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परदेस में इंटरनेट पर हिन्दी की खोज
प्रवेश सेठी
यह वर्ष २००३
की बात है। मैं एक इंजीनियर हूँ और समय से पूर्व ही कंपनी से
सेवानिवृत्ति लेकर कुछ करने की सोच रहा था कि मुझे ईरान की
कंपनी से एक विशेषज्ञ के बतौर कार्य करने का प्रस्ताव मिला।
मैं ईरान आ गया। पर यहाँ आ कर फारसी भाषा की समस्या आ गई।
जिसे सीखने में कंप्यूटर और इंटरनेट से बहुत मदद मिली।
इसी समय वेब दुनिया पढ़ने व
कुछ अन्य हिन्दी के साइट देखने के लिए इंटरनेट का प्रयोग
करना शुरू किया। अलग-अलग साइट्स पर अलग-अलग फॉन्ट इंस्टाल
करने की ज़रूरत होती थी। जब सुशा फॉन्ट से परिचित हुआ तो
बहुत खुशी हुई। सुशा के लिए प्रयुक्त कीबोर्ड रोमन कीबोर्ड
से कोई मुश्किल नहीं थी अत: मै वर्ड मे लिख लेता था पर अपना
लिखा किसी को भेजना दूसरी मुश्किल थी कि प्राप्तकर्ता के पास
सुशा फॉन्ट है या नहीं।
कंप्यूटर पर फारसी सिखाने
का कार्यक्रम के बाद मैंने इंटरनेट पर हिन्दी सिखाने वाले
साईटस की खोज शुरू की। खोज करते-करते भारत सरकार के सीडैक (CDAC)
साईट पर पहुँचा। पर यह काफी नहीं लगा। डॉ. आर के गुप्ता की
राजभाषा.काम ऐसी साईट मिली जो इंग्लिश माध्यम के द्वारा
देवनागरी वर्णमाला से परिचय कराती है और हर वर्ण का कैसे
उच्चारण किया जाए सिखलाती है। पर थोड़ा-सा ज्ञान देने के
पश्चात हिन्दी पढ़ने वालों को आगे सिखाने के लिए बन जाती है।
कुछ माह पश्चात अपने दोस्तों
से चर्चा करते करते मुंशी प्रेमचंद की कहानियों को याद कर
बैठा। सोचा जब शेक्सपियर का पूरा संग्रह पीडीएफ फार्म मे है
तो मुंशी जी का सुशा फॉन्ट मे ही सही कुछ तो मिलेगा। खोज
करने पर सीडैक के साइट पर जा पहुँचे। वहाँ मुंशी जी के कहानी
संग्रह और एक उपन्यास मिला जो, डाकुमेंट फार्मेट मे डाउनलोड
के लिए भी उपलब्ध था। आव ना देखा न ताव तुरंत डाउनलोड कर
लिया और अपने मित्र को भी ई-मेल कर डाला।
जब पढ़ने के लिए खोला तो पेज़
सेटिग कुछ ठीक नहीं लगी सो ठीक की। एक दो अशुद्धियाँ नज़र आई
तो सोचा कि वह भी ठीक कर ले। इसी बीच मित्र का धन्यवाद सहित
ई-मेल का जवाब भी आ गया कि उनकी वर्षों की तलाश पूरी हो गई।
न जाने कब से मुंशी जी को पढ़ने की चाह थी। मित्र की ई-मेल से
मैं चौंक पड़ा क्यों कि उनके कंप्यूटर पर तो कोई भी हिन्दी
फॉन्ट नहीं था और मुझे वहाँ जा कर फॉन्ट संस्थापित करने थे।
ध्यान दिया तो पाया कि मंगल फॉन्ट था जो मेरे लिए नया था। अब
चले मंगल फॉन्ट की जानकारी के लिए तो पता चला माइक्रोसोफ्ट
की साइट से। विन्डोज़ और ऑफिस में हिन्दी के प्रयोग के बारे
जानकारी मिली। कीबोर्ड के लिए इंडिक आइ एम ई डाउनलोड करने की
आवश्यकता थी सो वह भी डाउनलोड कर ली। संस्थापित करने पर
कीबोर्ड की सुशा की तरह ही मालूम पड़ा। इसके साथ ही यूनिकोड
के बारे में भी पता चला।
मुंशी जी के कथा संग्रह के
बाद तो मुझे देवनागरी मे लिखी कहानियों कविताओं आदि की तलाश
होने लगी। वर्षों से हिन्दी से दूर रहने के बाद कंप्यूटर पर
वह भी विदेश में एक नया ही शौक जागा था। तलाशते-तलाशते
अभिव्यक्ति की साइट पर जा पहुँचा। मेरी पसंद की प्रथम हिन्दी
पत्रिका, जो उस समय सुशा फॉन्ट मे थी, ने मेरा यह विश्वास
जगाया कि जल्दी ही हिन्दी के साहित्य को इंटरनेट उचित स्थान
दिलवाएगा। हालाँकि वेबदुनिया, हिन्दी नेस्ट तथा कई
समाचारपत्रों ने इंटरनेट पर हिन्दी की शुरुआत की पर फॉन्ट की
