डॉ.
सम्पदा एक समाज सेवी संस्था से वर्षों से जुड़ी है। वहाँ
उनकी मुलाकात सोनल से होती है। उसकी चाल ढाल और लहजे से
डॉ. सम्पदा समझ जाती है कि वह एक शिक्षित लड़की है और
ग्रामीण पंजाब से संबंधित है। उपन्यास में प्रारंभ में ही
यह संदर्भ स्पष्ट हो जाता है ''पहली मुलाकात में वह मेरे
इतने करीब आ गई कि हम बड़ी देर तक बैठे बातें करते रहे...जब
तक वह शारीरिक और मानसिक रूप में सशक्त नहीं हुई। इस देश
में उसने अपने अस्तित्व को तलाशा और अपने पाँव पर खड़ी
होकर, उन सबसे अपने हिस्से की खुशियाँ वापिस लीं,
जिन्होंने जवानी और बचपन में उससे वे छीन ली थीं। मेरे लिए
वह नारी सशक्तिकरण का जीवंत उदाहरण थी। उसने जीवन में
घटनाओं, दुर्घनाओं, विश्वासघात, धोखा और फरेब के जिस दौर
को देखा था, उन सबसे निकलकर उसने जो कर दिखाया वह खास
था।''
इस प्रकार वास्तव में यह उपन्यास सोनल के विकट व भयावह
संघर्ष की रोचक कथा है जो अनेक संघर्षों से लड़कर भी हारती
नहीं है, टूटती नहीं है। अनेक लड़कियों के लिए उसका संघर्ष
एक प्रेरणा के रूप में सामने आता है जो विषम स्थितियों में
डटकर लड़ती है।
उपन्यास में सोनल के दादा जी का नाम सोहनचंद मनचंदा था।
उन्हें सब बाऊ जी कहते थे। वे जमींदार थे। विरासत में दादा
जी से जमींदारी पिताजी को मिली थी। पिताजी का नाम त्रिलोक
चंद था जो मिलिट्री से रिटायर होकर घर आ गए थे। मीनल और
सोनल त्रिलोकचंद की दो पुत्रियाँ थीं। सोनल का चाचा मंगल
आलसी, शराबी और जुआरी था। उसने चाचा जैसे रिश्ते को कलंकित
किया था। मंगल की ऐय्याश प्रवृत्ति की वजह से कोई माँ-बाप
उसे अपनी लड़की देने को तैयार नहीं था। लेकिन पड़ोस के एक
गाँव से रिश्ता आया तो दादा-दादी ने इंकार नहीं किया,
उन्होंने सोचा कि लड़का सुधर जाएगा तो सोहनचंद मनचंदा ने
मंगल का विवाह कर दिया। लेकिन मंगल में कोई सुधार नहीं
आया। मंगल की पत्नी मंगला के साथ उसका भाई भी रहने लगा।
मंगला जिस घर से आई थी उस घर का माहौल भी अच्छा नहीं था।
उनकी पुश्तैनी जायदाद को बाप और भाई उड़ा चुके थे। मंगल और
उसका साला शराब, ताश, जुए में व्यस्त रहते और गाँव की
बहू-बेटियों पर फब्तियाँ कसते। सोनल की माँ बी.ए. पास थी
इसीलिए मीनल और सोनल को पढ़ाना चाहती थी। उपन्यासकार द्वारा
नारी उत्कर्ष मीनल और सोनल के परिप्रेक्ष्य में साकार हुआ
है।
बाऊ जी ने मंगल, मंगला और उसके भाई को खेतों में बने घर
में पहुँचवा दिया। मीनल ने इस कार्य में दादा-दादी,
पिताजी-माँ के लिए सहयोग दिया था। मीनल के व्यवहार पर
मंगला कह गयी ''मीनल तुझे तो मैं देख लूँगी'... यह वह समय
था जब पंजाब में अधिकतर युवक दुबई, कनाड़ा और खाड़ी के देशों
में जाने शुरू हो गए थे। कई घरों के लोग पहले से इंग्लैण्ड
में थे। विदेश से पैसा आ रहा था। पढ़ने-लिखने की तरफ किसी
का रुझान नहीं था। परिणाम यह हो रहा था कि खाली दिमाग,
पैसे की अधिकता और नशे के वे आदी लोग निकम्मे बनते जा रहे
थे।''
इस वातावरण के चित्रण में लेखिका ने कौशल से काम लिया है।
कथा में रोचकता, जिज्ञासा, कौतूहल बना रहता है। कथा के
