सप्ताह
का
विचार-स्वदेशी
उद्योग, शिक्षा, चिकित्सा, ज्ञान,
तकनीक, खानपान, भाषा,
वेशभूषा एवं स्वाभिमान के बिना विश्व का कोई भी देश महान
नहीं बन सकता। - बाबा रामदेव |
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अनुभूति
में-
निर्मला जोशी, गौतम राजरिशी, कृष्ण कन्हैया, जयजयराम आनंद और
प्रत्यक्षा की रचनाएँ। |
यह चेहरा कुछ पहचाना सा है न?
अनिल कपूर ही तो हैं शायद किसी भूमिका के लिए वज़न कुछ
बढ़ाया है। मैंने भी एक बार यही सोचा था लेकिन...आगे
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सामयिकी में- लखनऊ में
अपशिष्ट प्रबंधन के नए प्रयोगों के विषय में प्रभा चतुर्वेदी से
वरालिका दुबे की बातचीत-
कूड़े से आसक्ति प्रदूषण से मुक्ति। |
रसोईघर से सौंदर्य सुझाव - रोज़ दोपहर में खाने के साथ एक
गाजर सलाद की तरह कच्ची खाने से आँखों के चारों और पड़े काले
निशान दूर हो जाते हैं। |
पुनर्पाठ में- १ अप्रैल २००१
को पर्व परिचय के अंतर्गत प्रकाशित टीम अभिव्यक्ति का आलेख-
अप्रैल माह के पर्व। |
क्या आप जानते
हैं? कि आस्ट्रेलिया में पाए जाने वाला पशु कंगारू और पक्षी एमू
केवल आगे की ओर ही चल या दौड़ सकते हैं, पीछे की ओर नहीं। |
शुक्रवार चौपाल- पिछले सप्ताह शरद जोशी के नाटक एक था गधा उर्फ
अल्लादाद खाँ का फिर न हो सका। कारण? कुछ
सदस्य छुट्टी पर थे और...
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नवगीत की पाठशाला में-
छाई है कुछ सुस्ती, गर्मी का मौसम है और नए विषय की
प्रतीक्षा, देखते हैं कि अगला विषय क्या आता है। |
हास
परिहास
1 |
1
सप्ताह का
कार्टून
कीर्तीश की कूची से |
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इस सप्ताह
समकालीन कहानियों में
यू.एस.ए. से
इला प्रसाद की कहानी
मुआवज़ा
"सब साले
काले - पीले हैं !"
श्रुति और इन्द्र की आँखों में सीधा देखते हुए उसने एक जोर का
ठहाका लगाया। सामने से आ रहे एक चीनी और एक काले मित्र के
अभिवादन पर दी गई प्रतिक्रिया थी यह। वे हँसे, एक नासमझ हँसी,
एक खुली, निश्छल हँसी - उसका साथ
देने के लिए- बिना यह जाने कि वह कमेन्ट उन्हीं के लिए है।
वह चाह कर भी साथ नहीं दे पाई। मुस्करा कर रह गई। एक
उदास मुस्कराहट, जो जबरन ओठों के कोरों तक फैलती है और आँखों
में कोई अहसास नहीं उपजता। उसकी हँसी भी तो कैसी थी! अन्दर का
सारा खालीपन मूर्त हो उठा था एकबारगी। मैनहट्टन में सब-वे के
उस सूने प्लेटफ़ार्म पर वे खड़े थे जहाँ से उस दिन कोई ट्रेन
नहीं जानी थी। वह यही समझा रहा था उन्हें। सप्ताहांत में
ट्रेनों के रूट बदल जाते हैं और वे दोनों घूम- फ़िर कर उसी
प्लेटफ़ार्म पर वापस आ गए थे, जहाँ से कुछ ही मिनट पहले उसने
उन्हें वापस भेजा था। सम्मेलन तो सिर्फ़ तीन दिनों का था!
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संजय पुरोहित
का व्यंग्य
लोन ले लो लोन
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प्रकाश गोविंद का लेख
भारतीय नाटकों पर विदेशी प्रभाव
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हमारी संस्कृति
के अंतर्गत
डॉ.
आशीष मेहता का आलेख-
मल्लखंभ
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राहुल संकृत्यायन का साहित्यिक निबंध
अथातो घुमक्कड़ -
जिज्ञासा |
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पिछले सप्ताह
विजी
श्रीवास्तव
का व्यंग्य
सच का सामना
में गांधी जी का बंदर
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रूपेश कुमार
का आलेख
आईआईटी कानपुर का जुगनू अंतरिक्ष
में
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कैलाश जैन से
सुनें
पहली अप्रैल की कहानी
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समाचारों में
देश-विदेश से
साहित्यिक-सांस्कृतिक सूचनाएँ
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समकालीन कहानियों में
भारत से
निर्मल गुप्त की कहानी
नदीदे
हाथ में काँच
की रंग-बिरंगी गोलियाँ उछालता रघु चारों ओर घेर कर खड़े बच्चों
को चीख-चीख कर हिदायतें दे रहा था। छूना मत। हाथ मत लगाना।
अबके धंईया मेरी। निशाना न लगे तो कहना।
जबरदस्त खेल चल रहा था। पूरी बारह गोलियाँ दाँव पर लगी थीं।
मजाक की बात थी क्या। सुकना ने उलाहना दिया, ''हाँ-हाँ बहुत देखे
हैं धंईया जीतने वाले। पहले कन्चे फेंक तो सही।''
''फेंकता हूँ, पर देख सुकना। सबको गुच्चक पर से हटा दे।''
''हटो रे'' कहता सुकना किसी कांस्टेबिल की तरह उत्सुकता से आगे
बढ़ आए बच्चों को पीछे धकेलने लगा।
सब बच्चे दम साधे खड़े थे। देखों क्या होता हैं? कौन जीतेगा
इत्ते सारे कन्चे? सुकना या रघु, रघु या सुकना। सब अटकलें लगा
रहे थे। पूरी कहानी पढ़ें...
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