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लघुकथाएँ

लघुकथाओं के क्रम में महानगर की कहानियों के अंतर्गत प्रस्तुत है
सुकेश साहनी की लघुकथा दाहिना हाथ

हैलो! डार्लिंग, कैसी हो? बहुत देर कर दी फ़ोन उठाने में? कोई ख़ास बात? सब ठीक है न? अच्छा, हाँ, याद आया... नोएडा वाली मैडम को किराये के लिए खटखटा दिया कि नहीं? ठीक किया, हर महीने उसका यही नाटक रहता है! हमारे बारे में कुछ मत पूछो! न जाने किस मनहूस की शक्ल देखकर निकला था होटल से। बहुत बुरा बीता आज का दिन! नहीं, कार्यक्रम में कोई गड़बड़ नहीं हुई। फिर? अमां यार, बोलने भी दोगी? वही तो बताने जा रहा हूँ...

कार्यक्रम ठीक समय पर शुरू हो गया था। नहीं, राज्यपाल महोदय नहीं आ सके थे। बच्चों को पुरस्कार देने का काम हमारे ज़िम्मे था। डार्लिंग, कहने को बहुत कुछ है, पर बाकी बातें घर लौटने पर होंगी। अभी मैं तुम्हें केवल उस घटना के बारे में बता रहा हूँ जिसकी वजह से सारे दिन मेरी जान सांसत में रही। बहादुरी के लिए जिस लड़के को मुझे पुरस्कृत करना था, वह मंच की ओर बढ़ रहा था। हॉल में उद्घोषणा हो रही थी कि किस तरह उस पन्द्रह वर्षीय लड़के ने अदम्य साहस का परिचय देते हुए आदमखोर बाघ के खूंखार पंजों से दो बच्चों की जान बचाई थी, और यही नहीं, केवल एक लाठी के बल पर उस बाघ का काम तमाम कर दिया था। लड़का काला–कलूटा, मरगिल्ला–सा था। मुझे नहीं लग रहा था कि वह ऐसा कोई कारनामा कर सकता था। मुझे उम्मीद थी कि मंच पर आते ही वह मेरे पैर छुएगा और मैं उसकी पीठ थपथपाकर शाबाशी दूँगा, पर उसने ऐसा कुछ नहीं किया था। मेरी आँखों में आँखें डालते हुए उसने अपना दाहिना हाथ मेरी ओर बढ़ा दिया था। मुझे उसका यह अंदाज़ पसंद नहीं आया था। मुझे उससे चिढ़–सी हुई थी। मुझे उससे हाथ मिलाना पड़ा था। मुझसे हाथ मिलाते ही उसने चौंककर विचित्र नज़रों से मेरी ओर देखा था।

बस, यहीं से मेरी परेशानी की शुरुआत हुई। दरअसल उसका सख़्त, खुरदुरा हाथ बहुत गर्म था जबकि मेरा मुलायम हाथ बर्फ़ की तरह ठंडा। मुझे बहुत अटपटा लगा था, मैंने जल्दी से अपना हाथ वापस खींच लिया था। तालियों की गड़गड़ाहट के बीच मुझसे पुरस्कार लेने के बाद वह वापस अपनी सीट की ओर जा रहा था। हाथ मिलाने के बाद जिस तरह उसने मेरी ओर देखा था, उससे मैं अपने हाथ के ठंडेपन को लेकर सोच में पड़ गया था। इससे पहले कभी मेरा ध्यान इस ओर नहीं गया था। तरह–तरह की आशंकाएँ मस्तिष्क में जन्म लेने लगी थीं। मेरे साथ मंचासीन अतिथि कुछ दूसरे बच्चों को सम्मानित कर रहे थे, पर मेरा ध्यान उस ओर नहीं था। मैंने दाहिने हाथ से अपने बाएँ हाथ को छूकर देखा तो मेरी चिन्ता और भी बढ़ गई–बायीं बाजू दाहिने की तुलना में गर्म थी। मुझे विश्वास होता जा रहा था कि मैं किसी भंयकर रोग की चपेट में आ गया हूँ।

कार्यक्रम के बाद जलपान की व्यवस्था थी। मैं वहाँ भी उखड़ा–उखड़ा रहा। बहुत से परिचित–अपरिचित लोगों से सामना हो रहा था, औपचारिकतावश कुछ लोगों से मुझे हाथ भी मिलाना पड़ा, किसी का हाथ मेरे जितना ठंडा नहीं था। मैं जल्दी से जल्दी वहाँ से निकल लेना चाहता था। हीन भावना के चलते मैंने दोनों हाथ पैंट की जेबों में डाल रखे थे ताकि किसी से हाथ न मिलाना पड़े। सिर की हल्की जुंबिश से लोगों के अभिवादन का उत्तर दे देता था। पतलून की जेब में मेरे दाहिने हाथ की हथेली पसीने–पसीने हो रही थी, जबकि बायां हाथ बिल्कुल नार्मल था।

कार्यक्रम से छूटते ही मैं सीधे डॉक्टर पंकज के पास चला गया। हाँ, वही–अपना लंगोटिया। इसी शहर में कोठी बनवाई है उसने। हम लोगों से किसी मायने में कम नहीं है। क्या आलीशान नर्सिंग होम बनाया है साले ने! मैंने उसे दाहिने हाथ की समस्या के बारे में विस्तार से बताया। उसने इसे गंभीरता से लिया ही नहीं। मैं उससे सवाल पर सवाल किए जा रहा था, जवाब में वह मंद–मंद मुस्कराता जा रहा था, बस। जब मैं बिल्कुल ही अड़ गया तो वह मेरा चेकअप करने को राज़ी हुआ। कुछ टेस्ट भी करवाए। मेरी सभी रिपोर्टस नार्मल आईं। डॉक्टर पंकज के मुताबिक मैं बिल्कुल 'फिट' था।

डार्लिंग, मेरी आदत तो तुम जानती ही हो, एक बार जो बात दिमाग में घुस जाए, वो आसानी से नहीं निकलती है। डॉक्टर के फ़िटनेस टेस्ट को पास कर लेने के बावजूद दाहिने हाथ के ठंडेपन को लेकर दिमाग में उधेड़बुन चल रही थी लेकिन चलते समय जब मैंने डॉक्टर पंकज से हाथ मिलाया तो मैं बिल्कुल बेफिक्र हो गया–उसका हाथ मुझसे कहीं ज़्यादा ठंडा था।

२२ सितंबर २००८

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