प्रवाह में पाठक पृष्ठ पर पृष्ठ पढ़ता जाता है और कथा के
प्रवाह के साथ बहता जाता है। मीनल और सोनल के साथ पम्मी
(परमिंदर) और सुक्खी (सुखवंत) सुखविंदर का भी उल्लेख मिलता
है। ये शिक्षित वातावरण के लड़के हैं और इनके परिवार को
कामरेडों का परिवार भी कहा जाता है। मीनल को पम्मी प्यार
करता है। किंतु मीनल मंगला चाची के दुष्कर्मों का शिकार
होकर मारी जाती है। मंगल और दिलगीर पकड़े जाते हैं।
उन्होंने गुनाह कबूल किए। दिलबाग और दिलशाद भी पकड़े जाते
हैं। मंगला के साथ उनके माँ-बाप और दो भाई भी रहने लगते
हैं। मीनल की हत्या के केस में जो फैसला आया उसमें दिलबाग
और दिलशाद को फाँसी की सजा सुनाई गई और मंगल तथा दिलगीर को
उम्र भर का सख्त कारावास। मंगला के बाप ने कहा ''उसने अपनी
सुन्दर बेटी मंगल जैसे नालायक के पल्ले इसीलिए बाँधी थी,
उसकी नज़र बाऊ जी की जमीनों, हवेली और इस कमरे पर थी जिसमें
पीढ़ी दर पीढ़ी से हीरे जवाहरात, सोना और चाँदी दबे पड़े थे।
उन्हें तो वह लेकर रहेगा, चाहे उसके अपने दो और बेटे
गँवाने पड़ें...।''
उपन्यास में सोनल महाराजा रणजीत सिंह के समय का वर्णन करती
है। और तत्कालीन पंजाब की आंतरिक और बाहरी स्थिति का
उल्लेख करते हुए यह स्पष्ट करती है कि हमारे परिवार के
बुजुर्गों के पास तोशखाने का काफी धन था। वे महाराजा रणजीत
सिंह के शासन काल के तोशखाने थे। उपन्यास में वर्णन शैली
बेजोड़ है।
उपन्यास में पम्मी के मँझले भाई सुक्खी (सुखवंत) से सोनल
की दोस्ती हो जाती है। सुक्खी को पढ़ने का शौक था। सोनल
बताती है कि सुक्खी की किताबों से वह भी साहित्य की अनेक
पुस्तकें पढ़ जाती है। उसने यूरोप और हिन्दी साहित्य के
अनेक लेखकों को पड़ा था। सुक्खी, पम्मी और सोनल जैसे अनेक
युवक-युवतियाँ प्रगतिशीलता की नई सोच से जुड़ने लगे। ये लोग
किसानों और दलितों को उनके अधिकारों के प्रति सचेत करने
लगे। सोनल डी.ए.वी. कॉलेज में पढ़ी, उसने बी.ए. ऑनर्स करने
के बाद साइक्लोजी में एम.ए. किया। लेखिका ने ग्रामीण
परिवेश को प्रगतिशीलता की ओर अग्रसर करके नई सोच को
प्रश्रय दिया है जो समयानुकूल आवश्यकता थी। लेखिका ने इस
दौर में खालिस्तान की लहर का उल्लेख भी किया है जिसमें
अधिकांश युवा भटक गए थे लेकिन कुछ युवा इस हिंसा का विरोध
कर रहे थे जिसमें निर्दोष लोगों की हत्या हो रही थी। पम्मी
जैसे युवा की भी खालिस्तानी हत्या कर देते थे क्योंकि वह
निर्दोष लोगों की हिंसा के विरोध में होता है। परिवेश के
वस्तुगत सत्य को सच्चाई के साथ लेखिका ने जीवंत बनाया है।
आपरेशन ब्लू स्टार, इंदिरा की हत्या और तदनंतर फैली हिंसा
का उपन्यासकार ने सजीव चित्रण किया है। ''इस दौर में
पंजाब, दिल्ली और देश के अन्य भागों में हिंसा भड़क उठी थी।
और इस हिंसा ने वीभत्स रूप धारण कर लिया था। इसकी आड़ में,
आतंकवाद के नाम पर कई लोगों ने तो आतंकवादी रूप घर निजी
रंजिशें निकालनी शुरूकर दी थीं।'' उपन्यासकार ने १९८० के
आस-पास के परिवेश को सच्चाई के साथ उपन्यास में चित्रित
किया है जो एक ऐतिहासिक दस्तावेज बनकर उभरता है।
सुक्खी (सुखवंत) जो सोनल का दोस्त होता है वह आई.पी.एस.
