हम बहुत कुछ अच्छा सोचते हैं पर सोचकर ही रह जाते
हैं। अगर हम सचमुच कुछ अच्छा देखना चाहते हैं तो आगे बढ़कर मुख खोलना होगा और उसके
विषय में दृढ़ता से बोलना भी होगा। जबतक हम चुप बैठेंगे बात नहीं बनेगी। इस बात को
सिद्ध करते दो प्रमुख उदाहरण यहाँ प्रस्तुत हैं।
कुछ दिन पहले अभिव्यक्ति पर हमारे एक पुराने लेखक
कौन्तेय देशपांडे का पत्र आया था। जिसमें उन्होने शिकायत की थी कि बेहतर सुविधाओं
वाले मोबाइलों में हिन्दी की सुविधा नहीं मिलती। इसको प्रमुखता देते हुए पूर्णिमा
वर्मन ने कलम गही नहिं हाथ में प्रकाशित किया था। आज कौन्तेय का एक और पत्र आया है
वे लिखते हैं-
नमस्कार संध्या ताई,
आज एक विजय-वार्ता के साथ आपको लिख रहा हूँ।
मैंने पिछली बार आपको अवगत कराया था कि भारत में सभी मोबाइल कंपनियों के उपकरण
अँग्रेज़ी के ही पक्षपाती हैं।
मसलन सस्ते हैंडसेट पर हिंदी लिखना पढ़ना एक बार संभव हो भी सकता है, लेकिन मोबाइल
उपकरण जैसे जैसे अधिकाधिक महँगे तथा विशेष गुणों से युक्त होते हैं वैसे वैसे उनमें
हिंदी तथा स्थानीय भाषाओं की सुविधा कम होती जाती है. किसी भी विचार करने वाले
भारतीय व्यक्ति के लिए यह तथ्य पीड़ादायक होगा। इस विषय को स्वयं के अनुभव के
साथ मैंने कई बार नोकिया कंपनी तक पहुँचाया। एक बार उनका कुछ जवाब मिला, किन्तु
उसमें किसी गलती का स्वीकार न करते हुए ज़िम्मेवारी टालने की ही चेष्टा थी।
जब जाल भर में मित्रों के बीच इस विषय का प्रसार
करने की मैं सोच ही रहा था तभी 'अभिव्यक्ति-हिन्दी' ने मेरी विनती मान
ली, अभिव्यक्ति पत्रिका में यह मुद्दा भली भांति उठाया और अपने लाखों पाठकों
तक पहुँचाया। अप्रत्यक्ष रूप से ही सही लेकिन आज उसका परिणाम समक्ष आ रहा है। आज
जाल पर टहलते हुए मुझे नोकिया कंपनी का एक हैंडसेट मॉडल दिखाई दिया 'नोकिया ५२२० -
एक्सप्रेस म्यूज़िक'। इस मॉडल में कई सारी 'स्मार्ट' ख़ूबियाँ तो हैं ही लेकिन बड़े
स्क्रीन के साथ-साथ हिन्दी लिखने की सुविधा प्रदान की गई है! इस श्रेणी के मँडलों
में आज से पहले यह नहीं था।
इसका पूरा श्रेय नोकिया कंपनी के ग्राहक सर्वेक्षण को जाना चाहिए। इसमें निजी श्रेय
जताने की किसी इच्छा के बिना मैं अपने मित्रों तथा पाठकों से एक ही निवेदन करना
चाहता हूँ कि कहीं भी कोई आपत्तिजनक बात हम यदि देखते हैं तो निरपराध भाव से उसका
संवैधानिक व सतत विरोध अवश्य करते रहना चाहिए। कुछ ना कुछ बदलाव तो अवश्य आता है।
समाज में बुराइयों तथा कमियों के अस्तित्व का एकमात्र कारण होता है विनम्रता का
अभाव या अकर्मण्यता। इस मॉडल के सूचना पुस्तिका का एक पन्ना आपके संदर्भ हेतु दे
रहा हूँ।
इसी बात को प्रकट करता है
जनसत्ता में प्रकाशित राजकिशोर का यह लेख- जिसमें नई दुनिया नामक समाचार-पत्र के
विषय में है। वे लिखते हैं- शहर इंदौर से एक मित्र का मेल आया- कृपया आलस्य न
करें और इस मेल को तुरंत नई दुनिया को भेजें। मैं घबरा गया। इस तरह के मेल आते ही
रहते हैं जिसमें किसी अपील पर हस्ताक्षर करना होता है या किसी महत्त्वपूर्ण घटना को
अपने सभी मेल-मित्रों के बीच प्रसारित करना होता है। पर किसी के भी शीर्षक में यह
नहीं लिखा होता कि फौरन कार्रवाई करें। मेल के साथ दो संलग्नक थे (कम पढ़े-लिखे
लोगों के लिए, अटैचमेंट) और दोनों का ही शीर्षक था- बधाई- नई दुनिया। इससे थोड़ी
तसल्ली हुई। जब बधाई की बात है, तो ज़रूर खुशखबरी होगी। मेरे मित्र उस नेता की तरह
नहीं हैं जिसने मुहर्रम पर मुसलमानों को बधाई देते हुए एक विज्ञापन सभी स्थानीय
पत्रों में छपवा दिया था।
एक संलग्नक खोला, तो बहुत बड़े-बड़े अक्षरों में
लिखा हुआ था- बधाई। उसके नीचे लिखा हुआ था- 'मेरे, मेरे मित्रों और हिंदी भाषा-भाषी