वजह से ऑन–लाइन ही उपयुक्त थे और इंटरनेट आम आदमी की पहुँच
से काफी दूर था।
मुझे इंटरनेट पर कम समय
मिलता था इसलिए मैं ऑफ लाइन पढ़ने के लिए पृष्ठ सुरक्षित कर
लेता हूँ। विकिपीडिया में हिन्दी की कुछ प्रगति देखी और
हिन्दी के बारे में कुछ लेख पढ़े। अब तक ब्लागर्स ने भी कई
तकनीकी मुश्किलों का सामना किया और हल ढूँढ़े। नए लेखकों को
निश्चय ही एक नया रास्ता मिला। हिन्दी का संजाल पर विस्तार
भी हुआ। पर अभी भी हम भारतीय टीका टिप्पणियों में समय बिताते
लगते है। यदि हम जानकारी प्रधान लेखों के अनुवाद कर ब्लागों
पर छापने की बजाय सीमित पत्रिकाओं मे इकठ्ठा कर पेश करें तो
बेहतर होगा।
इस संबंध में डॉ. नवीन
प्रकाश सिंह 'नवीन' के निम्नलिखित विचार गौर करने लायक हैं।
''हिन्दी अनौपचारिक रूप से हमारे देश की संपर्क भाषा है।
उत्तर भारत के लगभग सब लोग हिन्दी जानते हैं। दक्षिण भारत
में भी लगभग ३० प्रतिशत लोग हिन्दी जानते हैं और मोटे तौर पर
८० करोड़ लोग हिन्दी से परिचित हैं फिर भी हमारे देश में
हिन्दी का कोई भविष्य नहीं है क्यों कि हम अंग्रेज़ी मानसिकता
के गुलाम हैं। जब तक सरकार द्वारा विज्ञान विषयों में उच्च
शिक्षा, चिकित्सा, प्रौद्योगिकी जैसे व्यावसायिक पाठ्यक्रमों
की पढ़ाई हिन्दी माध्यम में नहीं होती अर्थात जब तक हिन्दी
को रोजी-रोटी से नहीं जोड़ा जाता तब तक हिन्दी में विज्ञान
लेखन की बात करना बहुत सार्थक सिद्ध नहीं होगा।''
हिन्दी को अनौपचारिक रूप से
हमारे देश की संपर्क भाषा बनाने में सबसे बड़ा योगदान हिन्दी
सिनेमा व टी. वी. के मनोरंजन कार्यक्रमों ने दिया है पर
विज्ञान की उच्च शिक्षा, चिकित्सा, प्रौद्योगिकी जैसे
व्यावसायिक पाठ्यक्रमों की पढ़ाई के लिए हिन्दी माध्यम
समृद्ध नहीं हो पाया है। इन क्षेत्रों मे मौलिक लेखन व
अनुवादकों की अपनी ही समस्याएँ हैं जैसे कि माध्यम हिन्दी ना
होने से इनको प्रकाशक नहीं मिलते। इनको उतना मेहनताना नहीं
मिलता जितना इंग्लिश में कम मेहनत करके लिखने पर भी मिल जाता
है। दूसरा कारण उचित शब्दकोशों की कमी। शब्दकोश तो पढ़ने
वालों के लिए भी ज़रूरी हैं।
विश्व के कई ऐसे देश हैं
जहाँ अंग्रेज़ी सिर्फ़ उन विशेषज्ञों को सिखलाते हैं जिन्हें
दूसरे देशों में कार्य करना होता है, व्यापार करना होता है।
अंग्रेज़ी-मोह से मुक्त देशों की सफलता का कारण समझना कठिन
नहीं है। वहाँ अंग्रेज़ी की पुस्तकों का स्वदेशी भाषा में
अनुवाद करके उस ज्ञान को जन-साधारण के लिए सुलभ कर देते हैं।
जो छात्र उच्चतर अध्ययन के लिए विदेश जाना चाहते हैं, अथवा
जो दूसरे कारणों से अंग्रेज़ी में रुचि रखते हों, केवल वे ही
अंग्रेज़ी पढ़ते हैं। शेष छात्र इस भार से लगभग मुक्त रहते
हैं।
हम भारतीयों की एक और कमी
है कि हम मिल कर नहीं बल्कि अकेले अकेले कार्य करते है। कभी
किसी ने कुछ कार्य किया तो उसे वाह वाह से लाद देंगे या उसकी
आलोचना कर डालेंगे। जब तक हम आपस में मिल कर कार्य नहीं
करेंगे तो हम समृद्ध नहीं हो पाएँगे। हिन्दी को इंटरनेट पर
फैलाने में हमारे ब्लागरों ने काफी कार्य किया है उनकी
निशुल्क मदद का उनको बहुत बहुत धन्यवाद।
- मेरे कुछ सुझाव हैं।
हम भारत सरकार के साथ मिलकर एक संस्था के रूप में हिन्दी
को जन-जन तक आई टी तकनीक का पूरा पूरा फ़ायदा उठाते हुए
निशुल्क ऑफ-लाइन प्रयोग के लिए पहुँचाए।
-
भारत एक सूत्र मे बाँधे
रखने के लिए उत्तर भारत की शिक्षा-प्रणाली में कुछ ऐसा