में उत्तीर्ण होकर पुलिस अफसर हो जाता है। एक हादसे में
बाऊ जी, पिताजी और बीजी को गोलियों से भून दिया जाता है।
केवल सोनल और उसकी माँ घर में बच जाते हैं। यह मर्मस्पर्शी
कथा यहीं खत्म नहीं होती। सोनल के मामा, नाना परिवार सहित
सोनल के घर पर आकर रहने लगते हैं। वे आये थे दुख में शामिल
होने के लिए लेकिन उन्होंने सोनल के घर पर डेरा जमा लिया।
झाई कहती थी ''उनके मायके वाले भी कम स्वार्थी नहीं'' यह
सारा खेल, धन-सम्पत्ति को हथियाने के लिए होता है जिसमें
भावानात्मक रिश्तों की कोई जगह नहीं होती केवल खोखलापन
दिखाई देता है। सोनल के चाचा, चाची, मामा, नाना के सभी
रिश्तों में कहीं आत्मीयता न थी।
इस कथा में सबसे पीड़ादायी स्थिति तब आती है जब डॉ. बलदेव
सिंह की शादी सोनल से करवायी जाती है। यह डॉ. बलदेव झूठ
फरेब का पुतला होता है जिसका वास्तव में सुलेमान नाम होता
है। ननिहाल की ओर से रचे गए नाटक में सोनल फँस जाती है।
उसे समझाया जाता है कि बलदेव उसे अमेरिका में पी-एच.डी.
करने देगा- ''बलदेव ने मुझे बताया था कि वह अमेरिका में
डॉक्टर है और वह मेरी इच्छा से वाकिफ हो गया है। वह मुझे
वहाँ साइक्लोजी में पी-एच.डी. जरूर करवाएगा।'' सोनल को
सुक्खी बहुत अच्छा लगता था। वह वास्तव में उसे बहुत प्यार
करती थी। पर माँ ने समझाया ''दिल को सँभाल ले मेरी बच्ची,
मास्टर जी का एक बेटा जा चुका है। दूसरे की जिन्दगी खतरे
में डालने का तुझे कोई हक नहीं। बन्दूक की गोलियाँ किसी की
सगी नहीं होतीं। तुमसे अधिक इसे कौन समझ सकता है? मन को
मार ले और आगे होने वाले विनाश को रोक। जान है तो जहान है।
तुम्हारी और मेरी जान को खतरा है।''
सोनल सोचती है मेरे सामने माँ के अतिरिक्त कौन है। माँ ने
ठीक ही समझाया कि सुक्खी का भाई पम्मी पहले ही गोलियों का
शिकार हो गया था। इस स्तर पर आकर सोनल बहुत अचेत हो जाती
है, सुक्खी को लेकर उसका हृदय टूटता है'' माँ ने बाऊजी और
पिताजी की कसम दे दी थी। मुझे शादी तो अब अमेरिका के
डॉक्टर से करनी ही पड़ेगी। मेरे पास जो विकल्प था, वह छूट
गया था। समुद्र के किनारे खड़ी एक खूबसूरत जहाज को देख रही
थी जिस पर सवारी की मौन इच्छा मेरे भीतर पता नहीं कब से पल
रही थी, उस आकांक्षा को अब दबाना पड़ा था।''
