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ललित निबंध

एक फूल खिलना चाहता है
- गोविंद कुमार 'गुंजन'

हवा में कसमसाहट-सी महसूस होती है। भीतर कुछ कसकता है। एक कातरता, एक उद्वेग और क्लांति मन पर छाई हुई है। मैं खिड़की खोलकर देखता हूँ तो उस हवेली के पीछे का उजाड़ हिस्सा नज़रों में छा जाता है। वह हवेली पिछले कई सालों से बंद थी। उसके ऊपरी गुंबदों में कबूतरों ने घर बना लिया था। गाँव से दूर एकाकी इस हवेली के आसपास की खाली जगह में घास-पात ज़रूर उगा हुआ था, पर वक्त के साथ वह सब सूख चुका था। पिछले एक-दो सालों में तो ठीक से बारिश का पानी तक नहीं मिला था, इसलिए और भी अजीब-सी वीरानी छा चुकी थी।

मैंने सुबह इस हवेली को खुलवाया था। एक मज़दूर सफ़ाई के लिए लगाया था। वह सफ़ाई में व्यस्त था, और मैं कुर्सी पर पड़े-पड़े कुछ पढ़ रहा था। सांसों में कुछ कसैली गंध आ रही थी। मन पढ़ने में नहीं लग रहा था। दोपहर का समय था। मैंने खिड़की खोली तो हवेली के पीछे का उज़ाड़ मैदान नज़र आया। दूर एक पहाड़ी दिखती थी। आसपास कुछ पेड़ थे जिनके पत्तों की चमक खो चुकी थी। मुझे कुछ अजीब-सा लग रहा था। वातावरण में एक अलग तरह की गंध फैली थी। अचानक मेरी दृष्टि मैदान के एक कोने में गई, वहाँ एक पौधा वातावरण से अनजान हरियाली चादर ओढ़कर मुस्करा रहा था। उसकी शाख पर एक अधखिली कली नींद से अलसाई हुई थी। लगता था यह कली अभी अपना पूरा मुँह खोलकर बगासी लेगी और अपनी आँखें खोल देगी। मैंने देखा उस पौधे की पत्तियाँ उस कली पर अपनी हरी चादर से छाया कर रही थीं। पौधे की शाखाओं में एक चौकस सजगता थी। वहाँ एक फूल का जन्म होने वाला था। एक अतिरिक्त देखभाल में पत्तियाँ सजगता से उस कली को सँभाल रही थीं। मुझे उन पत्तियों में एक तालबद्ध, नादपूर्ण और सराग कर्तव्य निष्ठता निनादित होती लगी। मैं चकित हुआ।

मैंने देखा है किस प्रकार नए बच्चे के जन्म पर चिंतित एक गरीब परिवार में घबराहट व्याप्त रहती है। मैंने बिना स्वागत के जन्म लेते हुए मनुष्य के बच्चों को भी देखा है। कांसे की थाली बजाकर बच्चे के जन्म की खुशी मनाती हुई मानवी खुशी का और खोखली हाड़-मांस की पुतलियों की दुर्दशा होते हुए भी देखा है। ऐसे में बच्चे का जन्म किसी खुशी का नहीं, संताप की स्तब्धता का रूप ले लेता है। मुझे इतना झकझोरा हैं इस सच ने कि मनुष्य के जन्म तक को इतना अवांछित समझने वाली इस दुनिया में कई बार मनुष्य की गरिमा पर मुझे अपना भरोसा बनाए रखना तक कठिन जान पड़ा है। ऐसी दुनिया में एक फूल के जन्म को लेकर किसी पौधे की शाखाओं और पत्तियों में एक ऐसी धृतिमान और लालसाहीन ललक पाकर मैं मनुष्य होने की अनुभूति का सुखद पारितोषिक पा गया। मैं निहाल हो रहा था इस नज़ारे पर, सचमुच यह विलक्षण अनुभूति थी।

मैं हवेली का दरवाज़ा खोलकर उस पौधे के पास जा पहुँचा। मैं उसके पास ज़मीन पर बैठ गया। मैं उस उष्मा को अपनी सांसों से छूना चाहता था। मैं सूरज की किरणों में उस कलिका के प्रसव हेतु आकाश मार्ग से उतरती हुई सावित्री रूपी ममतामयी धाय को आते देख रहा था। मैंने उस कलिका को धारण कर रही डाली की आभा को देखा उसका प्रभास ललाम था। उस हरित उज्ज्वल डाल ने ताज़े पत्तों से कलिका का बदन ढांप रखा था। वहाँ फूल खिलना चाह रहा था। यह चाहत बड़ी प्यारी थी। मैं उसके पास बैठकर स्वस्ति वाचन करने लगा।

