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						मेले में बच्चे मचल गये- 
						'पापा! हमें मुखौटे चाहिए, खरीद दीजिए।' हम घूमते हुए मुखौटों की दुकान पर पहुँचे।
 
						मैंने देखा दुकान पर 
						जानवरों, राक्षसों, जोकरों आदि के ही मुखौटे थे। मैंने 
						दुकानदार से पूछा- 'क्यों भाई! आप राम, कृष्ण, ईसा, 
						पैगम्बर, बुद्ध, राधा, मीरा, विवेकानंद, गाँधी, भगत सिंह, 
						आजाद, नेताजी, आदि के मुखौटे क्यों नहीं बेचते?' 
 'कैसे बेचूँ? राम की मर्यादा, कृष्ण का चातुर्य, ईसा की 
						क्षमा, पैगम्बर की दया, बुद्ध की करुणा, राधा का समर्पण, 
						मीरा का प्रेम, विवेकानंद का वैराग्य, गाँधी की समन्वय 
						दृष्टि, भगतसिंह का देशप्रेम, आजाद की निडरता, नेताजी का 
						शौर्य कहीं देखने को मिले तभी तो मुखौटों पर अंकित कर 
						पाऊँ।
 
						आज-कल आदमी के चेहरे पर जो 
						गुस्सा, धूर्तता, स्वार्थ, हिंसा, घृणा और बदले की भावना 
						देखता हूँ उसे अंकित कराने पर तो मुखौटा जानवर या राक्षस 
						का ही बनता है। आपने कहीं वे दैवीय गुण देखे हों तो बतायें 
						ताकि मैं भी देखकर मुखौटों पर अंकित कर सकूँ।' -दुकानदार 
						बोला। 
 मैं कुछ कह पाता उसके पहले ही मुखौटे बोल पड़े- ' अगर हम पर 
						वे दैवीय गुण अंकित हो भी जाएँ तो क्या कोई ऐसा चेहरा बता 
						सकते हो जिस पर लगकर हमारी शोभा बढ़ सके?' -मुखौटों ने 
						पूछा।
 मैं निरुत्तर होकर सर झुकाए आगे बढ़ गया।
 
                      ८ अप्रैल २०१३ |