उपन्यास में सोनल का यह दर्द अपने समूचे आवेग में फैला हुआ
है जो पाठक के मर्म को छू लेता है। और फिर वही होता है
जिसकी सोनल को आशंका थी। डॉ. बलदेव का झूठ सामने आता है वह
केवल उसकी हीरे, जवाहरात जैसी दौलत को हड़पने के लिए वह
नाटक रचता है। उपन्यास में बलदेव अपने पारिवारिक लोगों को
कहता है- ''पहले इसका विश्वास जीतो। उसके नाना को वादा
किया है, कागजों पर उसके साइन करवा कर दूँगा और बदले में
उसके घर में पड़े हीरे मेरे होंगे। मुझे हीरे चाहिएँ। फिर
हम सब इकट्ठे उसे नोच खाएँगे।''
सोनल को जब यह ज्ञात हो जाता है तो वह इस नरक से भागने का
प्रयत्न करती है ''मुझे लगा मैं धरती में धँसी जा रही हूँ,
दीवार का सहारा लेकर मैंने अपने आपको सँभाला। घबराने और
बेचैन होने का समय नहीं था। पता नहीं कहाँ से मुझ में इतनी
फुर्ती आ गई, मैंने चारों ओर नजर दौड़ाई। कमरे में खिड़की थी
पर शीशा लकड़ी के फ्रेम में फिट था, वह खिड़की थी। जल्दी से
जाकर देखा। वह बाहर को खुल सकती थी। दो पाटों की खिड़की थी।
ज्यादा ऊँची भी नहीं थी। मैं उस तक पहुँच सकती थी। मुझे
पता भी नहीं चला, कब उस खिड़की से बाहर आ गई और उसके साथ
लगे वृक्ष पर झूलने लगी। वृक्षों पर चढ़ना-उतरना तो बचपन
में सीखा था। खूब कूदी हूँ वृक्षों पर। आसानी से उतर गई।''
लेखिका की कलम से सोनल के साहस का यह चित्रण बहुत
प्रभावशाली बनकर उपन्यास के सौन्दर्य को बढ़ा रहा है।
लेखिका यह बताना चाहती हैं कि उपन्यास में डनीस और रॉबर्ट
सोनल को शरण देते हैं। डनीस और रॉबर्ट जैसे लोग भी दुनिया
में हैं जो बेसहारा को सहारा देकर उसके संरक्षण में जीवन
की सार्थकता ढूँढते हैं। सोनल हिम्मत जुटाती है। सोनल
उपन्यास में एक स्थान पर कहती है ''बाऊजी, बीजी और पिताजी
की मौत के बाद मैं एक रात भी चैन से नहीं सोई थी। यही डर
लगा रहता था पता नहीं कौन कहाँ से आकर, कब मुझे मार
डालें।''
लेकिन सोनल की कथा यहीं खत्म नहीं होती सोनल बलदेव जैसे
दुष्ट लोगों को पुलिस के हाथों पकड़वाने के लिए कृतसंकल्प
हो जाती है। रॉबर्ट और डनीस के साथ के बाद वह एक संस्था
में डॉ. सम्पदा को मिलती है। सोनल सुक्खी को फोन करती है।
सुक्खी अमेरिका आता है और तदनंतर बलदेव जैसे दुष्ट लोग और
उनका गिरोह पकड़ा जाता है। सोनल को अमेरिका छोड़ एस.पी.
