हास्य व्यंग्य

स्वादिष्टम रस निंदा रस
--डॉ. पवन कुमार खरे


सृष्टि की उत्पत्ति के पश्चात समाजीकरण की प्रक्रिया में वैचारिक आदान-प्रदान के पश्चात जब-तब किसी व्यक्ति या व्यक्ति के समूहों की स्वार्थ-सिद्धि न हो पाई, तब यह रस अंतर्मन में स्वतः ही पैदा हुआ होगा। इस रस के द्वारा पीड़ित व्यक्ति अपने मन के गुबार को बाहर निकालता है। कभी-कभी व्यक्ति की स्वार्थ-सिद्धि में जिसने बाधा पहुँचाई, उसी के विरोध में रस के माध्यम से वह अपने गुबार को बाहर निकालता है। कभी कोई व्यक्ति किसी के माध्यम से पीठ पीछे बुराई के द्वारा मन की आहत भावनाओं को व्यक्त करता है। कुछ भी हो प्राचीनकाल से लेकर वर्तमान समय तक और भविष्य में भी इसके अस्तित्व को समाप्त नहीं किया जा सकता।

हमारे हिंदी साहित्य के व्याकरणाचार्यों ने इस रस को पृथक से स्थान नहीं दिया, लेकिन प्रेम, शृंगार, वीर, रौद्र आदि रसों के साथ कहीं न कहीं उसे स्थान दिया गया है। विश्व के कण-कण में पाया जानेवाला यह रस अपनी तीक्ष्ण किरणों से सारे संसार को आहत कर रहा है। कोई भी ऐसा स्थान नहीं जहाँ पर इसकी तीक्ष्ण किरणें न पहुँचती हों। इस रस की उत्पत्ति के कई कारण हो सकते हैं, लेकिन मूल रूप से वैचारिक असमानता के होने से जब व्यक्तिगत स्वार्थ सिद्धि नहीं हो पाती, तब हम वास्तविक गुणों का मूल्यांकन न करके गलत रूप से किसी व्यक्ति का आकलन करने लगते हैं।

परिवार टूटने का कारण

हर परिवार में एक रस पाया जाता है। संयुक्त परिवारों का ध्रुवीकरण और विघटन इसी रस के द्वारा होता है। अहंवादी प्रवृत्तियों के पनपने से संकीर्ण स्वार्थ भावना जन्म लेने लगती है, त्याग की भावना नष्ट होती चला जाती है। आपसी खींचातानी के होते रहने से परिवार टूटने लगते हैं। निंदा रस इस टूटन की प्रक्रिया में उत्प्रेरक कार्य करता है।

हमारे सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक, साहित्यिक, धार्मिक एवं सांस्कृतिक क्षेत्र में इसने अपना महत्त्वपूर्ण स्थान बना लिया है। कोई भी शासकीय, अशासकीय संस्था हो व्यक्ति अपने अधिकारी या अन्य किसी की बुराई करते हुए समय काटते रहते हैं व अपना मनोरंजन करते रहते हैं। बुद्धिजीवियों के समूह जब एक साथ बैठकर किसी व्यक्ति की निंदा करते हुए आपस में चर्चा करते रहते हैं, तब हर एक बुद्धिवादी के अंदर से निकलनेवाली निंदा रस की किरणें, कहीं उनके अंतर्मन का वास्तविक प्रतिबिंब तो नहीं, यह उनको आत्मचिंतन करने के लिए बाध्य कर सकता है। इस कारण यह रस जितना स्वादिष्ट होता है, उतना ही कडुआ भी। बुद्धिजीवियों की मित्र-मंडली को इस रस का पान करने में बड़ा मज़ा आता है। सामूहिक निंदा में वे बुराइयाँ भी सामने आती हैं, जो निंदित व्यक्ति में नहीं होती हैं, लेकिन निंदक लोग बिना सोचे-समझे पता नहीं क्या-क्या कहते रहते हैं।