मैं उस फूल का स्वागत कर रहा था, जो अभी-अभी चटखेगा और इस विशाल ब्रह्माण्ड में अपनी नगण्य-सी उपस्थिति दर्ज कराएगा। उसकी नगण्यता उसकी अल्पता नहीं, ब्रह्माण्ड की विशालता का एक निर्मम नियम मात्र है, जिसमें नगण्य होते हुए भी उस एक फूल की महिमा कम नहीं होगी। उसका पराग उसका सौरभ उसकी गंध हवाओं की गोद में खेलेगी, और आकाश छू आएगी। उसे कोई नहीं जानेगा, पर वह अपनी अल्पज्ञता में ही अपनी पहचान स्वयं करेगी और अपने निर्वाण को प्राप्त होगी। उस फूल का खिलना व्यर्थ नहीं जाएगा इतना मुझे विश्वास है इसलिए मैं उसके जन्म के क्षणों का साक्षी होने और इस ब्रह्मांड में उसके आगमन का स्वागत करने हेतु तत्पर बैठा हूँ।

इधर हवाओं में कसैली-सी गंध फैली हुई हैं। यह गंध बारूद की गंध है। धरती पर हर पल हर क्षण कहीं न कहीं कोई युद्ध चल रहा है। मिसाइलें दागी जा रही है। परमाणु परीक्षण हो रहे हैं। घातक बीमारियों के जीवाणुओं को भी हथियार बनाकर आदमी के भीतर बैठा राक्षस अट्टाहास कर रहा है। मासूमियत घबरा रही है। कोमलताएँ काँप रही हैं। सुंदरताएँ मुरझाए जा रही हैं। संवेदनाएँ मूर्छित है। कोई दैत्य अपने विशाल पैरों के नीचे चीटियों की तरह ज़िंदगियों को कुचलता हुआ चला जा रहा है, ऐसे में अपनी दुनिया से अनजान यह नन्हा-सा फूल खिलना चाह रहा है। आखिर क्यों?

मैं उस फूल से पूछता हूँ। तुम यहाँ क्यों खिलना चाहते हो? क्या तुम्हें पता है कि जिस वीराने में तुम अपना सौंदर्य, रूप, रस और सुगंध लेकर पल भर के लिए खिलना चाहते हो, क्या वहाँ किसी के पास उस एक पल का मोल समझने का माद्दा भी है या नहीं? क्या तुम्हें पता है, हवाओं में उड़ती हुई यह राख किसी चूल्हे से नहीं किसी श्मशान से चली आ रही हैं। तुम्हारे जन्म से पहले अपनी श्मशानी-बारूदी राख के द्वारा तुम्हारा अभिषेक करने वाला यह मृत्यकामी संसार तुम्हारे जन्म के लिए ज़रा भी उत्सुक नहीं लगता फिर तुम क्यों यहाँ खिलना चाहते हो? क्या तुम्हें यहाँ खिलते हुए डर नहीं लगता?

मुझे याद आता है बचपन में कब्रिस्तानों और श्मशान के संबंध में जो बालोचित उत्सुकताएँ और कल्पनाएँ मन में हुआ करती थीं, उसके चलते एक अजीब-सा भय लगता था। एक बार स्कूल के दिनों में कुछ साहसी सहपाठियों के साथ चुपचाप किसी सूनी-सी दोपहरी में एक कब्रिस्तान में जाकर डरते-डरते भीतर झाँकने जाने की भी याद है। सफेद पुती हुई कब्रों की आड़ में कहीं कोई भूत या प्रेत छिपे होने के भ्रम और कल्पना की उत्तेजित पराकाष्ठा में भीतर जो थरथराहट हुई और डर से भागते हुए बच्चों के होठों से जो किलकारी फूट रही थी, उसकी अनुभूति आज भी शब्दातीत मालूम होती है।

आज जब यह कब्रिस्तान धरती पर सबदूर फैलता जा रहा है, और युद्ध की मदिरा से मत्त मनुष्य दुनिया में तबाही का तांडव करने में धुत्त हैं, ऐसे में क्या इस फूल को खिलते हुए कोई डर लगेगा? मैं यह सोचते हुए व्याकुल हो रहा हूँ। सहसा मैंने देखा वह पौधा हिला। उसके भीतर से मुझे आवाज़ सुनाई दी। वह हँस रहा था। उसने मुझसे पूछा - तुम इतने भयभीत क्यों हो? क्या तुम्हें एक फूल के खिलने में ज़िंदगी की ऊष्मा, उसकी सुगंध में प्यार की अमरता और इस चटकदार छोटी-सी रंगीन खुशी की ताकत महसूस नहीं होती! मैंने सुना वह अधखिला फूल कह रहा था, हाँ, मैं समूचा खिल जाना चाहता हूँ। मेरे लिए ज़िंदगी का मतलब एक क्षण है। एक भरा-पूरा क्षण। उसमें कुछ रिक्त नहीं हैं। इतना भरा हुआ क्षण है ज़िंदगी का जिसमें मृत्यु के विचार को भी घुसने का अवकाश नहीं है। मैं इस भरे पूरे क्षण का उत्सव हूँ। मैं एक उल्लास हूँ ज़िंदा होने का, इसके अलावा उल्लास के लिए और कौन-सा बड़ा कारण चाहिए।

