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जिस लट्टू की कील जितनी तीखी होगी, वह उतना ही सलीके से एक जगह घूमेगा...और
शायद, भैया के सवाल में भी कुछ वैसा ही तीखापन था। उसके हाथ में एल्यूमीनियम का
गिलास था। जिसका रंग जगह-जगह से उड़ गया था और जिसे देखकर, उसे खाज से बाल उड़े
कुत्ते की याद आती। और माँ के हरदम यह कहने पर कि मिट्टी
से साफ़ किया कर, वह जितना अधिक माँजता, उसके मन में गिलास के प्रति घृणा की परतें
उतनी ही अधिक जमती जातीं। कई बार उसने कहा भी... ''नया ला दूँ?''
''न, यह गिलास हम से तो मज़बूत है। अब आखिरी वक्त इसे क्या बदलना।'' और उसे बचपन
याद आता। एक बार गिलास को लेकर ही, उसका झगड़ा हो गया था बड़े भाई से। माँ ने पीतल
का नया गिलास उसके हाथ से लेकर, भाई को दे दिया था। उस वक्त उसकी छोटी-छोटी आँखों
में नफ़रत और शिकायत के बदले, बस थोड़ा-सा गीलापन आ गया था... और यही गीलापन अब घर
का जैसे एक अंग बन गया है। एक ऐसा अपाहिज हिस्सा, जिसे न काटा जा सकता है, न रखा जा
सकता है... केवल ढोया जा सकता है। परसों भाभी कह भी रही थीं, ''एपेंडिक्स हुआ था,
तो कटवा दिया, बहुत संतोष मिला। आजकल इसे हर कोई कटवा देना ही बेहतर समझता है।
बेकार हिस्सा है, रखकर भी क्या फ़ायदा। मगर कुछ एपेंडिक्स तो...। और वे उसे देखकर
आगे बढ़ गई। चूल्हा में ढेर-सा कोयला ठूँस दिया।
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