इस
सप्ताह
समकालीन कहानियों में-
भारत से
से.रा.यात्री की कहानी
भीतरी जाले
मैंने अपने दरवाज़े पर एक नई
सेंट्रो कार खड़ी देखी तो एकाएक सोच नहीं पाया कि मुझसे कौन
बड़ा आदमी मिलने आ गया। फिर मुझे लगा जीने के दूसरी ओर जो
कॉलेज के प्राचार्य रहते हैं उनके यहाँ कोई आया होगा।
मैं दो-ढाई किलोमीटर दूर सब्ज़ी
मंडी की बेंच पेंच से निकलकर पैदल ही घर लौटा था। सब्ज़ी वगैरह
के दो भारी भरकम थैले मेरे दोनों हाथों को घेरे थे। मई का
दूसरा हफ्ता चल रहा था, कॉलेज की लंबी छुट्टियाँ शुरू हो चुकी
थीं। मैं सुबह घूमने के बहाने घर से निकलता था और हाट-बाज़ार
करते-करते दस ग्यारह बजे तक घर लौट आता था। आज मेरी हालत कुछ
ज़्यादा ही बदतर थी क्यों कि थैलों से दोनों हाथ बँधे होने से
गर्दन से पीठ की ओर बहते पसीने को
पोंछने की सुविधा नहीं थी। किसी तरह कांखते-कराहते मैंने जीने
की सीढ़ियाँ चढ़ी और दरवाज़े पर लगी घंटी का बटन दबाया। किवाड़
खोलने वाले को देखकर तो मैं दंग रह गया। मेरे मुँह से अनायास
निकला, ''अरे, शुक्ला तुम?''
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पवन कुमार खरे का व्यंग्य
स्वादिष्टतम रस
निंदा रस
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महानगर की कहानियों के अंतर्गत
सुकेश साहनी की लघुकथा दाहिना हाथ
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दीपिका जोशी
'संध्या' का
दृष्टिकोण
सही विचारना ही नहीं, व्यक्त
करना भी ज़रूरी है
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रवीन्द्र त्रिपाठी
की रंग चर्चा
हिंदी नाटकों में परिवार
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पिछले सप्ताह
डॉ नरेन्द्र कोहली का व्यंग्य
विदेशी
डॉ. सुषम बेदी का आलेख
प्रवासियों में हिन्दी-
दशा और दिशा
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प्रवेश सेठी के
संस्मरण और सुझाव
परदेस में इंटरनेट पर हिन्दी की खोज
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हिन्दी दिवस के अवसर
पर विशेष
हिंदी दिवस विशेषांक
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समकालीन कहानियों में- भारत से
रॉबिन शॉ पुष्प की कहानी
सिर्फ़ एक सवाल
जिस लट्टू की कील जितनी तीखी होगी, वह उतना ही सलीके से एक जगह घूमेगा...और
शायद, भैया के सवाल में भी कुछ वैसा ही तीखापन था। उसके हाथ में एल्यूमीनियम का
गिलास था। जिसका रंग जगह-जगह से उड़ गया था और जिसे देखकर, उसे खाज से बाल उड़े
कुत्ते की याद आती। और माँ के हरदम यह कहने पर कि मिट्टी
से साफ़ किया कर, वह जितना अधिक माँजता, उसके मन में गिलास के प्रति घृणा की परतें
उतनी ही अधिक जमती जातीं। कई बार उसने कहा भी... ''नया ला दूँ?''
''न, यह गिलास हम से तो मज़बूत है। अब आखिरी वक्त इसे क्या बदलना।''
और उसे बचपन याद आता। एक बार गिलास को लेकर ही, उसका झगड़ा हो गया था
बड़े भाई से। माँ ने पीतल का नया गिलास उसके हाथ से लेकर, भाई को दे
दिया था। उस वक्त उसकी छोटी-छोटी आँखों में नफ़रत और शिकायत के बदले,
बस गीलापन आ गया था...
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अनुभूति में-
राधेश्याम बंधु, चाँद शुक्ला हदियाबादी, राघवेंद्र तिवारी,
आलोक शर्मा और डॉ. जीवन प्रकाश सोनी
की रचनाएँ |
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कलम
गही नहिं हाथ
रमज़ान का महीना है।
अखबार विज्ञापनों से भरे हैं, मॉल सजावट से लकदक हैं और शाम
सड़कों पर इफ़्तारी की रंग-बिरंगी दूकानें रौनक बिखेरती है। दफ़्तरों
में जल्दी छुट्टी हो जाती है, स्कूल के समय में भी कटौती हुई है।
रमज़ान के महीने में शाम की दावतें भी चलती ही रहती हैं। बच्चे झुंड
बनाकर घरों में ईदी मांगने निकलते हैं। किसी के भी दरवाज़े की घंटी
बजा सकते हैं तब उन्हें एक दिरहम के सिक्के, टॉफी या चॉकलेट
देने का रिवाज़ है। कुछ न दो तो भी ठीक है पर उत्सव में शामिल होना
अच्छा लगता है। रमज़ान का महीना आधा निकल चुका है पर अभी तक हमारे
यहाँ कोई घंटी नहीं बजी है। शायद मुहल्ले के सब बच्चे बड़े हो गए हैं
या फिर समय के साथ ईदी माँगने की परंपरा पीछे छूट रही है। हमने
रमज़ान के प्रारंभ में चॉकलेट और एक दिरहम से सिक्कों से भर कर एक
काँच का कटोरा ड्राइंगरूम में रखा था। उसमें से कुछ भी खर्च नहीं हुआ
है। कल शाम एक मुस्लिम मित्र आए तो उनके बेटे को दो छोटी चाकलेटें
पसंद आ गईं। मेरे पति बोले, चलो किसी ने तो इस कटोरे का उद्धार किया,
इस बार ईदी माँगने वाले बच्चे अभी तक नहीं आए।"
मित्र बोले, "ईदी माँगने तो बच्चे
ईद की नमाज़ के बाद ही आएँगे। हम सोचने लगे कि इतने सालों से हम
इमारात में हैं और एक छोटी सी बात भूल गए। --पूर्णिमा वर्मन
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क्या
आप जानते हैं?
कि सदा-बहार
पौधा
बारूद
जैसे विस्फोटक को पचाकर उन्हें
निर्मल कर देता है। |
सप्ताह का विचार-
कोई मनुष्य दूसरे मनुष्य को दास
नहीं बनाता, केवल धन का लालच ही मनुष्य को दास बनाता है। –
पंचतंत्र |
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