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प्यासी-धरती-प्यासा-मानुस-पानी-पानी-रे
–पी सुधाराव
अभी ग्रीष्म
ऋतु प्रारम्भ भी नही हुई किंतु नलों के नीचे घाघरों, बाल्टियों
की कतार लग गयी। गाँवों कस्बों की हालत तो और भी बुरी है। कभी
हमने सोचा है क्यों? शायद कभी सोचा नहीं या सोच कर भी उपेक्षा
की है। पानी का मूल स्रोत वर्षा है। चाँपाकल, नदी, नाले,
तालाब, कुआँ, बावड़ी में पानी वर्षा से ही आता है। इसीलिये
हमारे प्रचीन ग्रंथों में भी इसका उल्लेख है कि किस तरह पानी
का संचयन व संरक्षण किया जाता था।
पाँच हजार वर्ष पूर्व की
सिंधु नदी घाटी की सभ्यता, मोहनजोदड़ो, लोथाल आदि इसके उदाहरण
हैं। कुएँ, तालाब यहाँ तक कि पानी की निकासी के लिये बनाई गई
नालियाँ इस बात की साक्षी है कि पानी की आपूर्ती व स्वास्थ
रखरखाव का कितना ध्यान रखा जाता था। वे आज की शहरी परिष्कृत
योजनाओं से कुछ कम न थीं। पुरातन काल के जल संरक्षण के कई
उदाहरण आज भी विद्यमान हैं। पूना से १३०कि. मी. की दूरी पर
पश्चिमी घाट की पहाड़ी शृंखलाओं में स्थित प्रचीन व्यापारिक मार्ग पर
तालाब बनाए गये थे जिनसे व्यापारियों व अन्य यात्रियों को पानी
उपलब्ध होता था इसके अलावा हर किले या गढ़ में पानी की आपूर्ती
के साधन थे। पानी के बहाव व ढुलाई के लिये पके मिट्टी के पाइप
व सुरंग आज भी बर्हनपुर, गोलकोंडा, बीजापुर आदि स्थानो में हैं। राजस्थान में जहाँ पानी की कमी थी वर्षा का जल छ्त पर
इकट्ठा कर उसे जमीन पर बनी बड़ी टंकियों में भरने की सलाह दी
जाती थी आज भी वहाँ के बड़े राज भवनों व महलों में इसके नमूने
मौजूद हैं उदयपुर इसका एक उदाहरण है।
बनारस हिंदू विश्व
विद्यालय के भारत कला भवन में बनारस का एक पुराना मान चित्र
है, जिसके अनुसार वाराणसी में १७ यl १८ जलाशय या कुंड
थे जो वर्षा का जल संचित करते थे। आज भी कई लोगों का मानना है
कि ये कुंड गंगा नदी से जुड़े थे जिससे बाढ़ का पानी शहर में
नहीं भर पाता था। आज मानसरोवर, पुष्कर (गदौलिया) जैसे बड़े तालाब
तो कब के लापता हो चुके हैं। कुछ कुंड पिछले ४० वर्षों में सूख
गये, पाट दिये गये व उन पर भवन निर्माण भी हो गया। बीकानेर में
परंपरागत रूप से बनाए गए टन्कस घर के मुख्य भाग या आँगन में
बनाए जाते थे। इसमें वर्षा का जल संग्रहित किया जाता था। इन को
बनाने के लिये जमीन के अन्दर गोलाकृति मे कन्दरा ( गड्ढा )
बनाया जाता था जिसे चूने से चिकना किया जाता था, इससे पानी को
ठंडा रखने में सहायता मिलती थी। यह पानी अधिकतर केवल पीने के
काम में लाया जाता था। खेतीबाड़ी के काम के लिये भी कुएँ,
बावड़ियाँ, सरोवर, खदिन या धोरा बनाए जाते थे। खादिन बनाने का
मुख्य सिद्धांत था खेती की जमीन पर ही वर्षा का पानी इकट्ठा
करना जो फसल के काम आ सके। इस प्रकार विविध रूपों में उन दिनों