सुखवंत भारत नहीं लौटता अपितु वहीं अमेरिका में ही बस जाता
है। अन्याय का अंत करवाकर लेखिका ने आशावादिता और आस्था का
संकेत दिया है जो प्रेमचंद की आदर्शोन्मुखी यथार्थवादी
शैली से मेल खाता है। लेखिका ने वर्णनात्मक शैली में बेजोड़
कथा कही है जो नारी संघर्ष की सच्ची गाथा है। कथा में कहीं
भी अस्वाभाविकता या असहजता नहीं प्रतीत होती। इसमें कल्पना
का मिश्रण अंश मात्र किया भी हो तथापि कथा बड़ी जीवंत लगती
है।
लेखिका ने पाश कवि के द्वारा भारत की आजादी के बाद की
तस्वीर को भी चित्रित किया है ''सुक्खी ने उत्तर दिया
भारतीय जनता के गौरवशाली संघर्ष और विश्व पूँजीवाद के
आंतरिक संकट के परिणाम स्वरूप जो राजनीतिक आजादी १९४७ में
मिली, उसका लाभ केवल पूँजीपतियों, सामंतों और उनसे जुड़े
मुट्ठी भर विशेषाधिकार प्राप्त लोगों ने ही उठाया। हालात
और भी बदतर हो गए। पहले जो राजनीति, त्याग व सेवा का कार्य
था आज मुनाफे का धंधा है। देश गुलामी के जाल में फँस चुका
है। सातवाँ दशक आते-आते आजादी से मोहभंग की प्रक्रिया शुरू
हो गई थी। भारत के शासक वर्ग के खिलाफ जन-असंतोष तेज हो
गया था जिसकी अभिव्यक्ति राजनीति में ही नहीं, संस्कृति और
साहित्य में भी हुई। इस दौर में पंजाबी साहित्य के क्षेत्र
में नई पीढ़ी के कवियों ने पंजाबी कविता को नया रंग रूप
प्रदान किया। अवतार सिंह पाश इन्हीं की अगली पंक्ति में
था।'' अवतार सिंह धर्मिक कट्टरता के खिलाफ और हिंसा के
खिलाफ था इसीलिए खालिस्तानियों ने उसे गोली से भून दिया।
मानवीय मूल्यों के प्रेरक सिंह-गुरुओं की महान गाथाओं के
साथ उपन्यासकार ने धर्मिक कट्टरता और हिंसा के खिलाफ अपनी
चिंताओं को व्यक्त किया है। ''औरंगजेब के शासन काल में जब
कश्मीरी पंडित आनंदपुर साहिब गुरुतेग बहादुर के दरबार में
पहुँचे...गुरु तेग बहादुर का जीवन कार्य ही अपने हिन्दू
धर्म की रक्षा करने का भगीरथ प्रयत्न था। सारी बातें सुनकर
वे सोच में पड़ गए। कुछ समय के मनोमंथन के बाद वे बोल उठे
इस समय देश और धर्म की रक्षा का एकमात्र उपाय किसी
महापुरुष का बलिदान है। उनका नौ वर्ष का पुत्र गोविन्द राय
पास ही खड़ा था उसने तुरंत कहा पिताजी इस पवित्र कार्य के
लिए आप से बढ़कर कौन महापुरुष है।''
उपन्यासकार ने उपन्यास में स्पष्ट किया है कि गुरु गोविन्द
सिंह ने भी धर्म रक्षा के लिए अपने चार पुत्र अजीत सिंह,
जुझार सिंह, जोरावर सिंह और फतेह सिंह का बलिदान कर दिया
था। उनकी आगे की पीढ़ी खालिस्तानी सोच में पड़कर कैसे भटक गई
है? यह चिंता लेखिका उपन्यास में उभारती हैं। उपन्यास में
एस.पी. सुक्खी, डॉ. सम्पदा से कहता है ''दीदी मैं पंजाब
में अपनी तब्दीली करवाना चाहता था, अब नहीं। पंजाब के
हिन्दू-सिक्खों में रोटी-बेटी के सम्बन्ध थे। भारतीय शासन
वर्ग द्वारा पैदा किए गए खालिस्तानी पृथकतावादियों शरारती
तत्त्वों और पड़ोसी देश की अलगाववादी ताकतों ने सब गड़बड़ कर
दिया।'' पंजाब के बदलते परिवेश की वास्तविकता लेखिका ने
