध क्षेत्र के नाम से एक प्रसिद्ध मंदिर है जो १२
वें तीर्थंकर भगवान वासुपूज्य के जन्म स्थान के रूप में जाना
जाता है।
जैन धर्मग्रंथ कल्पसूत्र में चम्पानगर का वर्णन है। उसके
अनुसार तीर्थंकर महावरी ने अपने धार्मिक भ्रमण के समय तीन
वर्षा ऋतुएँ यहाँ बिताईं। चम्पानगर वर्तमान समय में भी जैन
धर्म का अंतरराष्ट्रीय केन्द्र माना जाता है। ब्राह्मण, बौद्ध
तथा जैन साहित्य में चम्पा का उल्लेख राजशक्ति और व्यापार
केन्द्र के रूप में अधिक हुआ है। फाहियान, ह्नेनसाँग, जिनसेन
हरिभद्र आदि ने चम्पा का तीर्थाटन किया था। प्रतिवर्ष यहाँ ५०
से ६० हजार से अधिक जैन तीर्थयात्री नवम्बर से मार्च के बीच
आते हैं।
लगभग पाँच एकड़ में फैले इस मंदिर की कारीगरी विशेष रूप से
दर्शनीय है। मंदिर का प्रवेश द्वार जयपुर के हवा महल से
मिलता-जुलता है। मंदिर के प्रवेश द्वार पर ११ गुंबज बने हैं जो
भगवान वासुपूज्य के पहले ११ तीर्थंकरों की पूज्यता के प्रतीक
हैं। १२ वाँ गुंबज भगवान वासुपूज्य के मुख्य मंदिर पर बना है।
पंचकटनीयुक्त यह द्वार पंचकल्याण का द्योतक है। प्रवेश द्वार
में पंचकटनी एवं वंदननवा की कलाकृतियाँ काफी आकर्षक हैं।
इस मंदिर में विशेष रूप से दर्शनीय है, १५०० वर्ष पुरानी १२
वें जैन तीर्थंकर भगवान वासुपूज्य की तांबे और सोने से बनी
मूर्ति तथा उनकी चरण पादुका। इस मंदिर के शिखर की ऊँचाई ७३ फीट
है जो सफेद संगमरमर से निर्मित है। भगवान वासुपूज्य की मूर्ति
एक ही सफेद संगमरमर के टुकडे से बनाई गई है, जो २१ फीट ऊँची
है। मुख्य मंदिर में वेदी चार मोटे-मोट स्तंभों पर आधारित है।
मूलनायक भगवान वासुपूज्य मूँगा वर्ण के साढ़े तीन फीट ऊँचे हैं।
इसके अलावा तीन धातु प्रतिमाएँ और एक चरण है। चारों कोनों पर
मंदिर बना है। मंदिर परिसर में ५३ वेदियाँ हैं जिनमें पाँच
वेदियाँ मुख्य मंदिर में हैं। दक्षिण-पश्चिमी मंदिर में भगवान
वासुपूज्य श्वेतपाषाण पद्यासन में विराजे हैं। आगे सहस्र
फणवलियुक्त भगवान पार्श्वनाथ की मूर्ति है। इसके अलावा कई
प्राचीन मूर्तियाँ हैं।
पुराने सरकारी दस्तावेजों में मंदिर का यह स्थान चम्पापुर
राधैपुर टेकरे के रूप में दर्ज है। इन कागजात के अनुसार यह
मंदिर ९३६ वर्ष प्राचीन है। इस बात को प्रमाणित करने वाले
दस्तावेज अभी तक नाथनगर के स्वर्गीय माल जी के घर पर मौजूद
हैं। जबकि पुरातत्ववेत्ता इस मंदिर को ईसा पूर्व ५४१ का मानते
हैं।
इस मंदिर में पहले चारों दिशाओं में एक-एक मानस्तंभ थे लेकिन
वर्तमान में केवल पूर्व व दक्षिण दिशा में ही एक-एक मानस्तंभ
शेष है। अन्य दोनों मानस्तंभ सन् १९३४ में आये भीषण भूकंप में
नष्ट हो गए। लगभग ५०-५० फीट ऊँचे इन मानस्तंभों में एक ओर से
ऊपर जाने के लिए तथा दूसरी ओर नीचे आने के लिए सीढ़ियाँ बनी हुई
हैं। मानस्तंभों के नौ खंड हैं। ऊपर चारों ओर ईरानी शैली के
कंगूरे बने हैं। शीर्ष अठपहल है। स्तंभों के ऊपर कलश है। एक
स्तंभ के नीचे वाली कोठरी में संस्कृत तथा अरबी भाषा के
प्राचीन लेख उत्कीर्ण हैं। पूर्व वाले मानस्तंभ में एक सुरंग
बनी है जो लगभग ३०० किलोमीटर लंबी बताई जाती है। यह सुरंग
क्रमश: सम्मेद शिखर व मंदार पर्वत की ओर निकलती है। इन स्तंभों
के आसपास स्थापित २४ तीर्थंकरों की वेदियों के एक साथ दर्शन का
पुण्य मिलता है।
आम्रवन में तीर्थंकर पद्यप्रभु भगवान का जिनालय है। आम्रवन में
जैन धर्म से जुडे़ धार्मिक घटनाओं पर आधारित प्रतिमाएँ बनी हैं
जो अपने आप में आकर्षण का केन्द्र हैं और यहाँ आने वाले को एक
अलग सुकून महसूस कराती हैं। मंदिर परिसर की दीवारों पर रामायण
और महाभारत के कथानक का सजीव चित्रण है, जो पूरे परिसर को एक
अलग स्वरूप प्रदान करता है।
गंगा नदी का एक नाला चम्पा नाला है। यहाँ एक प्राचीन जिन मंदिर
दर्शनीय है। इस मंदिर में रक्तवर्ण वासुपूज्य की एक फुट उतुंग
प्रतिमा के साथ ही एक शिलाफलक है जिसमें २४ चरण चिह्न बने हुए
हैं। |