वर्षा का जल संचयन किया जाता था।
आज भी हमारे देश में जल प्राप्ती का मुख्य स्त्रोत या साधन
वर्षा ही है। खेती के लिये आज भी हम वर्षा पर ही निर्भर करते
हैं। भारत में साल में औसतन १०० घंटे की वर्षा होती है इसका
मतलब है कि इस १०० घंटे का पानी हमें ८६६० घंटे याने कि पूरे
साल इस्तमाल करना चाहिये। अब आप ही सोचिये हम इस का उपयोग किस
तरह करते हैं। अधिकांश बरसा हुआ पानी सड़कों नालियों आदि में बह
जाता है (विशेष कर शहरों व कस्बों में)। पेड़ व जंगल जो पानी को
रोक कर जमीन पर पानी की सतह बढ़ाते हैं, हम अपने घर बनाने या
औद्योगीकरण के लिये, काट कर फेंक रहे हैं। बढ़ती जनसंख्या, खेती,
औद्योगीकरण, पशु, पक्षी नहाने, खाने, पीने, साफ सफाई सबके लिये
पानी की आवश्यकता है। शोचनीय है कि जब अभी हमें पानी की
इतनी किल्लत उठानी पड़ रही है, तो हमारी आने वाली पीढ़ी का क्या
होगा?
हम मकान बनाते हैं, धन संचय करते हैं, अनेक सुख सुविधा
इकट्ठा करते हैं कि हमारी संतान के काम आएगा। क्या हमने कभी
सोचा है, पानी के संचय के बारे में? कभी सोचा है यदि जल जीवन
ही न रहे तो बाकी की जमा पूँजी किस काम की? विश्व बैंक के एक रिपोर्ट के अनुसार सन
२०२० तक भारत के सभी बड़े व महानगरों में पानी आपूर्ति की समस्या अति जटिल हो
जाएगी। इस रिपोर्ट आए हुए एक दशक से ऊपर हो गया और हमारे देश की
हालत यह है कि यदि एक साल वर्षा ठीक से न हो तो खेती की बात
छोड़ दीजिये पीने के पानी की भी किल्लत उठानी पड़ती है। जल स्तर
दिन ब दिन नीचे जा रहा है। अब भी यदि हम न चेते और कोई ठोस कदम
न उठा पाए तो आज जो मारापीटी जमीन, जायदाद पैसों को लेकर है
उससे भी भयंकर लड़ाई पानी के लिये होगी। वैसे भी नदियों के पानी
को लेकर राज्यों में लड़ाई जारी है। हमें इस समय, इस समस्या के
समाधन के विकल्प न केवल ढूँढने होंगे बल्कि उसे शीघ्रातिशीघ्र
कार्यान्वित करना होगा। यह काम केवल सरकार का ही नहीं जनता का
भी है। जल जीवन है और
देश का अमूल्य धन है। इसकी रक्षा के लिये तरुण भारत के नव
युवकों को पानी के योद्धा बन कर आगे आकर काम करना होगा।
यह एक बड़ी विडम्बना है कि हमारे देश में तेरह बड़ी नदियाँ, उनकी
अनेक सहायक नदियाँ, और उच्चतम वर्षा के होते हुए भी हमारे देश
में पानी की अत्यंत कमी है। सन १९५२ में प्रति व्यक्ति ३४५०
क्यूबिक मीटर पानी उपलब्ध था सन २००६-७ में यह उपलब्धता गिरकर
१८०० क्यूबिक मीटर प्रति व्यक्ति हो गई। यदि यही रफ्तार रही तो
सन २०२५
तक यह गिरकर १२०० क्यूबिक मीटर प्रति व्यक्ति हो जाएगी। इस
उपलब्धता के गिरने के कुछ प्रमुख कारण हैं-
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वर्षा के पानी क अपव्य या बर्बादी- पानी का मूल स्रोत है
वर्षा और यह बारिश का पानी सड़क, घर, नाले जमीन पर रफ्तार से बह