मैंने कहा, इस उल्लास को ही तो महसूस करते हुए मैं चिंतित हूँ। और इस रंगीन उल्लास से भरे हुए क्षण को खरोंच डालने के लिए बढ़ रहे बर्फ़ीले हाथों की क्रूरता भरी मज़बूती को महसूस करते हुए मैं निरंतर चिंतित हूँ। क्या तुम्हें यह सब नहीं पता? इतनी बेफिक्री और इतनी बेखौफ़ी में तुम भला कैसे खिल सकते हो? इस भयानक समय में तुम कैसे खिलोगे? रक्तपान के लिए मुँह फाड़कर आगे बढ़ते हुए पिशाचों के सामने तुम अपनी मुस्कान का एक पल रख कर आखिर क्या साबित करना चाहते हो? मुझे तुम्हारे खिलने का कोई तो कारण बताओ। इस बार उस पौधे के भीतर से ज़्यादा ही आत्मविश्वास से भरी आवाज़ आई। ज़मीन पर बिछी हुई रेत की एक कंकड़ी मेरे पैर में चुभी तो उसने पूछा, पता है यह रेत क्या है? मैं उसके सवाल पर अचकचाया। मैंने कहा रेत है यह और क्या? सिर्फ़ रेत है यह।

मुझे उस पौधे के भीतर से हँसी की धमक सुनाई दी। वह बोला, यह जितने भी रेत के कण हैं, कभी ये पर्वत थे। इस धरती पर बहने वाले पानी की धाराओं ने इन पर्वतों को शताब्दियों तक काट-काट कर कण-कण रेत बना डाला है। पानी जितना कोमल है, उतना ही ज़्यादा कठोर भी है। वह पर्वतों को काटने वाली सबसे बड़ी कुल्हाड़ी है, परंतु तुम्हें कोमलता की ताकत का अंदाज़ा नहीं हैं, इसलिए तुम्हें कोमलता के कुचल जाने का भय लगता है। यही कोमलता तो कुचल-कुचल कर फिर जन्म लेती है। घास के मैदानों को युद्धांध बहादुरों के अश्वों ने कितनी बार कुचला है, पर हर बारिश में वही घास हमें गर्व से सिर ताने खड़ी मिलती है। उसे मिटाया नहीं जा सकता, आखिर क्यों? क्या कभी बारूद से चूर-चूर किया गया कोई पर्वत फिर उसी जगह दुबारा उठकर खड़ा हो पाता है? एक बार ध्वस्त होकर पर्वत की विशालता, कठोरता और ताकत फिर खड़ी नहीं हो सकती, हाँ तुम कोमल कोपलों को ध्वस्त कर दो, कुछ दिनों बाद वैसी ही हरी-भरी और तनी हुई वह वहीं मुस्कराती मिलेगी? आखिर क्यों?

मैं ध्यान से सुन रहा था। वह आवाज़ एक मामूली-से पौधे के भीतर से आ रही थी। सुन्दरता और कोमलता ज़िंदगी की ताकत है, जिसके बूते पर वह अमर रहती है, और बार-बार जन्म लेती है। मृत्यु कभी जीवन को मिटा नहीं पाती, क्यों कि मृत्यु का जन्म भी तो जीवन से ही होता है? जन्म लेने के लिये जीवन चाहिए। ये बारूद की गंध, ये मिसाइलों के धुवें, ये युद्ध, ये नफरतें, ये हत्याएँ, क्रूरताएँ ये सब मिल कर भी कभी रोक नहीं पाएँगी ज़िंदगी का कारवाँ। मुझे फूल की पंखुरी से हीरे की कणी काटने वाली ताकत पर पूरा भरोसा है, इसलिए हवाओं में लहराती हुई इन पराग ध्वजाओं के साथ मैं इस डाल पर फूल बनकर खिल जाना चाहता हूँ। मैं समझ गया, एक फूल खिलना चाहता है। और यह भी समझ गया कि वह क्यों खिलना चाहता है।

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