इस
सप्ताह
गौरव गाथा में- ईद के अवसर पर
प्रेमचंद की लोकप्रिय कहानी
ईदगाह
रमजान
के पूरे तीस रोजों के बाद ईद आयी है। कितना मनोहर, कितना सुहावना
प्रभाव है। वृक्षों पर अजीब हरियाली है, खेतों में कुछ अजीब रौनक है,
आसमान पर कुछ अजीब लालिमा है। आज का सूर्य देखो, कितना प्यारा, कितना
शीतल है, यानी संसार को ईद की बधाई दे रहा है। गाँव में कितनी हलचल
है। ईदगाह जाने की तैयारियाँ हो रही हैं। किसी के कुरते में बटन नहीं
है, पड़ोस के घर में सुई-धागा लेने दौड़ा जा रहा है। किसी के जूते
कड़े हो गए हैं, उनमें तेल डालने के लिए तेली के घर पर भागा जाता है।
जल्दी-जल्दी बैलों को सानी-पानी दे दें। ईदगाह से लौटते-लौटते दोपहर
हो जाएगी। लड़के सबसे ज्यादा प्रसन्न हैं। किसी ने एक रोजा रखा है,
वह भी दोपहर तक, किसी ने वह भी नहीं, लेकिन ईदगाह जाने की खुशी उनके
हिस्से की चीज है। रोज़े बड़े-बूढ़ों के लिए होंगे। इनके लिए तो ईद
है। रोज ईद का नाम रटते थे, आज वह आ गई।
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मथुरा कलौनी का व्यंग्य
टोपी की महिमा
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गोविंद कुमार गुंजन का ललित निबंध
एक फूल खिलना चाहता है
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प्रभा
खेतान के धारावाहिक उपन्यास
आओ पेपे घर चलें का पहला भाग
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साहित्य समाचारों
में
पुस्तक-लोकार्पण,
श्रद्धांजलि,
सम्मान,
कहानी पाठ के आयोजन
और नए सॉफ्टवेयर की सूचना
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पिछले सप्ताह
पवन कुमार खरे का व्यंग्य
स्वादिष्टतम रस
निंदा रस
महानगर की कहानियों के अंतर्गत
सुकेश साहनी की लघुकथा दाहिना हाथ
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दीपिका जोशी
'संध्या' का
दृष्टिकोण
सही विचारना ही नहीं, व्यक्त
करना भी ज़रूरी है
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रवीन्द्र त्रिपाठी
की रंग चर्चा
हिंदी नाटकों में परिवार
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समकालीन कहानियों में- भारत से
से.रा.यात्री की कहानी
भीतरी जाले
मैंने अपने दरवाज़े पर एक नई
सेंट्रो कार खड़ी देखी तो एकाएक सोच नहीं पाया कि मुझसे कौन
बड़ा आदमी मिलने आ गया। फिर मुझे लगा जीने के दूसरी ओर जो
कॉलेज के प्राचार्य रहते हैं उनके यहाँ कोई आया होगा।
मैं दो-ढाई किलोमीटर दूर सब्ज़ी
मंडी की बेंच पेंच से निकलकर पैदल ही घर लौटा था। सब्ज़ी वगैरह
के दो भारी भरकम थैले मेरे दोनों हाथों को घेरे थे। मई का
दूसरा हफ्ता चल रहा था, कॉलेज की लंबी छुट्टियाँ शुरू हो चुकी
थीं। मैं सुबह घूमने के बहाने घर से निकलता था और हाट-बाज़ार
करते-करते दस ग्यारह बजे तक घर लौट आता था। आज मेरी हालत कुछ
ज़्यादा ही बदतर थी क्यों कि थैलों से दोनों हाथ बँधे होने से
गर्दन से पीठ की ओर बहते पसीने को
पोछने की सुविधा नहीं थी। किसी तरह काँखते-कराहते मैंने जीने
की सीढ़ियाँ चढ़ी और दरवाज़े पर लगी घंटी का बटन दबाया। किवाड़
खोलने वाले को देखकर तो मैं दंग रह गया। मेरे मुँह से अनायास
निकला, ''अरे, शुक्ला तुम?'' |
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अनुभूति में-
वेद प्रकाश शर्मा वेद, ड़ॉ.
विजय कुमार सुखवानी,
सुरेंद्र भूटानी,
हिमांशु कुमार पांडेय और
पीयूष पाचक
की रचनाएँ |
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कलम
गही नहिं हाथ
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इस बार की 'शुक्रवार चौपाल' इसी बात पर
केंद्रित रही कि हम 'अजमान असोसियेशन' के दशहरा मिलन पर क्या कार्यक्रम
करें। 'डेट' वाले अपनी नई प्रस्तुति के रिहर्सलों में व्यस्त हैं और
'प्रतिबिंब' वाले ब्रेक के मूड में हैं। 'थियेटरवाला' के प्रकाश असमंजस
की स्थिति में हैं। वे कहते हैं लोग वहाँ खाने पीने आते हैं नाटक
देखने नहीं, मेनका का भी यही विचार है... वहाँ वैसे दर्शक नहीं जो हमें चाहिए... क्यों न हम सफ़दर
हाशमी की अकबर बीरबल वाली लंबी कविता का नाट्य रूपांतर प्रस्तुत
करें ...ढोलक की थाप पड़ते ही सबको
आकर्षित कर लेगी। पर उसके लिए मुफ़ी चाहिए। मुफ़ी, गोल-मटोल छोटी सी
दाढ़ी वाला... आवाज़ भी ऐसी जैसी किसी किस्सागो के गले से बाहर आ रही
हो। सिर पर नमाज़ वाली टोपी रख दो तो मेकअप की भी ज़रूरत नहीं पर
मुफ़ी कई दिनों से चौपाल में नहीं आ रहा है। ऐसा ही होता है, लोग लंबे
गायब हो जाते हैं। परदेस में तरह तरह की परेशानियाँ और आपस में
मिल-बाँटने में गहरा संकोच। कोई क्यों नहीं आ रहा है कुछ पता नहीं
चलता। कोई लंबा साथ नहीं देता, बार बार नए कलाकार ढूँढने पड़ते हैं। "ढोलक के लिए आरिफ़ साहब आएँगे क्या?"
"नहीं, कोई दूसरा ढूँढना पड़ेगा..." वाद-संवाद में दोपहर के डेढ़ कब बज
गए पता ही नहीं चला। सबके जाने का समय हो गया और अदरक इलायची वाली
बढ़िया भारतीय चाय इस बार फिर रह गई। --पूर्णिमा वर्मन
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सप्ताह का विचार- जैसे
दीपक का प्रकाश घने अंधकार के बाद दिखाई देता है उसी प्रकार सुख
का अनुभव भी दुःख के बाद ही होता है --शूद्रक |
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