हास्य व्यंग्य

विदेशी
डॉ. नरेन्द्र कोहली


मैं निरंतर हिंदी में बोल रहा था और रामलुभाया था कि मेरे प्रश्नों के उत्तर अंग्रेज़ी में दिए जा रहा था। मैं जानता था कि हम भारत की संसद में नहीं बैठे थे, जहाँ संविधान के अनुसार नियमत: प्रश्न का उत्तर उसी भाषा में दिया जाना चाहिए, जिस में प्रश्न पूछा गया हो। हम अपने घर में बैठे थे, फिर भी कोई कारण नहीं था कि हम अंग्रेज़ी बोलते। ...रामलुभाया की ज़्यादती कुछ देर तो चलती रही। किंतु जब मैं सहन नहीं कर पाया तो बोला, ''क्या बात है रामलुभाया! तुम मेरे प्रश्नों के उत्तर एक विदेशी भाषा में दिए जा रहे हो, जबकि हम दोनों ही भारतीय हैं।''
रामलुभाया को मेरी बात पसंद नहीं आई। जाने क्या बात है कि भारत के इस अंग्रेज़ीभाषी वर्ग को जब भी याद दिलाया जाता है कि वे भारतीय हैं, उन्हें अच्छा नहीं लगता। मैं यह भी जानता था कि यदि मैं अधिक दबाव डालूँगा तो वह कह दे गा कि उसे हिंदी नहीं आती। जो लोग यह कहते हैं कि उन्हें हिंदी नहीं आती, वे यह मानते हैं कि हिंदी न जानना दोष नहीं है, इसीलिए उन्हें हिंदी सीखने का प्रयत्न करने की आवश्यकता नहीं है, किंतु यदि मुझे अंग्रेज़ी नहीं आती, तो वह मेरा दोष है। मुझे अंग्रेज़ी जानने का प्रयत्न करना चाहिए।
रामलुभाया कुछ देर मेरी ओर देखता रहा फिर बोला, ''मेरे लिए हिंदी भी एक विदेशी भाषा है।''
मैं स्तब्ध रह गया। यह व्यक्ति इस देश की राष्ट्रभाषा को एक विदेशी भाषा कह रहा था। इस का क्या है, यह तो कल दिल्ली को भी विदेश कह देगा, कश्मीर का तो कहना ही क्या।
''हिंदी विदेशी भाषा कैसे हुई?'' मैंने पूछा।
''मैं ने यह नहीं कहा कि हिंदी विदेशी भाषा है।'' मेरे तेवर देख कर वह कुछ सँभल गया, ''मैंने कहा है कि हिंदी मेरे लिए विदेशी भाषा है।''
''क्यों?''
''क्योंकि मुझे हिंदी आती नहीं।''
''जो भाषा तुम को नहीं आती, वह भारत के लिए विदेशी भाषा हो गई?'' मैंने उसे डाँटा, ''तुम स्वयं को भारत माता समझते हो क्या? इस देश की इतनी सारी भाषाओं में से तुम्हें एक भी नहीं आती और तुम अंग्रेज़ की संतान बने केवल अंग्रेज़ी पढ़ते रहते हो तो ये सारी भाषाएँ विदेशी हो जाएँगी?''
''मैं यह नहीं कह रहा।'' वह खीझ कर बोला, ''मैं ने कहा है कि...''
''कहा है तुम ने अपना सिर।'' मैं बोला, ''तुम आधा जीवन विदेश में रहे। अब भी साल में से छह महीने विदेश में घूमते हो। यूरोप अमरीका तुम्हें अपने देश जैसे लगते हैं।''
''हाँ।'' वह बोला।
''तो तुम्हें तो मथुरा काशी भी विदेश में ही लगते हों गे। रामेश्वर और केदार भी तुम्हारे लिए विदेशी ही होंगे।''
''हाँ! हाँ!'' वह चिल्ला कर बोला।
''तो इस से यह सिद्ध हुआ रामलुभाया! कि तुम इस देश के लिए विदेशी हो।'' मैं बोला, ''क्या स्वदेशी है और क्या विदेशी, उसे भारत की भूमि तय करेगी, तुम जैसा कोई विदेशीकृत मन और मस्तिष्क नहीं। अरविंद घोष इंग्लैंड में रहे। जब भारत आए तो न उन्हें संस्कृत आती थी, न बांगला। उन्होंने यह नहीं कहा कि वे भारतीय हैं और बांगला और संस्कृत विदेशी भाषाएँ हैं।। उन्होंने वे भाषाएँ सीखीं और स्वयं को भारतीय बनाया। तुम भी स्वयं को थोड़ा भारतीय बनाने का प्रयत्न करो।''
''मेरा तात्पर्य वह नहीं है।'' वह बोला, ''मैं हिंदी भाषी नहीं हूँ। मैं इस देश की कोई दूसरी भाषा जानता हूँ। हिंदी मेरे लिए विदेशी है।''
''यही तो कह रहा हूं मैं कि विदेशी और स्वदेशी का वर्गीकरण तुम्हारे ज्ञान आज्ञान से नहीं होगा।'' मैंने कहा, ''मैं इस देश की मुख्य पच्चीस भाषाओं में से केवल पाँच जानता हूँ। शेष बीस से मेरा परिचय नहीं है, किंतु मेरे न जानने से वे विदेशी तो नहीं हो जाएँगी।''
''तुम हिंदी वाले समझते तो हो नहीं।'' वह गाली देने पर उतर आया, ''यह अंग्रेज़ी का एक मुहावरा है, इट इज फारेन टू मी। अर्थात यह मेरे लिए अपरिचित है।''
''जानता हूँ, यह मुहावरा भी।'' मैंने कहा, ''हिंदी वाले होते हुए भी और बहुत-सी भाषाएँ सीख लेते हैं हम। और मुहावरे के अर्थ में भी तुम को यह कहने का अधिकार नहीं है कि इस देश की कोई भाषा विदेशी है। जो भारत का है, वह भारत का रहेगा। तुम भारतीय नहीं रहे हो, तो यह देश तुम्हारे अनुसार स्वयं को ढालने के लिए बाध्य नहीं है। बदलना है तो तुम्हीं को बदलना है अन्यथा तुम स्वयं को अमरीकी कहने को स्वतंत्र हो।''

१५ सितंबर २००८