मैंने अपने दरवाज़े पर एक नई
सेंट्रो कार खड़ी देखी तो एकाएक सोच नहीं पाया कि मुझसे कौन
बड़ा आदमी मिलने आ गया। फिर मुझे लगा जीने के दूसरी ओर जो
कॉलेज के प्राचार्य रहते हैं उनके यहाँ कोई आया होगा।
मैं दो-ढाई किलोमीटर दूर सब्ज़ी
मंडी की बेंच पेंच से निकलकर पैदल ही घर लौटा था। सब्ज़ी वगैरह
के दो भारी भरकम थैले मेरे दोनों हाथों को घेरे थे। मई का
दूसरा हफ्ता चल रहा था, कॉलेज की लंबी छुट्टियाँ शुरू हो चुकी
थीं। मैं सुबह घूमने के बहाने घर से निकलता था और हाट-बाज़ार
करते-करते दस ग्यारह बजे तक घर लौट आता था। आज मेरी हालत कुछ
ज़्यादा ही बदतर थी क्यों कि थैलों से दोनों हाथ बँधे होने से
गर्दन से पीठ की ओर बहते पसीने को
पोंछने की सुविधा नहीं थी। किसी तरह कांखते-कराहते मैंने जीने
की सीढ़ियाँ चढ़ी और दरवाज़े पर लगी घंटी का बटन दबाया। किवाड़
खोलने वाले को देखकर तो मैं दंग रह गया। मेरे मुँह से अनायास
निकला, ''अरे, शुक्ला तुम?''
''हाँ क्या मैं आ नहीं सकता?''
''ज़रूर आ सकते हो। और यह तुम्हारी कृपा है कि यों आने की
मेहरबानी करते हो। क्या तुमने नई गाड़ी खरीद ली है?''
''यों कहो बदल ली है। पहले मारुति थी और अब यह सेंट्रो है। पर
चलो तुम्हें खुशी है यही बड़ी बात है।'' |