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					पूर्वाषाढ़ नक्षत्र अभी उग आया है। देवकी अम्मा बेचैन हो 
						रही थी। कल सुबह होने के पहले सैकड़ों काम ठीक करने हैं। 
						कारिंदा रामन नायर और नौकरानी शारदा हैं तो सही हाथ बँटाने 
						को, फिर भी हर ओर अपनी दृष्टि डालनी होगी। बेटों और उनके 
					परिवारवालों को किसी बात में कोई कमी न रहे। अब तक तो कोई कमी 
					मैंने आने नहीं दी है।
 कल सुबह जब दुबई से उण्णि का फोन आया, तो निश्चित हो गया 
						कि इस बार ओणम के समय सभी बेटे मेरे साथ घर पर होंगे। इस 
						आशय का खत पहले ही आया था कि अप्पू, सरला और बच्चे एवं 
						केशी, पद्मिनी और बच्चे आ रहे हैं। उण्णि की बात ही 
						संदिग्ध थी। उसकी पत्नी का यह तीसरा महीना चल रहा है। 
						इस हालत में डॉक्टर ने उसे यात्रा करने से मना किया है। 
						इसीलिये पहले से लिख नहीं पाई कि वे भी जरूर आएँ। फिर भी, 
						जब दूसरे दोनों बेटे आ रहे हैं, तब सिर्फ 
					उण्णि का न आना... । कल तक वह अपनी धोती का छोर पकड़ कर चलने वाला छोटू 
						था। उसका बड़ा हो जाना. समुन्दर पार नौकरी के लिये जाना और 
						शादी करना... सब मानो सपना ही था।
 
 बड़े बेटों को हमेशा यह शिकायत थी कि अगर उण्णि पास न हो, 
					तो अम्मा को ओणम और जन्म दिन कुछ भी सुहाएगा नहीं। खैर ... 
					.कमला का भाई एन.ओ.सी. लेकर नौकरी के लिये बाहर गया तो समस्या 
					हल हो गई। उण्णि आराम से अब घर आ सकता है। वैसे घर, गाँव वाले 
					ओणम, विषु मन्दिर के त्योहार, ये सब उसे प्रिय रहे हैं। पहले 
					और आज भी। (नहीं, प्रिय थे, शादी तक) साल में एक बार किसी 
					अच्छी तिथि को वह घर आ जाता है। फिर दोस्तों के साथ हँसी-मजाक। 
					सोया हुआ घर फिर जागता है।
 
 अब सिर्फ तीन वर्षों से यह क्रम बदल गया है। जानती हूँ, इसमें 
						शिकायत करने की अब गुंजाइश नहीं। बेटा शादी-शुदा हो गया है-- यह तो भुलाना नहीं चाहिए। उसकी अपनी अलग उलझनें होंगी। 
						बुढ़ापे में मुझे अकेली छोड़कर जाना नहीं चाहता था वह, 
						इसीलिये उसी के आग्रह पर मैंने बहू चुन ली। धन-दौलत का 
						ख्याल नहीं किया, लड़की मेरी सेवा-सुश्रूषा के लिये तैयार हो, यही उण्णि चाहता था। पर छुट्टी के बाद वह गया तो बहू का 
					मुँह फूल गया। मैंने ही पैसा खर्च करके उसे पति के साथ भिजवाया 
					कि मुझसे उसका दुख, उदासी और अनमनापन देखे नहीं गए। अब तो तीन 
					वर्ष बीत गए। दोनों पहली बार घर आ रहे हैं।
 
 अप्पू तो पाँच वर्षों में एक बार ही घर आता है। अमेरिका से 
						आने, जाने में उसे और परिवार को भी भारी रकम खर्च करनी 
						पड़ेगी। उसने ही छोटे भाइयों से कहा था, पाँच साल में एक 
						बार सब ओणम के समय घर आएँ, घर मिलें। केवल ओणम के कारण 
						नहीं, श्रावण महीने में 'धनिष्ठा' मेरा जन्म दिन है। ठीक 
						तीन दिन बाद मैं सत्तर वर्ष की हो जाऊँगी।
 