चित्रित की है। आतंकवाद के कारण एक दूसरा दर्द भी लेखिका
ने व्यक्त किया है ''पीढ़ी दर पीढ़ी जो हिन्दू परिवार सिक्ख
धर्म के अनुयायी थे और गुरुद्वारों में जाते थे, वे
गुरुद्वारों में असहज होने लगे। दोनों में परोक्ष-अपरोक्ष
दरार आ गई थी।'' लेखिका द्वारा हिन्दू-सिक्ख संस्कृति के
सद्भाव का प्रयास सराहनीय है।
यह सुक्खी आई.पी.एस. की नौकरी को त्यागपत्र भेजकर अमेरिका
में इंटरनेशनल लॉ की पढ़ाई करने लग जाता है जहाँ से सोनल
पी-एच.डी. का कार्य करना चाहती है। इस प्रकार उपन्यास अपने
चरमोत्कर्ष पर समाप्त हो जाता है। रिश्ते नातों के संसार
में जहाँ परिभाषित सम्बन्ध (चाचा, चाची, मामा, नाना)
अर्थहीनता को प्राप्त हो रहे हैं। वही मास्टर जी के लड़के
पम्मी और सुक्खी इस परिवार के लिए (मीनल और सोनल के लिए)
मूल्यवान और अर्थवान हो उठे हैं। यह लेखिका की नयी सोच को
व्यक्त करता है और प्रेम सम्बन्धों के सार्थक स्वरूप का
उदाहरण प्रस्तुत करके परम्परागत सोच से बाहर निकालने का
लेखिका का यह प्रयास भी स्तुत्य है।
लेखिका ने आदर्शात्मक समाधान भी दिए हैं। सोनल और सुखवंत
विदेश में रहते हुए (पेरिस में पढ़ाते हुए) एक संस्था बनाते
हैं जिसमें विदेशों में देह व्यापार में झोंकी गई भारतीय
लड़कियों को खोजना और उन्हें मुक्त करवाने के लिए कार्य
करना, पंजाब के गाँवों के प्रतिभाशाली बच्चों को उच्च
शिक्षा दिलवाना और चिकित्सा सुविधाएँ प्रदान करना उनका
लक्ष्य है।
उपन्यासकार ने कुछ जीवनानुभवों और मूल्यगत सत्यों को
विचारों में व्यक्त किया है-
''भविष्य की चिंताओं में मनुष्य वर्तमान को जीना मूल जाता
है और स्वयं का जीवन दूभर कर लेता है।''
''जिस दिन मानव वर्तमान में जीना सीख लेगा, बहुत सी
परेशानियों और चिंताओं से मुक्त हो जाएगा।''
उपन्यास की लेखिका विदेश में रहती हैं और अपने देश
भारतवर्ष भी आती जाती रहती हैं। इसीलिए देश-विदेश के
रहन-सहन, आचार-विचार और जीवन मूल्यों का भी तुलनात्मक
चित्रण करती हैं- ''सार्थक इस देश के अनुशासन, यहाँ की
व्यवस्था, और लोगों के सेवाभाव से बहुत प्रभावित है। इस
देश का अच्छा-बुरा सब समझते हैं। हालाँकि यह बात नहीं कि
यहाँ बुरे लोग नहीं हैं जो बुरे हैं, बहुत बुरे हैं। पर वे
भी सड़कों पर लघुशंका का निवारण नहीं कर सकते। सड़कों पर थूक
नहीं सकते। कत्ल, बलात्कार करके छूट नहीं सकते। यहाँ रंग
भेद है, पर देश को रँगने का किसी को अधिकार नहीं। गन्दी
सोच के लोग हैं पर उन्हें देश को गंदा करने का हक नहीं।
देश सबका है और इसे साफ रखना सबकी जिम्मेदारी है।'' लेखिका
चाहती है कि उसके भारतवर्ष की तस्वीर भी अच्छी बने।
देश-विदेश के नियम कायदों और जीवन पद्धतियों की तुलना करते
हुए लेखिका ने परोक्ष रूप में भारत वर्ष की
धर्मिक-विसंगतियों और कानून के ढीले-ढाले रवैयों का चित्रण
भी किया है। और विदेश (अमेरिका) की व्यवस्था की प्रशंसा भी
की है ''आप किसी भी सोच के हैं, किसी भी विचारधारा के,