जाता है या सूख जाता है जो बच जाता है वह जलस्तर बढ़ाने या जल
ग्रहण के लिये पर्याप्त नहीं है। |
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वर्षा के जल संचय के साधन में कमी।
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उपलब्ध पानी का कुप्रबंधन व बर्बादी।
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जंगल व पेड़ पौधों का रफ्तार से कटना जिसके कारण वर्षा में
कमी व पर्यावरण में असंतुलन पैदा हो गया है
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प्रदूषित वातावरण जिसके चलते पानी प्रदूषित होकर पीने लायक
नहीं रह गया। |
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बढ़ते भूमंडलीय तापमान व बदलती जलवायु के कारण वर्षा व हिम
नदी (ग्लैशर) पर बुरा प्रभाव। |
इनमें से अधिकतर कारण, मानव निर्मित हैं।
इसलिये जल उपलब्धता के उपाय
भी हमें ही खोजने होंगे। जैसे कि हम पहले भी कह चुके हैं पानी
का मुख्य स्रोत वर्षा है तो चालिये देखते हैं किस प्रकार वर्षा
के पानी का संचयन कर सकते हैं-
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भारत को मानसून जलप्लावित करता है, नदियों के सूखे तल को मथ
देता है, कुएँ तालाब सरोवर सब पानी से लबालब भर जाते हैं। इसी
तरह पानी का प्राकृतिक जल-संचयन होता है। इसी तरह हम कृत्रिम रूप से भी जल-संचयन
कर सकते हैं, जिसे पानी की खेती या वाटर हार्वेस्टिंग कहते
हैं। कहीं भी किसी भी भी रूप में वर्षा के पानी का संग्रह ही
उसकी बुनियाद है। यह काम हर गाँव, कस्बे, शहर, या महानगर कहीं
भी किया जा सकता है और यह पर्यावरण के अनुकूल भी है।
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इसे एक उदाहरण
से समझते हैं- मान लीजिये आपके मकान की छत का क्षेत्रफल
१००
वर्ग फुट है और होने वाली वर्षा का मान है ०.६ मी. (६०० मिमि.
या २४ इंच। अब यह अनुमान लगाना हो कि छत पर कितनी वर्षा
हुई तो वर्षा का घनफल = प्लाट का
क्षेत्रफल X वर्षा की ऊंचाई (१००x६००m) अब कल्पना करिए कि केवल
६०% पानी ही हम संग्रहित कर पाए हैं फिर भी वर्षा का जो
पानी हमने संचित किया हैं वह होगा ३६००० लीटर(६०,००० x ०.६)। यह
पानी ५ सदस्यों वाले कुटुम्ब के लिये साल भर के लिये पर्याप्त
है जबकि औसतन आवश्यकता प्रति व्यक्ति प्रति दिन केवल १०
लीटर ही है। इससे अनुमान लगाया जा सकता है कि कितना पानी
बचाया जा सकता है। |
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इस वाटर
हार्वेस्टिंग या संग्रह के कई तरीके हैं कुछ आधुनिक व कुछ
पुराने पाऱंम्पारिक जैसे कि उपर लिखा जा चुका है। आधुनिक व
वैज्ञानिक तरीकों से क्षमता बढ़ाई जा सकती है। इस तरह पीने,
खेती व दूसरे कामों के लिये यदि हम संचय करें तो हमारी आधी
समस्या कम हो जाएगी। क्या यह काम मुश्किल है? नहीं न?