 वह आँखें बन्द करके अपने में खो गई। अब तो 'उन्हीं' की शक्ल 
						सामने आती है। घर के अहाते और बाग-बगीचे में व्यस्त रहने 
						वाले अपने पति का गठा हुआ साँवला बलिष्ठ शरीर। बीच-बीच 
						में 'देवू-देवू' पुकार कर मुझे हिदायत देते। तीन 
						छोटे-छोटे बच्चे। फिर भी किसी बात में मैं पीछे नहीं रही। 
						एक को बगल में सँभाल और दूसरे का हाथ पकड़, मैंने उनकी 
						सहायता की। जी-तोड़ मेहनत की। एक जमाना वह भी था।
 
 कैसे, खून-पसीना, बहा कर यह सारी संपत्ति कमाई थी। 
						टूटा-फूटा पुश्तैनी मकान तोड़-फोड़कर दुमंजिला बंगला बनवाया। 
						नारियल-कुंज खरीदा। ब्राह्मण ज़मींदार से धान के खेत 
					साझेदारी पर खेती के लिये लिये। उन्होंने एक घंटे तक का विश्राम 
					नहीं किया।
 
 फिर, एक रोज़ काम करके लौटे तो वह केले के तने के समान दहलीज 
						पर गिर पड़े। फिर भी मैं हताश नहीं हुई। उन्होंने जिन बेटों 
						को मुझे सौंपा था, उनके वास्ते मेरे अलावा और कौन था? बेटों 
						को पाल-पोसकर बड़ा किया। जीवन-भर चैन से रहने लायक संपत्ति 
						उन्होंने बना ली थी। सिर्फ यही कमी थी कि वह साथ नहीं है। 
						अब तक मैंने शान से घर-गृहस्थी का काम देखा। तब और अब भी 
						दूसरों के सामने सर उठाकर ही चलती। 'बड़े घर की' 
					देवकी 
						अम्मा!, इस नाम का महत्व और गरिमा आज भी ज्यों की त्यों 
						है। दुमंजिला मकान, नारियल-कुंज और धान के खेतों की 
						मालकिन। (यह दूसरी बात है कि मन यह मानने को तैयार नहीं कि 
						आए दिन के ये सारे ताम-झाम मुसीबत हो गए हैं)
 
 फ़िजूल खयालों में कितना समय गवाँया, "शारदा! ओ शारदा!" 
						पुकारती हुई सीधी रसोई-घर की ओर बढ़ी। मेरे उसके पास जाकर 
						सामने खड़े हो जाने पर वह
						मुझे सुनती है, खैर...  चूल्हा तो जलाया है। अब तक आँगन 
						साफ कर बरामदा पोंछा जा सकता था। यह तो मेरी हिदायतें 
						मानती नहीं। इसे सख्त चेतावनी देने
						का समय आ गया है। बेटों को आने-जाने दें... उसके बाद। 
						नहीं तो उनके सामने यह चुड़ैल मुँह फुलाए खड़ी रहेगी। बेटों 
					को बेचैन क्यों करू, हर बार की उनकी शिकायत है कि मैं नौकरों 
					के प्रति सख्त हूँ।
 