नितांत आवश्यक है, जैसे कि हर माध्यमिक स्कूल में छठी
कक्षा से एक दक्षिण भारतीय भाषा पढ़ाने की व्यवस्था हो।
ऐसा होने पर उत्तर-दक्षिण का भाषायी वैमनस्य जाता रहेगा और
तद्जनित सद्भाव के वातावरण में सहज ही हिन्दी को दक्षिण
भारत में स्वीकृति मिलेगी।
-
हम विकिपीडिया पर पाँचवी
कक्षा तक बराबर हिन्दी ज्ञान की जानकारी इंग्लिश, तमिल,
तेलुगु, मलयालम, कन्नड़ जानने वालों के लिए निशुल्क
डाउनलोड की जाने वाले फार्म में करे। इसके लिए केन्द्रीय व
राज्य शिक्षा मंत्रालयों व अध्यापक वर्ग को आमंत्रित किया
जाय।
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हर सरकारी मंत्रालय ने
अपने विभागों मे हिन्दी के लिए हिन्दी-इंग्लिश शब्दकोश
जारी किए हुए हैं। इनको संग्रहित किया जाए और ऑफ लाइन
प्रयोग के लिए हिन्दी-इंग्लिश शब्दकोश का निःशुल्क डाउनलोड
का प्रबंध किया जाए। केन्द्रीय मंत्रालयों से सहयोग माँगा
जाय।
-
उच्च शिक्षा, चिकित्सा,
प्रौद्योगिकी जैसे व्यावसायिक शिक्षा के लिए विश्वविद्यालय
की सहायता से और व्यावसायिक उपक्रमों से अनुदान से लेकर
किया जाए।
- प्रयोगकर्ता को शब्दकोश
मे अपने द्वारा एकत्रित किए शब्द उसमें डालने की सुविधा
होनी चाहिए। सीडैक से ऑफ लाइन प्रयोग के लिए
हिन्दी-इंग्लिश शब्दकोश तैयार करने का कार्य सौंपा जाए।
-
सीडैक से ऑफ लाइन प्रयोग
के लिए इंग्लिश से हिन्दी के अनुवादक निशुल्क उपलब्ध कराए।
जो कि जनसाधारण भी इंटरनेट पर उपलब्ध जानकारी को अनुवादित
कर अपने, अपने बच्चों, अपने मित्रों देकर जनसाधारण को
मानसिक विकास मे सहायक हो सके। www.language.org पर हिन्दी
शब्दावली डालने के लिये उनसे सहयोग किया जाए व उसका सही
प्रचार किया जा सके। समाचार पत्र व हिन्दी पत्रिकाओं की
टीम इसे बड़ी आसानी से कर सकती है।
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निःशुल्क हिन्दी ज्ञान
की जानकारी विदेशियों को भारत के जानने और टूरिज़्म को
बढ़ावा देने में सहायक होगा।
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विश्वविद्यालय पर ज़ोर
डाले कि अपने और विदेशी विश्वविद्यालयों में किए गए शिक्षण
कार्यों (अँग्रेज़ी और हिन्दी में शिक्षा) का इंटरनेट पर
निशुल्क वितरण इस तरह करें कि हर कोई विषय मे अपनी रुचि
जाग्रत कर उच्च शिक्षा के लिए अपने विषय चुन सके और अपने
को रोज़गार के लायक बना सके। शिक्षा संस्थानों में प्रवेश
लेने के पश्चात उसे महँगी किताबें खरीदने के लिए परेशान न
होना पड़े। वह किताबों, नोट्स आदि की सीडी विश्वविद्यालय /
कालेज से लेकर शिक्षा प्राप्त कर सके।
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सरकारी मंत्रालयों के
सचिव अपने अपने हिन्दी प्रचार विभागों को भारत सरकार के
सीडैक के साथ मिल कर एक ऐसा हिन्दी – इंग्लिश / इंग्लिश –
हिन्दी – यूनिकोड ऑफ–लाइन प्रयोग के लिए) शब्दकोश बनाने को
कहें जिसे जनसाधारण भी प्रयोग कर सके और उसमें बिना किसी
सहायता कि विस्तार कर सके अर्थात इंग्लिश – हिन्दी के शब्द
जोड़ सके। और इसे इंटरनेट पर निशुल्क डाउनलोड पर रखें।
अंतर्राष्ट्रीय संपर्क के लिए अभी कई भाषाएँ हमसे आगे हैं
लेकिन हम भारतीय एक दूसरे की आलोचना करना छोड़ एक दूसरे के
अच्छे गुणों को पहचाने, उसको बढ़ावा दें, सुझाव दें,
शिक्षित करें। यदि उस की जानकारी में कोई कमी रह गई हो तो
उसे अवगत कराएँ। यही हमारी संस्कृति की विजय होगी।
१५ सितंबर
२००८ |