सामूहिक निंदा में कई लोग निंदित व्यक्ति के विभागीय कार्यों के साथ-साथ व्यक्तिगत जीवन पर भी छींटाकशी करने लगते हैं। कुछ भी हो किसी संस्था के कर्मचारियों द्वारा अपने अधिकारी की परोक्ष रूप से की गई निंदा बहुत कुछ स्वार्थ सिद्धि न होने का कारण होती है। निंदक कर्मचारी स्वयं उस अधिकारी की कुरसी पर बैठता है, तब वह भी उसी प्रकार का आचरण करता है, जैसा कि पूर्व अधिकारी किया करते थे, वह भी निंदा का पात्र बन जाता है। इस प्रकार इस रस के द्वारा स्वार्थी लोग अपना स्वस्थ या अस्वस्थ मनोरंजन करते हुए अपना उल्लू सीधा करते रहते हैं।

पवित्रता पर प्रश्न-चिन्ह

बड़े-बड़े राजवंशों को ध्वस्त करनेवाली इस ज़हरीली नागिन ने लोकमानस की पवित्र आस्थाओं पर भी प्रश्नचिह्न लगाए। भगवान राम के परिवार में कैकेयी का प्रेम राम और भरत के प्रति समान रूप से था, लेकिन मंथरा के द्वारा पैदा किया गया निंदा रस कैकेयी के पतन का कारण बना। राज परिवार टूट गया। भगवान राम के प्रति लोकमानस की आस्था को उस समय गहरा धक्का लगा, जब किसी धोबी ने सीता माता के सतीत्व पर यह गहरा लांछन लगाया, जब किसी धोबी ने सीता माता के सतीत्व पर यह गहरा लांछन लगाया कि 'छह माह तक वे रावण के दरबार की बंधक रहीं', लेकिन धोबी द्वारा फैलाया गया निंदा रस इस सच्चाई से बहुत दूर था, फिर राम को अपनी लोकप्रियता बनाए रखने हेतु मानवीय मूल्यों के रक्षार्थ सीता को त्यागना पड़ा। कभी कभी यह भी देखने को मिलता है कि कोई व्यक्ति दूसरे व्यक्ति द्वारा की गई किसी मानवीय भूल को नज़रंदाज़ न करके उसे बुरी तरह जलील करता है, निंदनीय शब्दों के द्वारा उसकी भावनाओं को ठेस पहुँचाता है, इस प्रकार हतोत्साहित करता है, जैसे वह स्वयं उस कार्य में पूर्णरूपेण पारंगत हो। उसकी निंदा करने में अंदर से प्रसन्नता होती है। इस प्रकार भावनाओं को ठेस पहुँचाने से उसका मनोबल टूट जाता है, और वह निराशावादी विचारों से घिर जाता है। पिता कभी-कभी अपने पुत्र को, बड़ा भाई छोटे भाई को, पति पत्नी को, अधिकारी अपने अधीनस्थ को जब किसी असफलता या मानवीय भूल से इस प्रकार ज़लील करते हैं, तब निंदित व्यक्ति के अंदर निंदक के प्रति घृणा, प्रतिशोध की भावना ही पैदा होती है, जो कि प्रत्यक्ष निंदा की तुलना में ज़्यादा खतरनाक साबित होती है। संयुक्त परिवारों के विघटन में प्रत्यक्ष निंदा उतनी उत्तरदायी नहीं जितनी परोक्ष निंदा।

प्रतिष्ठा से ईर्ष्या

वर्तमान की मशीनीकृत सामाजिक व्यवस्था में, हर एक व्यक्ति धनवान बनने की होड़ में प्रतिष्ठित पद पाने की प्रतिस्पर्धा में लग हुआ है। अपने नैतिक मूल्यों को तिलांजलि देते हुए येन-केन-प्रकारेण प्रतिष्ठित पद प्राप्त करना चाहता है। प्रतिस्पर्धा में सफल होनेवाले हर एक व्यक्ति को परोक्ष निंदा का शिकार होना पड़ता है। विजयी की सफलता पर बट्टा लगाना, अपनी असफलता की कमियों को छिपाना परोक्ष निंदा के माध्यम से ही होता चला आ रहा है।

भगवान बुद्ध ने निंदा रस को अपने जीवन में हमेशा के लिए त्याग देने का संदेश संसार को दिया था। जब कभी कोई व्यक्ति उनके पास आता था तो वे हमेशा उसकी अच्छाइयों को ही उजागर करने का प्रयास करते थे। अच्छाइयों के प्रकाश में बुराइयों का अंधकार अपने आप समाप्त हो जाता था।