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हमारे देश
में ५८७००० गाँव हैं और पहाड़ी, दुर्लभ, आवासीय भू भाग, जंगलों
की जमीन छोड़कर २००० लाख हेक्टर जमीन पर पड़ी वर्षा को यदि उपलब्ध तरीकों से
वर्षा का जल जमा किया जाए तो असीमित जल-संरक्षण का पुण्य कमाया
जा सकता है। हमारे देश के कई शहरों व कस्बों में पानी की कमी
देखते हुए हमारे २८ राज्यों में से १८ राज्यों
की राज सरकार ने हर नये व पुराने घरों में वाटर हार्वेस्टिंग
को अनिवार्य कर दिया है। अब यह हमारा धर्म ही नहीं कर्म व
कर्तव्य है कि हम सरकार के लिये नहीं किंतु अपने लिये, समाज के
लिये, आने वाली पीढ़ी के लिये इसे अवश्य अपनाएँ। यह प्रणाली न केवल
सरल है अपितु सस्ती भी है।
इसके
अतिरिक्त कुएँ,
बावड़ियाँ, तलाब, सरोवर खुदवाकर या बनवाकर बरखा के पानी को जमा
किया जा सकता है। अधिक पानी के क्षेत्र से कम पानीके क्षेत्र
में नाली नहर द्वारा पानी का स्थानंतरण भी किया जा सकता है।
नदियों के बाढ़ के पानी को भी कुओं तालाबों आदि से जोड़कर
नालियों या नहरों द्वारा न केवल पानी जमा किया जा सकता है
बल्कि बाढ़ के प्रकोप से भी बचा जा सकता है। पहाड़ियों व बड़े
टीलों आदि पर से भी वर्षा का बहुत सा पानी बह जाता है यदि
क्षेत्रीय, प्रान्तीय, जातीय सभी झगड़ों को दूर रख उसकी
पहाड़ की तलहटी के पास बड़ी कन्दराएँ बनाई जाएँ तो वह पानी न
सिंचाई वरन अन्य कामों के लिये प्रयोग किया जा सकता है।
इसके अतिरिक्त
औद्योगीकरण के लिये जिस पानी की आवश्यकता होती है, उसके लिये
उपयोगी नियम बनाने की आवश्यकता है जो न प्रकृति विरोधी हों और
न ही सामान्य जनता का अहित करने वाले हों। अधिकांश उद्योगपति भूल जाते हैं कि वे समाज का एक
हिस्सा हैं। अपने उद्योग या उद्यम के लिए जनता के पीने और अन्य
उपयोग में आने वाले पानी को उद्योग में लगाते हैं।
सरकार को चाहिये कि वे यह अनिवार्य करें व नियम बना दें कि
उद्योग प्राऱंभ करने से पहले ही उसके आवश्यक पानी का प्रबंध वे
खुद करें, साथ ही बर्बाद हुए पानी का पुनः चक्रण या पुनः उपयोग
में लाएँ। हर गाँव व प्रदेश की
स्थानीय सरकार को चाहिये कि जल-संचयन की नवीन, स्थानीय, सुलभ प्रक्रिया
बनाने व अपनाने वालों को प्रोत्साहित करे तथा जन जन तक पहुँचाए जिससे
अन्य लोग भी प्रेरणा लेकर सक्रियता से भाग ले सकें।
वर्षा के जल संचय व संरक्षण से अनेक लाभ हैं-
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पानी की
उपलब्धता बढ़ती है। |
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गिरते
हुए जल स्तर को रोक कर उसे बढाती है।
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पर्यावरण
अनुकूलित है। |
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जमीन के
पानी से फ्लोराइड, नाइट्रेट व खारेपन को कम कर पानी की
गुणवत्ता बढ़ाती है
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भूक्षरण
से बचाती है। |
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सूखा व
बाढ़ से राहत मिलती है। |
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सिंचाई
का साधन उपलब्ध होने से खेती अच्छी हो पैदावार बढ़ती है।
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पानी की
उपलब्धता बढ़ने से विशेष कर शहरों में पानी इकटठा करने में