 अब बेटों के स्वागत की तैयारियों का ख्याल आया। अप्पू और 
						सरला को ऊपर का कमरा ठीक रहेगा। उसे इधर वही एक कमरा भाता 
						है। वहाँ कुछ प्राइवसी है। नीचे का हिस्सा सबके आने-जाने को 
						सराय-सा है। रेखा और रश्मी दोनों बिटियों को अपने साथ 
						रखूँगी। अपने कमरे की पुरानी गंध उन्हें फूटी आँख नहीं 
						सुहाती। पिछली बार आयीं तो उन दोनों ने अपने बाबूजी से 
						अंग्रेजी में इसका जिक्र किया था। पर माँ–बाप के साथ 
					उन्हें ऊपर के कमरे में सुलाने लगी तो अप्पू ने मना किया। 
					अमेरिका में बच्चों को माँ–बाप के साथ लिटाया नहीं जाता। फिर 
					केशी का परिवार भी है। सोने की बात में उनका कोई विशेष आग्रह 
					नहीं होता।
 
 बम्बई के किसी व्यस्त मुहल्ले में किसी बड़े मकान की चौथी 
						मंजिल के दो कमरों में वे रहते हैं। उनके लिये इधर नीचे का 
						हॉल पर्याप्त है। भले ही केशी की पत्नी पद्मिनी, अमेरिका 
						से आई अपनी बड़ी भाभी की तरह यहाँ की सुख सुविधाओं से 
						सन्तुष्ट दिखाई नहीं देती। जब 'वह' जिन्दा थे, उसने सुझाया 
						था, हमारे सोने का कमरा उनके लिये खोल दिया जाए। पर मैंने 
						उसे अनसुना कर दिया। पता नहीं क्यों, उसी समय से वह कमरा 
						साफ करके वहाँ बत्ती जलाकर वैसे ही सुरक्षित रखा गया है।
 
 उण्णि के लिये बरामदे का सोफा ही काफी था। घर आया भी तो 
						क्या, उसे घर पर रहने का समय कहाँ, पुराने दोस्तों को ढूँढने 
						में व्यस्त रहता। फिर मंदिर की चार-दिवारी, पनघट और चौक 
						में उसका समय बीतता। चूँकि मैं उसके साथ खाने के इंतजार में 
						रहती, इसलिये आधी रात तक वह घर आ जाता।
 
 जब हरेक के सोने की व्यवस्था ठीक की, तो शारदा को हिदायतें 
						दीं, कमरों में झाडू लगाकर साफ करना, गद्दे-बिस्तर धूप 
						में सुखाकर खाटों पर लगाना आदि।
						अब खाने की बात। बेटों की रुचि बदल गई है। वैसे ही तीती, 
						खट्टी और नमकीन चीजें किसी को पसन्द नहीं।
 
 सादा साम्बर, कम खट्टा कालन कम नमकीन अचार-- ऐसा कुछ बना 
						लूँ तो भी वे पसन्द नहीं करेंगे। मछली और गोश्त के बिना वे 
						एक बार भी खा नहीं पाएँगे।
						पर ओणम के इस शुभ अवसर पर-- हाँ, ओणम की चीजें ही 
						बनाऊँगी। ओणम के दिन खीर आदि नहीं चाहिये, बच्चों को गुड़ का 
						बना पायसम पसन्द है। पर
						'उनके' समय का क्रम नहीं तोड़ूँगी। अपने ही खेत के चावल और 
						नारियल के दूध को पड़ोसी अवराच्चन के शुद्ध गुड़ में मिलाकर 
						'वह' विशिष्ट खीर बनाते थे। सभी उसे चाव से खाते थे। उस 
						समय "उनके" मुख पर संतुष्टि का भाव खिल उठता। खैर... 
						पुरानी बातों को याद न करूँ, तो वही अच्छा होगा।
 
 यद्यपि अप्पू आज दोपहर को प्लेन से आएगा, फिर भी रात को 
						सरला के घर ही ठहरेगा। अमेरिका से आने वाली विशिष्ट चीजें 
						वहीं बँटेंगी। उनकी पड़ोसिन
						रेवती टीचर, जो हमारे यहाँ किराए पर रहती थी, उसी ने बताया 
						था। मुझे ओणम के 'विशिष्ट वस्त्र' देने में अप्पू कभी भूल 
						नहीं करता। फिर भी सरला अपने
						घरवालों को जो अमूल्य उपहार देती है, उसकी सुनकर कभी-कभी 
						सोचती , काश मेरे भी एक बेटी होती, मरते दम तक 'उन्हें' 
						बेटी न होने का दुख सालता रहा।
						तब अपने बेटों की शक्ति पर मैं गर्व करती थी। अब यह विचार 
						क्यों आया? मन की चंचलता होगी।
 
