इस सप्ताह- |
अनुभूति में-
मृदुल शर्मा, महावीर उत्तरांचली, संदीप रावत, रघुविन्द्र यादव और
अनामिका की रचनाएँ। |
- घर परिवार में |
रसोईघर में- होली गई और नवरात्र आ गए। इस अवसर पर शुचि
प्रस्तुत कर रही हैं फलाहारी व्यंजनों की शृंखला में-
सिंघाड़े के आटे
का हलवा। |
रूप-पुराना-रंग
नया-
शौक से खरीदी गई सुंदर चीजें पुरानी हो जाने पर
फिर से सहेजें रूप बदलकर-
केक ट्रे प्रसाधन में। |
सुनो कहानी- छोटे बच्चों के लिये विशेष रूप से लिखी गई छोटी
कहानियों के साप्ताहिक स्तंभ में इस बार प्रस्तुत है कहानी-
तरणताल। |
- रचना और मनोरंजन में |
नवगीत की पाठशाला में-
अभी आराम का समय है। अगले सप्ताह तक आशा है नए विषय की घोषणा
हो जाएगी और हम सब व्यस्त हो जाएँगे। |
साहित्य समाचार में- देश-विदेश से साहित्यिक-सांस्कृतिक
समाचारों, सूचनाओं, घोषणाओं, गोष्ठियों आदि के विषय में जानने के लिये
यहाँ देखें |
लोकप्रिय
कहानियों
के
अंतर्गत-
१६ अप्रैल २००२ को प्रकाशित
सारा थॉमस की मलयालम कहानी का हिन्दी रूपांतर
साँझ के एकांत तट
पर।
|
वर्ग पहेली-१२८
गोपालकृष्ण-भट्ट-आकुल
और रश्मि आशीष के सहयोग से
|
सप्ताह
का कार्टून-
कीर्तीश
की कूची से |
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साहित्य
एवं
संस्कृति
में-
|
समकालीन कहानियों में भारत से
स्नेहलता की
कहानी- वापसी
साढ़े आठ बजे
सुबह गाड़ी छूटने का टाइम था। गाड़ी सही समय पर छूटी। पुष्पक
एक्सप्रेस में चाहे जिस मौसम में जाओ भीड़ होती है। पता नहीं
लोग कहाँ-कहाँ की सैर करने करते हैं। मैं भी जैसे-तैसे अपनी
सीट पर पहुँची। सैकन्ड ए.सी. में केबिन की सीट थी। मेरी और
मेरे पतिदेव की नीचे-ऊपर की बर्थ थी।
हम मुम्बई घूमने आए थे। मुंबई महानगरी का नाम आते ही एक भागते
हुए शहर की तस्वीर मन में उभरती है, मुम्बई ऐसा शहर है जहाँ बस
सब लोग चलते रहते है एक निश्चित गति से। हर किसी की अपनी जीवन
शैली है और वह उसी में मगन है। आँखों में ऊँची उड़ान के सपने
हैं पर कदमों तले बमुश्किल जमीन हासिल होती है। हिन्दुस्तान के
चाहे किसी भी शहर से कोई क्यों न आया हो जल्दी ही वह वहाँ के
रंग में रँग जाता है। मैंने भी छह दिन मुम्बई में बिताए और
काफी अच्छे बिताए। घूमने के लिहाज से आए थे और घूमे भी खूब।
अच्छी लगी मुम्बई, अब वापस जा रहे हैं। ...
आगे-
*
संजीव सलिल की लघुकथा
मुखौटे
*
शंभु शरण मंडल का आलेख
कविवर गोपाल सिंह
नेपाली
*
प्रकृति और पर्यावरण में पी
सुधाराव का आलेख
प्यासी धरती प्यासा मानुस पानी पानी रे
*
पुनर्पाठ में चंदन दास के साथ देखें-
बूँदों में
खिलता बूँदी का रूप
1 |
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पिछले
सप्ताह- |
१
सुशील यादव का व्यंग्य
जड़ खोदने की कला
*
मधुकर अष्ठाना का आलेख
उत्तर प्रदेश में नवगीत का भविष्य
*
शेफाली शर्मा की कलम से
जानकीवल्लभ शास्त्री का व्यक्तित्व
*
पुनर्पाठ में महेशचंद्र कटरपंच की चेतावनी-
सावधान! आज पहली अप्रैल है
*
समकालीन कहानियों में भारत से
ए असफल की
कहानी-
शब्दवध
मैं
पिछले तीन रोज़ से अपनी कट्टी लिए मिट्टी के तेल की दुकान पर
लाइन में लग रहा था। न स्टोव में तेल था न डिब्बी में। ब्लैक
में ख़रीदते-ख़रीदते कमर टूट रही थी।... नहीं ख़रीदने पर रोटी
नहीं पकती, ना सिलाई होती। आज पाँच बजे ही उठकर चला आया था
लाइन लगाने।...भीड़ देखकर चाय वाला अपना ठेला भी ले आया
था।...भुकभुका तेज़ी से फैल रहा था। ठेले से अख़बार उठा लिया कि
आज का अपना भविष्य फल देख लूँ! तभी नज़र उसमें पे मुख्य चित्र
पर पड़ गई। और वह पहचाना-सा लगा! चेतना धक्का-सा देते हुए पीछे
की ओर खींच ले गई। क़स्बा जो जिला होते ही तेज़ी से गन्दे शहर
में बदलने लगा था... मैं एक दर्ज़ी की दुकान में काज-बटन करता
और वह भी। वह गाता अच्छा था। उसका नाम ग़ुलाम नबी और मेरा नाम
राम सेवक। हम दोनों ही पढ़ते और दर्ज़ीगीरी सीखते थे। एक ही
मोहल्ले में रहते। एक-सा खाते-पहनते। एक-सी जिंदगी। मगर वह
अच्छा गाता था।...
आगे- |
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