हमारे चतुर्दिक जीवन में परोक्ष निंदा स्वस्थ मनोरंजन एवं समय काटने का अच्छा साधन माना जाता है। चारों और मारा-मारी, ठगा-ठगी के माहौल में हर व्यक्ति धनवान बनने की होड़ में पद-प्रतिष्ठा के लालच में एक-दूसरे को नीचा दिखाने में लगा हुआ है। अनैतिक एवं भ्रष्ट तरीके से धन कमाकर सत्य एवं न्याय को भूलता जा रहा है। निंदा का वृक्ष खूब फल-फूल रहा है। जब एक भ्रष्टाचारी दूसरे भ्रष्टाचारी की निंदा करता है, तब उसके पीछे सिर्फ़ धन का कारण रहता है। किसी व्यक्ति को प्रतिष्ठित कुरसी मिल जाती है, मिल पानेवालों का ह्रदय घृणा, द्वैष से धकने लगता है। ऐसे व्यक्तियों द्वारा विजयी व्यक्ति की निंदा वास्तविकता से बहुत कुछ परे भी हुआ करती है। वंचित व्यक्ति अपनी निर्योग्यता को छिपाने के लिए विजयी के ऊपर तरह-तरह के लांछन लगाता है, उसके विरोध में झूठा प्रचार करता है, भले ही विजयी ने सफलता प्राप्त करने के लिए अनैतिक साधनों को न अपनाया हो। पर निंदा अपनी कमियों की छिपाने का बहुत ही सशक्त माध्यम है। जब हम अपने प्रिय व्यक्ति की बुराई करते हैं, हमें उसके किसी अनचाहे कृत्य पर गुस्सा आता है, तब ऐसी निंदा चाहे प्रत्यक्ष हो अथवा परोक्ष, निंदित व्यक्ति के जीवन को सुधारने के लिए होती है। जब हम अपने प्रतिस्पर्धी की सफलता के कारण उसकी बुराइयाँ उजागर करते हैं, ऐसी निंदा सिर्फ़ हीन भावना के कारण ही होती है। उस समय हम अपनी कमियों को छिपाकर ऐसी बातें करते हैं।

आध्यात्मिक क्षेत्र में भी

धार्मिक एवं आध्यात्मिक क्षेत्र में भी यह एक अच्छी तरह व्याप्त हो चुका है। एक पंथ दूसरे पंथ की, एक संप्रदाय दूसरे संप्रदाय की, एक धर्म दूसरे धर्म की निंदा करने में लगा हुआ है। यह निंदा बड़ी घातक एवं भयानक है। धार्मिक क्षेत्र में व्यक्तियों की आस्था, विश्वास एवं भक्ति भावना को ठेस पहुँचानेवाली यह निंदा हिंसक रूप धारण कर लेती है। चंद स्वार्थी असामाजिक तत्वों द्वारा दूसरे धर्म के विरोध में किया गया कोई हिंसक कार्य बड़ा ही भयानक रूप धारण कर लेता है। लाखों निर्दोष मौत के मुँह से समा जाते हैं। आपसी प्रेम, दया, करुणा, सद्भाव जो कि हर धर्म के अंतरंग में समाये हुए हैं, लुप्त हो जाते हैं। मनुष्य बर्बर पशुतुल्य, वहशियाना हरकत करने लगता है। इस कारण धार्मिक क्षेत्र में निंदा रस बहुत ज़हरीला होता है।

कुछ भी हो निंदा रस के द्वारा हमें जो संतुष्टि एवं आनंद मिलता है, वह होता तो अस्थायी है, पर हमें अपने छिपे हुए गुबार को बाहर निकालने का मौका तो मिलता ही है। यदि हम अपने अंतर्मन में भी झाँकते जाएँ, तो शायद यह निंदा रस का स्वादिष्टतम आनंद किरकिरा होता जाएगा। हम बहिर्मुखी से अंतर्मुखी होते जाएँगे। महात्मा कबीर ने निंदक को अपना प्रिय बना देने की बात कही है, क्यों कि निंदक ही हमारे ह्रदय की कलुषता को धोकर निर्मल बनाता है।

निंदक नियरे राखिए, आँगन कुटी छुवाय
बिन पानी साबुन बिना, निर्मल करे सुहाय

२२ अगस्त २००८