 बेटों के रहने-सोने का प्रबन्ध पूरा होते-होते शाम हो आई 
						थी। ऊपर के शयनागार में बड़ी-सी बाल्टी साफ करके उसमें पानी 
						भर रखा था। अप्पू ने सवेरे नाश्ते के समय आने की बात लिखी 
						थी। फिर भी उसे और सरला को नहाने-धोने में कोई कष्ट न हो।
 
 सोने गई तो देवकी अम्मा को उत्कण्ठा हुई कि कोई काम रह तो 
						नहीं गया है।
 
 पूरे पाँच वर्ष बाद तीनों बेटे एक साथ घर आ रहे हैं। मेरे 
						होते उन्हें कोई कमी महसूस नहीं होगी। रेवती टीचर ने जैसे 
						कहा था-- "माँजी, आपकी बहुएँ, खुशनसीब हैं। ससुराल 
						में उन्हें किसी प्रकार का कष्ट नहीं। यहाँ सब ठीक-ठाक है। 
						उन्हें केवल सुस्ताना और आराम करना होगा। पर वे क्या इसका 
						मूल्य समझती हैं, मेरी सास शनिवार को मेरी राह देखती रहती 
						है, क्योंकि तभी यह अपनी बेटी के यहाँ जा सकती है। मेरे 
						पति का आदेश है कि उन्हें दो दिन की छुट्टी दी जाए। नाम 
						के लिये वह पाँच दिन की गृहस्थी चलाती है। पर सब भारी काम 
						मेरे लिये पड़े रहते हें। वहाँ पहुँचने के बाद, फिर इधर लौट कर 
						ही मैं साँस लेती हूँ।"
 
 रेवती टीचर ठीक कहती है। अगर एक दिन मैं यहाँ न रहूँ, तो पता 
						नहीं, मेरे ये बहू-बेटे क्या करेंगे।
 
 इधर-उधर की बातें सोचकर लेटी थी। अतः बड़े सवेरे ही नींद 
						आई थी। सोते हुए एक अजीब सपना मैंने देखा।
 
 अभी सुबह हो रही थी। आज रामन नायर पहले ही आया है। पीछे 
						शारदा भी। बेटे आज आएँगे, इसलिये पहले ही दोनों पहुँचे 
						होंगे। अलावा इसके मैंने कल
						कहा भी था कि सुबह पहले आ जाना। ... रोज की तरह बरामदे 
						का द्वार खटखटाने के बदले रामन नायर चाबी से दरवाजा 
						खोलने की कोशिश करता है। क्या
						वह होश में नहीं, या वह घमंड में है, नहीं, सिर्फ रामन नायर 
						और शारदा ही नहीं, मैं भी बाहर हूँ। यह क्या मजाल है, मेरा 
						घर पर नहीं रहना , पिछले पचास वर्षों में ऐसा कभी नहीं 
						हुआ। उनके निधन के बाद भी मैंने यह नियम नहीं तोड़ा। तो अब 
						यह कैसे हुआ, क्या किसी पूर्व-सूचना के बिना मुझे घर से 
						निकाल दिया गया हाय, मेरे सारे अंग शिथिल हो गए। मेरे 
					विचार पहले जिज्ञासा में बदल गए और फिर चिन्ता में। रामन नायर 
					के पीछे मैं घर के अन्दर गई।
 