जो समय लगता है या जो भाग दौड़
करनी पड़ती है उसमे बहुत कमी आ जाती है।
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इस सबके
बावजूद केवल वर्षा के जल का संचय कर लेने से हमारे कर्तव्य संपूर्ण नहीं हो
जाते। पानी की उपलब्धता बढ़ाने व संग्रहीत करने में पर्याप्त समय लगता है। वर्षा न हुई तो संग्रह कहाँ
से होगा? अतः उपलब्ध जल के संरक्षण की भी अति आवश्यकता है।
बूँद बूँद जमाकर ही घड़ा भरता है। पानी की हर बूँद बचाइएँ। यदि
हर आदमी प्रतिदिन कम से कम एक ग्लास पानी बचाए तो आप खुद
अंदाजा लगा सकते हैं कि १.२१ अरब जनसंख्या वाले देश में कितना
पानी हम बचा सकते हैं। पहले लोग बाहर बर्तन व कपड़े धोते थे,
बाहर नहाते थे ( गावों में अब भी अधिकतर करते हैं) जिससे पानी
नालियों में न जाकर भू पर ही गिरता था या कई घरों में इस पानी
को वहाँ जमीन काट कर नाली सा बना पेड़ पौधों की ओर छोड़ दिया
जाता था जिससे न केवल जल स्तर के गिरावट में कमी आती थी बल्कि
पेड़ पौधे भी पनपते थे। बढ़ती जन संख्या छोटे घर व आधुनिक सुख
सुविधाओं के कारण अब यह संभव नहीं है तो भी
हम इस प्रकार पानी बचा सकते हैं-
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केवल उतने ही पानी
का उपयोग करें जितना जरूरी है।
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अनावश्य
रिसाव को रोकें। घर में देखें कि कहीं कोई नल से पानी टपक
तो नहीं रहा है, पानी की टंकी या शौचालय की टंकी से पानी तो नहीं बह रहा है।
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वाशबेसिन
या टब का उपयोग करते समय या नहाते समय नल को खुला मत
छोड़ें, केवल उतना ही खोलें जितनी जरूरत है।
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घर में पोछा लगाने का पानी
(अगर उसमें कोई केमिकल नहीं मिलाया गया है तो) तथा चावल
दाल के धोवन को पेड़ों में डालें।
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गाड़ी धोने के लिए पाइप
के स्थान पर बाल्टी का उपयोग करें।
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सार्वजनिक नल खुला पड़ा हो या टूट गया हो तो उसकी सूचना
तुरंत कार्यालय में दें तथा बहाव को जल्दी से जल्दी बंद
करने का उपक्रम करें।
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पेड़ों को कटने से रोकें व हो सके तो वृक्षारोपण करें
क्योंकि पेड़ न केवल वर्षा होने में सहायक होते हैं बल्कि उनकी
सहायता से पानी जमीन के अन्दर जाकर जल स्तर भी बढता है।
खेतों मे पानी के
खर्च को कम करने तथा वाष्पीकरण से बचाने के
साधारण व नए तकनीक भी अपनाने होंगे जैसे खेत की मिट्टी कोपेड़-पौधों के कचरे,
सूखी सड़ी घास या लकड़ी के छोटे सड़े टुकड़ों (मल्च) से ढँकना ताकि
उनमें दिया गया पानी उड़ न जाए। खेतों मे पानी के बहाव को
रोकने व मिट्टी के कटाव को बचाने के लिये पेड़ो को लगाना जरूरी
है।
नाली या सीवर के पानी का शुद्धीकरण कर, किटाणु रहित कर उसे भी
काम में लाया जा सकता है। यह पानी फूलों के बगीचों, सार्वजनिक
बगीचों आदि के लिये उपयोगी होता है।
पानी हमारा जीवनदायी है, प्राण रक्षक है इसके सरंक्षण से न
केवल मानव
जाति, जीव जंतु बल्कि समस्त प्रकृति और पर्यावरण का सरंक्षण
होता है। अतः इसे अपनाएँ और आइये
आने वाली पीढ़ी को जल राशि विरासत में दे जाएँ।
८ अप्रैल २०१३ |