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समकालीन कहानियों में भारत
से
सुभाष नीरव की कहानी
चुप्पियों के बीच तैरता संवाद
मुझे यहाँ आए एक रात और एक दिन हो चुका था।
पिताजी की हालत गंभीर होने का तार पाते ही मैं दौड़ा चला आया
था। रास्ते भर अजीब-अजीब से ख्याल मुझे आते और डराते रहे थे।
मुझे उम्मीद थी कि मेरे पहुँचने तक बड़े भैया किशन और मँझले
भैया राज दोनों पहुँच चुके होंगे। पर, वे अभी तक नहीं पहुँचे
थे। जबकि तार अम्मा ने तीनों को एक ही दिन, एक ही समय दिया था।
वे दोनों यहाँ से रहते भी नज़दीक हैं। उन्हें तो मुझसे पहले
यहाँ पहुँच जाना चाहिए था, रह-रहकर यही सब बातें मेरे जेहन में
उठ रही थीं और मुझे बेचैन कर रही थीं।
मैं जब से यहाँ आया था, एक-एक पल उनकी प्रतीक्षा में काट चुका
था। बार-बार मेरी आँखें स्वत: ही दरवाजे की ओर उठ जाती थीं।
मुझे तो ऐसे मौकों का जरा-भी अनुभव नहीं था। कहीं कुछ हो गया
तो मैं अकेला क्या करूँगा, यही भय और दुश्चिन्ता मेरे भीतर
रह-रहकर साँप की तरह फन उठा रही थी।
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