 रामन नायर शारदा को हिदायतें दे रहा है। फौरन, मानो कुछ 
						याद करके, उसने उत्तर की तरफ जाकर शारदा को समझाया, 
						'देख, पहले माँजी के चबूतरे को साफ करके वहाँ बत्ती जलाना। 
						बाकी सारा काम बाद में।' क्या? माँजी का चबूतरा, तभी समझ 
						में आया कि मैं मर गई हूँ। भगवान, अब की बार बेटे घर आएँ 
						तो उनकी सुख-सुविधा का ख्याल कौन रखेगा, मृत्यु हो जाने से 
						मेरी मजबूरी, उन्हें कैसे समझाऊँ, क्या शारदा पत्थर बनकर 
						वहाँ खड़ी है, क्या रामन नायर की बातें उसने सुनी नहीं, 'क्यों 
						री, इस प्रकार क्यों खड़ी हो तुम? रामन नायर ने पूछा।
 
 शारदा अपने ओठ सिकोड़ कर फुस-फुसाई-- "हूँ? बत्ती जलाती 
						हूँ। क्षणभर भी साँस लेने नहीं दी है बुढ़िया ने। पैसा 
						बचा-बचा कर पिछली बार ओणम को पाजेब बनाई थी मैंने। पर एक 
						दिन भी यहाँ पहनने नहीं दीं। कहती थीं, नौकरानी पाजेब 
					पहनकर चल नहीं सकती।"
 
 नौकरानी की यह कृतघ्नता। पाजेब बनाने को पैसा पूरा नहीं 
						पड़ा, तो मैंने ही तीस रुपये उधार दिये थे। आज तक उसने वापस 
						किये भी नहीं। फिर, घर पर पाजेब बजने नहीं दी, कारण, सुबह 
						आनेवाले गाय-दोहक से लेकर शाम को ताड़ी (नारियल के पेड़ से) 
						लेने वाले मजदूर तक से वह छेड़छाड़ करती है। तब, फिर उण्णि 
						घर पर हो तो ... तिस पर भी उण्णि की लड़कियों के प्रति 
						कमजोरी मुझसे छिपी नहीं है-- तो उस पर नियंत्रण रखना होगा 
						... ओ, यह सब अपनी बातें हैं। खैर ... नौकरानियों 
						से एहसान और प्यार की आशा करना, इस जमाने में व्यर्थ ही 
						होगा ... अप्पू बराबर कहा करता था।
 
 रामन नायर अपना कंधा झटका कर कहता है-- "अरी बेवकूफ? वो 
						सब पुरानी बाते हैं न, अब तो बुढ़िया के लड़कों को खुश करना 
						है। वे सौ-पचास रुपये खुशी से देकर चलें। बूढ़ी होती तो 
						मानती नहीं। अब तो वह बला टली।"
 
 क्या, यह रामन नायर ही है? जो मेरे बारे में ऐसी नफरत, भरी 
					और मुँहजोरी की बातें कर रहा है। मैंने उसे कभी एक वेतनभोगी 
					कारिंदा नहीं माना। यह भूल गया है कि उसकी तीनों बेटियों की 
					शादी में और नया घर बनाते समय मैंने हाथ खोल कर पैसा दिया था। 
					... मन ग्लानि से भर गया। उसकी बातों में भी सच्चाई है। पर 
					अपने बेटों की फिजूलखर्ची रोकना मेरा कर्तव्य नहीं था क्या? 
					क्या यह सब समझने की बुद्धि रामन नायर को नहीं? नहीं, मानो अब 
					मेरा न होना उसकी खुशकिस्मती है।
 
 फाटक पर मोटर आकर रुकने की आवाज। मेरी समाधि (चबूतरा) साफ 
						करके शारदा बाल्टी लिये कुएँ की ओर दौड़ी।
 
 'ओ! बरामदे पर पानी नहीं रखा क्या, दूर से सफर करके आ रहे 
					हैं। हाथ-मुँह धोकर ही अन्दर चढ़ेंगे।' तब उसे इतनी ही समझ 
						है। मैं बरामदे पर सिर्फ देखती खड़ी रही।
 
