इस
सप्ताह
समकालीन कहानियों में-
भारत से
अमर गोस्वामी की कहानी
दलदल
मयंक जी शब्दों के कारीगर थे।
बहुत अच्छे कारीगर। शब्दों को गढ़ते, छीलते, काटते, तराशते।
उन्हें रूप देते। कई तरह के रूप। शब्दों से वे फूल खिलाते।
प्रकृति के रहस्यों को बूझने की कोशिश करते। उनके शब्द ग़रीबों
के घरों में जाकर उनके आँसू पोंछ आते, लाचारों की लाठी बनकर
खड़े होते। मयंक जी की कोशिश होती कि उनके शब्द सहारा बनें।
अपने कवि की इसी में सार्थकता समझते थे। मयंक जी शब्दों से हर
प्रकार का भाव जगा सकते थे। उनके
शब्दों से होकर जो गुज़रता, वह कभी हँसता तो कभी रोता। उनके
शब्दों से कभी अज़ान की आवाज़ सुनाई देती थी तो कभी मंदिर की
घंटियों की। मयंक जी उन व्यक्तियों में थे जिनके लिए शब्द
पवित्र होते हैं। वे शब्दों से प्रेम करते थे, उनसे नेताओं की
तरह खेलते नहीं थे। शब्दों की दुर्दशा होते देखते तो वे खून के
आँसू रोते। शब्दों के
संसार के मयंक जी का असली नाम अशर्फीलाल था।
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ज्ञान चतुर्वेदी का व्यंग्य
मूर्खता में ही होशियारी है
*
कृष्ण कुमार यादव का
आलेख
साझी विरासत की कड़ी- कुर्रतुल ऐन हैदर
*
घर परिवार में
अर्बुदा ओहरी प्रस्तुत कर रही हैं
कहानी कॉफ़ी की
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साहित्य समाचारों
में
नॉर्वे,
भारत और
इमारात
से नए
समाचार
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पिछले सप्ताह- मनोहर पुरी
का व्यंग्य
आप स्वर्ण पदक क्यों लाए
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लोक संस्कृति में डॉ
वीणा छंगानी का आलेख
राजस्थानी
कहावतों के तीखे बाण
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स्वाद और स्वास्थ्य में
फलों का फलित
*
रचना प्रसंग में पूर्णिमा वर्मन का आलेख
ऐ भाई, ज़रा देख
के लिखो
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समकालीन कहानियों में-
यूएसए से
सौमित्र सक्सेना की कहानी
लड़ैती
''वो
तो अपने मियाँ की लड़ैती है।'' माँ ने मुस्कान के साथ, चद्दर झाड़ते
हुए कहा।
''लड़ैती बाप की होती है लड़की या पति की?'' पिता पास में चलते हुए आ
गए और शयनकक्ष की एक कुर्सी पर पसर गए। ''जो लाड़ करे, वो उसकी
लड़ैती। इसमें बाप-पति कहाँ से आ गए। क्या मैं आपकी लड़ैती नहीं
हूँ?'' माँ को अपने पुराने दिन याद आ गए जैसे। वह नज़रें तिरछी करके
प्यार की उम्मीद में उनकी तरफ देखने लगी।
''सही बात है।'' पिता ने कोई विरोध नहीं किया।
''याद करूँ तो, मैं जब ब्याह के आई तो कुल सत्रह की थी। बी. ए. फस्ट
इयर के इम्तहान भी पूरे नहीं किए थे कि बाबू जी ने कहा, ''तुझे लड़के
वाले देखने आ रहे हैं।'' मुझे लगा था कि मेरा सारा जीवन किसी
अनजानी राह पर निकलने वाला है। पर देखो, बाद में सब ठीक हो गया। बचपन
तो जैसे हवा की तरह छूने आया और चला गया। |
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अनुभूति में-
गणेश गंभीर, मानोशी चैटर्जी,
नागार्जुन, मीना चोपड़ा और नरेश अग्रवाल की रचनाएँ |
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कलम
गही नहिं हाथ
बीजिंग ओलंपिक में भारतीय खिलाडी अपने देश का नाम रौशन कर रहे हैं।
अभिनव बिंद्रा, सुशील कुमार और विजेन्द्र कुमार ने अपने अपने खेलों
में भारतीय ध्वज फहराया, यह हर भारतीय के लिए गर्व की बात है।
अभिव्यक्ति परिवार की ओर से हार्दिक बधाई।
इस सप्ताह हम कथा महोत्सव की भी घोषणा कर रहे हैं। विस्तृत विवरण की
कड़ी इसी पृष्ठ पर बीच के स्तंभ में है। पाठकों और लेखकों से निवेदन है
कि भाग लेकर इस प्रतियोगिता को सफल बनाएँ। वेब पर अपनी नियमित
उपस्थिति दर्ज करने का इससे बेहतर रास्ता और कोई नहीं।
नियमों का ध्यान पूर्वक पालन करें। विशेष रूप से कहानी की शब्द संख्या और
काग़ज़ के आकार का।
चुटकुले हास्य-व्यंग्य की एक महत्वपूर्ण शैली हैं, पर अच्छे चुटकुलों की कमी के
कारण इन्हें साहित्य में वह स्थान नहीं मिल सका है जो मिलना चाहिए।
इस विचार से चुटकुलों का एक नियमित स्तंभ आरंभ किया जा रहा हैं-
हास परिहास प्रस्तुत कर रहे हैं शारजाह के कुलभूषण व्यास। वे मंच और रेडियो के
लोकप्रिय सूत्रधारों में से हैं, साथ ही साहित्य के अनन्य साधक
भी हैं। आशा है यह स्तंभ पाठकों को रुचेगा। इस सबके विषय में आपकी
राय हमारे लिए महत्वपूर्ण हैं, ई-पत्रों की प्रतीक्षा रहेगी। पता ऊपर है ही।
- पूर्णिमा वर्मन
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क्या
आप जानते हैं?
कि गुड़हल की दो सौ से अधिक प्रजातियाँ होती है और इसका उपयोग
केश-तेल से लेकर चाय तक अनेकों वस्तुओं में होता है। |
सप्ताह का विचार-
जिस प्रकार नेत्रहीन के लिए दर्पण
बेकार है उसी प्रकार बुद्धिहीन के लिए विद्या बेकार है। -
प्रेमचंद |
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