किसी भी धर्म में विश्वास रखते हैं, कट्टरपंथी हैं या
उदारवादी आपको कोई कुछ नहीं कहेगा। आप धड़ल्ले से यहाँ रह
सकते हैं, जहाँ आपने पर्यावरण को बिगाड़ने की कोशिश की,
वातावरण को अशुद्ध किया और कानून का उल्लंघन करने या उसे
हाथ में लेने की कोशिश की, तो समझिए आप गए। कानून सजा
देगा। यहाँ का कानून किसी का लिहाज नहीं करता।''
लेखिका अपने इस वक्तव्य से अपने देश में जो असुन्दर है उसे
सुन्दर बनाने के लिए प्रयत्नशील दिखाई देती हैं। विदेश में
बसी उपन्यासकार वहाँ की व्यवस्था और मूल्यों से प्रभावित
हैं। सरकारी, गैरसरकारी संस्थाओं के साथ लोग भी अपने
दायित्व को समझते हैं ''तकनीकी प्रगति से यह लाभ अवश्य हुआ
कि किसी भी तरह के संकट के समाचार विभिन्न संचार माध्यमों
के माध्यम से प्रत्येक मनुष्य तक पहुँच जाते हैं और हरेक
को कठिन घड़ी के लिए तैयार होने का समय मिल जाता है। इस देश
की व्यवस्था बड़ी मुस्तैद है और यहाँ के जीवन की सबसे बड़ी
खूबी है, मनुष्य के जीवन की महत्ता को समझना और आने वाले
खतरों को गंभीरता से लेना। सरकारी तंत्र अप्रत्याशित
घटनाओं से जूझने के लिए सर्तकता से तैनात हो जाता है।
स्थानीय लोग और गैर सरकारी संस्थाएँ भी सचेत हो जाती हैं।
हर कार्य को 'सरकार का काम है' नहीं समझा जाता। लोग स्वयं
भी अपने लिये खड़े होते हैं।''
उपन्यास में सोनल, रॉबर्ट और डनीस के यहाँ शरण लेती है। वह
उनसे प्रभावित होती है। ८० वर्ष के आस-पास की उम्र में भी
दम्पत्ति बच्चों पर आश्रित नहीं रहते ''जब तक हाथ-पाँव काम
कर रहे हैं, हम किसी पर भी यहाँ तक कि बच्चों पर भी निर्भर
नहीं रहना चाहते। जब शरीर साथ छोड़ेगा तो उन्होंने ही हमारी
देखभाल करनी है। अभी से उन्हें क्यों परेशान करें।'' सोनल,
रॉबर्ट अंकल को डनीस आंटी के साथ घर के काम में हाथ बँटाते
देखती है और सोचती है कि हमारे देश में तो सारे काम पत्नी
को ही करने होते हैं। यह समझ रॉबर्ट और डनीस जैसे लोगों से
लेनी चाहिए।
तूफान की आशंकाओं का चित्रण स्वाभाविक जान पड़ता है। परिवेश
का प्रामाणिक चित्र उपन्यास में उभरता है
''उस दिन वातावरण में घबराहट थी। तनाव था। बेचैनी थी।
सड़कों पर कारें तेजी से भाग रही थीं। शहर के सारे ग्रोसरी
स्टोर खाली हो चुके थे। लोगों ने खाने-पीने की वस्तुओं से
घर भर लिए थे। एक अनजाना भय सबके भीतर बैठ चुका था। किसी
को पता नहीं था, क्या होने वाला है और क्या-क्या उन्हें
भुगतना पड़ेगा? सोचकर ही लोग परेशान थे।''
विदेशी परिवेश की अभिव्यंजना में लेखिका को पर्याप्त सफलता
मिली है। उपन्यासकार अपने वतन के रिश्ते-नातों की पीड़ा से
जुड़ती हैं और मैत्री-भावना के मूल्य को समझाती हैं ''यहाँ
तो मित्र ही परिवार हैं। दुःख-सुख के भागीदार। अपने परिवार
तो देश में छूट गए और साथ ही छूट गए ढेरों पल, सुखद यादें,
रिश्ते और नाते। उनके लिए हम परदेसी हो गए और साथ ही बन गए
मेहमान।''
उपन्यास में चित्रात्मकता जगह-जगह अपना वैशिष्ट्य बनाए हुए