 अप्पू और परिवार नहीं, बल्कि केशी, पद्मिनी और बच्चे हैं। 
						पीछे पेटियों-बिस्तरों को लिये रामन नायर। दो दिन के सफर से 
						बच्चे धूल और गन्दगी से काले हो गए हैं।
 
 घर के द्वार पर आकर बेटा क्षण-भर के लिये मौन खड़ा रहा। 
					आँखों 
						में विषाद की छाया मेरी याद करके... बिचारा केशी। 
						मेरा अभाव उसे दुख देता होगा। अगले क्षण पद्मिनी की 
						परिहास-भरी वाणी, पैरों पर पानी डालती शारदा को संबोधित 
						करके- "तू जा। अब की बार चप्पल उतार कर कौन पैर 
						धोएगा, किसे दिखाने, आगे से इस घर में अपनी सुविधा 
						से रह सकती हूँ।"
 
 बहू ऐसा जता रही है मानो उसे पूरा आराम मिल गया है। तो 
					मेरा सानिध्य उसे बहुत खटकता था, क्या केशी बेटा इसके विरोध 
					में कुछ बोलेगा नहीं, वह तो पत्नी के साथ हँस देता है। क्या 
					उसे इतनी समझ नहीं कि बाहर की गन्दगी से सने चप्पल, साफ-सुथरे 
					घर के अन्दर नहीं ले जाए जाते। अब तक इनकी सुख-सुविधा का खयाल 
					था मन में। अब तो मन भारी हो गया है, उनके साथ घर के अन्दर पैर 
					रखने को मन नहीं करता। सब वही हो, जो वे चाहते हों। मैं 
					क्यों...
 
 मेरा बेटा अपनी बीवी से कुछ फुस-फुसाता है। मृत्यु के बाद 
						की हालत से होगा, मुझे साफ सुनाई दिया। 'तू शारदा से कह, 
						बाबूजी वाला कमरा खोलकर हमारे लिये ठीक करना। बम्बई में 
						बच्चों के साथ रहने से क्या दाम्पत्य है, इधर भी वही। न, कम 
						से कम इस बार प्राइवेसी का कुछ मज़ा लूटना चाहिए।'
 
 क्या यह मेरा बेटा ही कह रहा है। इतना स्वार्थ उसके अन्दर 
						छिपा था। ...वैसे एक दृष्टि से उसका कथन ठीक भी है। 
						वर्षों बाद अब घर आता है, तो उसके लिये इतनी सुविधा का 
						प्रबन्ध मैं कर सकती थी। फिर भी, मेरे न रहने से सख्त दुखी 
					होने के बदले बेटा ... । ज्यादा कुछ सुनना न पड़े। कान बन्द 
					करके बरामदे की दीवार के सहारे बैठ गई।
 
 पता नहीं, कितनी देर तक यों बैठी रही। फाटक पर दूसरी मोटर 
						... .अप्पू है। उसके साथ पैंट-शर्ट पहने तीन ओर लोग। 
						तब सरला, इन्दु और बिन्दु नहीं आयीं। मेरे न रहने की 
						असुविधा के कारण होगा। सोने के वक्त ही सब नीचे चले आते 
						हैं? तब खाना खिलाने-परोसने को कोई न रहे तो ... 
						"नहीं, लगता है कि अप्पू के साथ आए लोगों से रामन नायर 
						परिचित है। आपस में कुशल पूछते और हँसते तो हैं। केशी और 
						परिवार सीढ़ियाँ उतर कर जल्दी
						ही उन्हें लेने गया। अभी पता नहीं चला कि अप्पू के साथी 
						कौन-कौन हैं। पद्मिनी ज़ोर से हँसकर बोली-- 'भाभी और 
						बच्चियों का वेश लाजवाब है। अगर माँजी होती तो उन्हें 
						पहचानने में कठिनाई होती कि इनमें भाभी कौन-सी है और 
						बच्चियाँ कौन, कौन सी हैं।'
 
