इस सप्ताह- |
अनुभूति
में-
संजीव निगम, सविता असीम,
शील भूषण, सुधा ओम ढींगरा और अटल बिहारी वाजपेयी की
रचनाएँ। |
- घर परिवार में |
रसोईघर में- सर्दियों के मौसम में पराठों के क्या कहने !
१५ व्यंजनों की स्वादिष्ट
शृंखला- भरवाँ पराठों में इस सप्ताह प्रस्तुत हैं-
प्याज का
पराठा।
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बचपन की
आहट- संयुक्त अरब इमारात में शिशु-विकास के अध्ययन में
संलग्न इला गौतम से जानें यदि शिशु एक साल का है-
दूध में
बदलाव।
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बागबानी में-
पत्तियों पर जमी धूल रोमछिद्रों
को बंद कर सकती है जो, वृक्ष के स्वास्थ्य के लिये अच्छा नहीं
है। इसलिये अगर पत्तियों पर धूल...
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वेब की सबसे लोकप्रिय भारत की
जानीमानी ज्योतिषाचार्य संगीता पुरी के संगणक से-
१६ जनवरी से
३१ जनवरी २०१२ तक का भविष्यफल।
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- रचना और मनोरंजन में |
कंप्यूटर की कक्षा में-
प्रश्नोत्तर-
फेसबुक समूहों की
ईमेलों से मेल बाक्स भर जाते हैं इसे रोकने का क्या उपाय है?
...
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नवगीत की पाठशाला में-
कार्यशाला-२० में सूर्य की गति, धूप
का गुनगुनापन और उत्सव का आनंद बाँटते नवगीतों का प्रकाशन आरंभ
हो गया है- |
लोकप्रिय कहानियों के अंतर्गत-
प्रस्तुत है-
२४ दिसंबर २००२ को प्रकाशित, भारत से
डॉ. अन्विता अब्बी की कहानी—
रबरबैंड।
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वर्ग पहेली-०६४
गोपालकृष्ण-भट्ट-आकुल
और रश्मि आशीष के सहयोग से
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सप्ताह
का कार्टून-
कीर्तीश
की कूची से |
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साहित्य एवं
संस्कृति में- |
1
समकालीन कहानियों में भारत
से
शीला इंद्र की कहानी
स्वेटर के फंदे
जिस बात से माँ जी डर रही थी, वही हुई। बाबू जी दो-चार कौर खा
कर ऐसे ही उठ गए जब खाने बैठे थे, तो ऐसा नहीं लगता था कि भूख
बिल्कुल है ही नहीं यों जबसे दोनो दुकाने दंगाइयों ने जला दी,
उनकी क्या, घर में सभी की भूख-प्यास नींद उड़ गयी थी. पर रोया
भी कहाँ तक जाए, आँसू भी तो इतना साथ नहीं देते। हाँ! माँ जी को
मालूम है कि बाबू जी की आँखों ने कभी खारा जल नहीं बहाया, पर
उनकी छाती से उठती वे दिल को चीरती गहरी निश्वासें, माँ जी ही
जानती थी कि वह रो रहे है... ऐसे कि रो-रो कर उनका हृदय छलनी
हुआ जा रहा है।
‘‘ऐसे गुमसुम होकर बैठोगे, तो कैसे चलेगा? आखिर इन बच्चों की
तरफ देखो न। अपनी खातिर नहीं, इन्हीं की खातिर सही, कुछ हँसों
बोलो तो। तुम्हारी वजह से ये बच्चे भी सहमे-सहमे से रहते हैं’’
वह कहती।
पर बाबू जी बिना कुछ कहे सिर झुका लेते। फिर धीरे-धीरे वह
हँसने-बोलने भी लगे। बच्चे जब घर
में आ जाते, वे उनसे दो--चार बातें कर खुश हो लेते थाली सामने
आ जाती, तो...
विस्तार
से पढ़ें...
*
रतनचंद रत्नेश का व्यंग्य
टीवी में गरीबी कहाँ
*
अनीता खटवानी का आलेख
सिंधी लोकनाटक
*
आज सिरहाने के अंतर्गत
कहानी संग्रह 'वतन से
दूर'
*
पुनर्पाठ में चित्रकार
कृष्ण जी हौवाला जी आरा से परिचय |
अभिव्यक्ति समूह
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पिछले सप्ताह-
मकर संक्रांति के अवसर पर |
1
राजेश कमल की लघुकथा
महँगाई डायन
*
महेश परिमल का निबंध
पतंग का अनुशासन
*
रमेश चंद्र का आलेख
सूर्य
उपासना का पर्व मकर संक्रांति
*
स्वाद और स्वास्थ्य में
संक्रांति का सखा तिल
*
समकालीन कहानियों में भारत
से
मीरा सीकरी की कहानी
सच्चो सच
उसने सोचा, घंटी बजाने की क्या
जरूरत है?...छत पर ही तो लोहड़ी जलाई होगी...वह सीधा ऊपर छत पर
ही पहुँच जाती है—सबको वहीं तो होना चाहिए...पन्द्रह दिनों से
वह यहाँ आना-आना कर रही थी...पर अब, जबकि कल-परसों तक उन्हें
पाकिस्तान लौट जाना है—वह अपने को रोक नहीं सकी थी। उसने सोचा,
वह मिलेगी तो जरूर, देखेगी तो सही कि शान्ति बहनजी कैसी दिखती
हैं अब? दिखने शब्द से उसे अपने पर ही हँसी आ गई। पचास की तो
वह खुद होने को आई—वह तो उससे दस-बारह साल बड़ी होंगी। इस उम्र
में क्या दिखना—हाँ,
मिलना कहे तो बात समझ में आती है।
चौतल्ले की छत पर वह पहुँच गई, पर उसकी साँस बुरी तरह फूल रही
थी। छत पर म्यूजिक लगा हुआ था। घर के बच्चे और शायद उनके
दोस्त-यार झूमझाम रहे थे। बीचोंबीच तसले में आग जल रही
थी...कोई कुर्सी हो तो बैठ जाए वह।
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