है ''सड़क पर लोग दौड़ रहे थे। जॉगिंग कर रहे थे। मैं उन्हीं
के साथ दौड़ने लगी। नाक की सीध में कई ब्लाक पार कर
गई।...हल्का-हल्का घुसपुसा हो रहा था। समझ नहीं आ रहा था
किस तरफ जाऊँ।''
लेखिका ने सरल, सहज भाषा का प्रयोग किया है। तत्सम, तद्भव
शब्दों के साथ पंजाबी, अंग्रेजी शब्दों का सहज प्रयोग
द्रष्टव्य है।
''भारतीय मूल के लोगों के पास दालें, चावल, और आटा तो काफी
मात्रा में होता है फिर भी बहुतों ने डिब्बाबंद फूड अपने
स्टोर में समेट लिया था। घर-घर में टार्च लाइट्स, फ्लैश
लाइट्स, बैटरियाँ, मोमबत्तियाँ इत्यादि इकट्ठा किया जा रहा
था। अगर बिजली आनी बंद हो जाए तो वे काम आएँगी। जिन घरों
में बिजली के चूल्हे थे उन्होंने गैस के सिलेंडर खरीद लिये
और साथ ही गैस का चूल्हा भी।''
लेखिका ने अंग्रेजी और पंजाबी भाषा का प्रयोग किया है।
बाऊजी की भाषा है ''एथे दी पुलिस वि इनहाँ हरामियाँ ने
खरीद लई ऐ, सारे एनहाँ दे अड्डे ते आंदे ने तो कोई मेरा
साथ देन लई तियार नई।'' पंजाबी के सरल अनुवाद भी साथ में
दिये गये हैं ताकि उपन्यास की भाषा दुरूहता प्राप्त न कर
सके।
उपन्यास में लेखिका की काव्यात्मक भाषा द्रष्टव्य है
''भगत सिंह ने पहली बार पंजाब को
जंगलीपन, पहलवानी व जहालत से
बुद्धिवाद की ओर मोड़ा था
जिस दिन फाँसी दी गई
उनकी कोठरी में लेनिन की किताब मिली
जिसका एक पन्ना मुड़ा हुआ था
पंजाब की जवानी को
उसके आखिरी दिन से
इस मुड़े पन्ने से बढ़ाना है आगे, चलना है आगे।''
(पाश की एक कविता)
संवादों को उपन्यासकार ज़रा और तराशतीं तो अच्छा होता। छोटे
और संक्षिप्त संवाद कथा के विकास और पात्रों की चारित्रिक
विशेषताओं को अभिव्यक्त करने में सार्थक भूमिका निभाते
हैं। लेखिका को स्वयं अधिक न बोलना पड़ता। उपन्यास में
लेखिका को स्वयं ज्यादा बोलना पड़ रहा है। डायरी शैली का यह
गुण भी है। मुख्य कथा सोनल के परिवार की है जो आद्यंत
कसावट लिए हुए है, कहीं बिखराव नहीं है। इसके साथ ही
वर्तमान जीवन की कथा डॉ. सम्पदा और सार्थक की है, दोनों को
उपन्यासकार ने कौशल से सुगुंफित किया है।
पात्रों के चरित्र चित्रण में स्वाभाविकता है। कहीं कोई
अस्वाभाविकता दिखाई नहीं देती। ऐसा नहीं लगता कि उपन्याकार
ने केवल कल्पना के सहारे इन पात्रों को उपन्यास में उतारा
है। ये पात्र जीते-जागते पात्र हैं जो जीवन की सच्चाई को
अभिव्यक्त करते हैं और जीवन को उत्कर्ष की ओर ले जाने की
प्रेरणा देते हैं। सोनल और सुखवंत इसी आदर्शवाद की ओर
उन्मुख हैं। सद् पात्रों को जहाँ ऊँचाई दी है वहीं
असद्पात्र भी अस्वाभाविक नहीं लगते हैं। लेखिका ने पात्रों
की भीड़ नहीं इकट्ठी की है। पात्र लेखिका के हाथों की
कठपुतली नहीं बने हैं। निष्कर्षतः कहा जा सकता है कि
हिन्दी उपन्यास जगत का यह उपन्यास एक अमूल्य निधि है जो
प्रासंगिकता एवं उपादेयता जैसी विशेषताओं से युक्त है।
डॉ. अमिता
तदर्थ प्राध्यापक
मैत्रेयी कॉलेज, दिल्ली विश्वविद्यालय
१५ जुलाई २०१६ |