लाखों पाठकों की ओर से बधाई कि नई दुनिया फिर से हिंदी में निकलने लगा है।' अगले
अनुच्छेद में कहा गया था, 'जनसत्ता के बाद हिंदी का यह दूसरा अखबार है जो हिंदी में
निकल रहा है। पुनः बधाई।' दूसरे संलग्नक में बात को पूरी तरह स्पष्ट किया गया था-
'प्रिय मित्रों, नई दुनिया फिर से हिंदी को बचाने वाले योद्धा के संकल्प से फिर से
हिंग्लिश को छोड़ कर हिंदी की तरफ़ लौट आया है। कृपया आप लोगों से आग्रह है कि इस
ईमानदार कोशिश पर अखबार को तहेदिल से बधाई दें ताकि वह हिंदी को बचाने के संकल्प की
लड़ाई में शक्ति अर्जित कर सके।' मेल इंदौर के शिवशंकर मालवीय ने भेजा था। वे इंदौर
के ही मेरे मित्र प्रभु जोशी के मित्र हैं। प्रभु जोशी बहुत दिनों से हिंदी के
भविष्य को लेकर काफी परेशान हैं। वे हिंग्लिश के खिलाफ़ बोलते हैं, लिखते हैं और
हिंदी के अखबार मालिकों को पत्र लिखकर अनुरोध करते हैं कि वे हिंदी के साथ छेड़छाड़
न करें। प्रभु के अनुसार, किसी भी भाषा को बनने में सैंकड़ों साल लगते हैं। उसे कुछ
ख़ास संस्थानों द्वारा कुछ ही वर्षों में हलाल करने का प्रयास असह्य है।
मेल में नई दुनिया के संपादक का ईमेल पता भी दिया
गया था- editor@naidunia.com। मैंने तुरंत नई दुनिया के
संपादक को मेल के ज़रिए बधाई भेजी कि उन्होंने अपना अखबार फिर से हिंदी में निकालना
शुरू कर दिया है। मैंने यह उम्मीद भी की कि नई दुनिया ने अपने लिए जो रास्ता बनाया
है, वह निम्न कोटि की व्यावसायिकता के इस समय में एक बहुत बड़ी चुनौती है, लेकिन
देश एक बार फिर से जगा, तो वह नई दुनिया का आभार मानेगा कि मौजूदा अंधड़ में
मध्यप्रदेश में भी कोई था, जिसे अपना कर्तव्य साफ़-साफ़ दिखाई पड़ रहा था। इतिहास
भीड़ में चलने वालों या भेड़िया-धँसान में बहने वालों के नाम दर्ज नहीं करता। वह
उनके नाम ज़रूर नोट करता है जो 'एकला चलो रे' का साहस दिखाते हैं।
हिंदी के भविष्य को लेकर इस समय दो मत हैं। एक मत
यह है कि हिंदी के पाँवों में शुद्धतावाद की बेड़ियाँ न लगाई जाएँ।
'हिंदी-अंग्रेज़ी सिस्टर-सिस्टर' के समवेत नारे के साथ हिंदी को अंग्रेज़ी शब्दों
से समृद्ध किया जाए और जनता की भाषा अपनाने के लिए उसे प्रोत्साहित किया जाए। दूसरे
मत के अनुसार, एक बड़ी साज़िश को आम जनता पर लादा जा रहा है। हिंदी अगर बच भी गई,
तो वह कैसी हिंदी होगी, इसका एक नमूना प्रभु जोशी ने अपने एक सनसनाते हुए लेख में
पेश किया है। यह नमूना भोपाल के एक स्थानीय दैनिक से अनेक वर्ष पूर्व लिया गया था,
'मॉर्निंग अवर्स के ट्रैफिक को देखते हुए, डिस्ट्रिक्ट एडमिनिस्ट्रेशन ने ट्रैफिक
रूल्स अपने ढंग से इमप्लीमेंट करने के लिए जो जेनुइन एफर्टस किए हैं, वो रोड को
एक्सीडेंट प्रोन बना रहे हैं। क्यों कि, सारे व्हीकल्स लेफ्ट टर्न लेकर यूनिवर्सिटी
की रोड को ब्लॉक कर देते हैं। इस प्रॉब्लम का इमीडिएट सोल्यूशन मस्ट है।'
इंदौर की नई दुनिया को एक ऐतिहासिक पत्र माना जाता
है। कुछ समय पहले उसने भी अपना प्रसार बढ़ाने के लिए हवा के रुख से समझौता किया और
धीरे-धीरे हिंग्लिश की ओर बढ़ने लगा। इंदौर के सुरुचि-संपन्न पाठक तिलमिलाए। सभी के
कंठ से यही निकल रहा था- अरे यह भी... इसके बाद जन प्रतिवाद शुरू हुआ। लोगों
ने पत्र स्वामी से मिल कर अपनी नई नीति पर पुनर्विचार करने का आग्रह किया। अंततः
सद्बुद्धि की वापसी हुई और नई दुनिया फिर से हिंदी का अखबार बन गया। इंदौर के सचेत
लोगों और नई दुनिया के विचार-सक्षम स्वामियों को बधाई।
कुल मिलाकर यह कि अगर अगर समाज में कुछ गलत नज़र
आता है तो उसका मिलकर विरोध करें। विनम्रता बनाए रखें और जबतक सही नहीं हो जाता
विरोध जारी रखें। आखिर विजय तो सत्य की ही होती है पर प्रयत्न तो हमें करना ही होता
है।
२२ सितंबर २००८ |