 मैं यह क्या सुनती हूँ। अप्पू के साथ बाल कटे और पैंट पहन 
						कर आए लोग सरला और उसकी बच्चियाँ हैं, मेरे पास से होकर 
						जाती हुई सरला पद्मिनी से गुप्त बात कर रही थी-- "कैसा 
						आरामदेह वेश है, वहाँ तो हम इसके आदी हो चुके हैं। अब तक, 
						यहाँ आने के छह महीने पहले से बाल बढ़ाती थी। यहाँ भारतीय 
						नारी बनकर न आए, तो माँजी की खरी-खोटी सुननी पड़ेगी। पिछली 
						बार भी मेरे यहाँ नाइटी पहनने का कैसा विरोध किया था, माँजी 
						ने। कहती थीं कि केशी और उण्णि के सामने मैं बेशरम चलती 
						थी। तभी मैंने अप्पू से कहा था कि आइन्दा अम्माजी की 
						मृत्यु के बाद ही मैं इधर आऊँगी। वैसे भी माँ–बाप के पीछे 
						पड़े रहने की आदत हमारे घर में नहीं। फिर अप्पू के पुराने 
						आचार-विचार के कारण... और इस बार आए हैं, हमारे 
						बँटवारे के लिये... ।"
 
 बाकी सुनने की ताकत मुझ में नहीं थी। दो बच्चियों की माँ 
						होकर सरला कैसे यह कह पाती, कम, से, कम यह तो विचार करती कि 
						कल उसकी भी यह हालत होती।
 
 रात के कपड़े के नाम पर अन्दर के सब कपड़े दिखाई देने वाला 
						आइना जैसा वेश पहनकर सवेरे कॉफी पीने आई, तो मैंने उसका 
						सचमुच विरोध किया था। तब उण्णि की शादी नहीं हुई थी। केशी 
						अकेला आया था। ऐसा नहीं था,  तो भी देवरों के लिये माँ–सरीखा 
						व्यक्ति इस प्रकार बेशरम प्रत्यक्ष हो जाता तो ... उस 
						दिन वह मुँह फुलाकर ऊपर चढ़ गई तो मैंने कभी नहीं सोचा था 
						कि वह ऐसा कठोर निर्णय लेगी कि मेरे होते इधर फिर नहीं 
						आएगी। तब तो मेरा न रहना ... उसकी जीत है। इन ममताहीन 
						बहुओं के बीच से जल्दी हट जाऊँगी।
 
 अपने पोते-पोतियाँ अपने खून से पैदा हो गए हैं। उनके साथ 
						अपने कमरे मे रहूँ।
 
 रेखा और रश्मि पूरे उत्साह से कमरे की देख-देख कर रही थीं। 
						दोनों को एक-जैसी खुशी। उनकी अंग्रेजी बोली और हँसी भले ही 
						समझ में न आए, पर उन्हें देखते रहने में खुशी है। बड़ी 
						चौदह बरस की हो गई है। कोई उसे लड़की नहीं कहेगा। 
						शक्ल-सूरत वैसी है। ध्यान से देखा जाए तो 'उन्हीं' पर गई 
						है। चौड़ा भाल, पैनी नाक, मोटे ओठ-- सब वही है। वह जोर से 
						हँसी तो बायीं तरफ का दाँत ऊपर उठ आया था, वह भी 'उन्हीं' 
						की तरह। एक शीतल बौछार! उनको दूध देने शारदा आई तो 
						टूटी, फूटी मलयालम में जो बात उससे कही, वह सुनकर मैं चौंक 
						गई। सिर्फ उन दोनों के लिये वह कमरा मिला, यह अच्छा ही 
						हुआ। मेरे तेल की बदबू, खर्राटा, खाँसी-- ये सब उन्हें 
					दुस्सह था। नहीं, अब मुझे यहाँ रहना नहीं है। पोते भी मेरे न 
					रहने से खुश हैं। भारी मन से मैं बाहर आई।
 
 दालान में अप्पू और रामन नायर थे। रामन नायर द्वारा लाई 
						गई सोडे की बोतल अप्पू हाथ में लेता है। रामन नायर ने 
						मुस्कुराकर कहा-- 'अब तो यह जरूरी नहीं कि आप ऊपर जाकर ही 
						पिया करें। यहाँ खाने के कमरे में पी सकते हैं। मैं अपने घर 
						से मुर्गे का गोश्त पकाकर ले आया हूँ। अब तो माँजी के देख 
						लेने की झंझट नहीं।' अप्पू भी हँसता हैं। 'रामन नायर, 
						तुम्हारे कहने से ही वह बात याद आई। खाना परोसने को कहो। 
						मैं बोतल लेकर आऊँगा। यह तो अच्छा ही हुआ।'
 
 वह ऊपर चढ़ गया तो उसकी ये बातें सुनकर मैं आश्चर्यचकित हो 
						गई। उसने किस बात को अच्छा कहा। दोपहर को खाने के पहले 
						दालान में ही बैठ शराब पीने की बात। या मेरे न रहने की 
						स्थिति।
 
 ज्यादा सोचने की शक्ति नहीं थी। धीरे-से पैर रखकर बरामदे 
						पर आई। फिर दीवार के सहारे वहीं बैठी। अब उण्णि का आना 
						शेष रह गया है। आज ही आ जाएगा। कल तो ओणम है। मैं न रहूँ, 
						तो भी वह आएगा। उसे भी एक बार देखकर ... ।
 
 पर उण्णि के बदले आया था डाकिया। रामन नायर जो खत लेकर 
						अन्दर आया, उससे लगा कि वह उण्णि का ही है। पता लगाने की 
						कौतूहलता बढ़ी। क्या! कमला को इस बार कोई बीमारी। 
						उसे बच्चा पैदा होने की कितनी बड़ी इच्छा थी। कई 
						मनौतियाँ मानी थीं।
 
 ठहाका लगाकर हँसने की आवाज। हँसी, मज़ाक की क्या बात लिखी है 
						उसने, जानने का उत्साह बढ़ा। दालान में बच्चों की बातें 
						सुनाई दीं। कमला के तीन महीने का गर्भ होने की बात झूठी 
						थी। घर आए तो, माँजी के साथ कुछ दिन रहने को कहेगी। इससे 
						बचने को उण्णि ने लिखा ... इस बार घर आकर 'बोर' होने 
						के बदले वे यूरोप जा रहे हैं, सैर के लिये। अम्मा को निराश 
						किया-- यह अपराध, बोध भी नहीं हुआ होगा।
 
 मन में एक प्रकार का निर्वेद फैल रहा है। हाँ, अब मेरे 
						कारण उण्णि को ही नहीं, बल्कि किसी को अपराध, बोध न हो। अब 
						तो इस घर से, मेरे लिये बिलकुल पराए इस घर से, निर्विकार 
						होकर चली जाऊँगी।
 
 मैं कहाँ गई थी...  नहीं, बाकी कुछ याद नहीं। आँख खुली तो 
						सुबह हो गई थी। फिर भी पाँच वर्ष में एक बार मैं जिस दिन 
						का इंतजार करती हूँ, उस दिन के महत्व या उस दिन किये जाने 
						वाले सैंकड़ों कार्यों की याद करके बेचैन नहीं हुई। यह 
						सोचते, सोचते थकी, हारी पड़ी रही कि मैं इस घर के लिये एकदम 
						जरूरी व्यक्ति हूँ, या कि कोई अनचाही वस्तु।
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