भाषा और साहित्य में
सुन्दरता एवं सजीवता लाने के लिए कहावतों का प्रयोग युगों
से होता आ रहा है। साहित्य को सलौना बनाना हो तो इन
कहावतों का ही सहारा लेना पड़ता है। इन कहावतों की जननी
मनुष्य जीवन की समस्याएँ है। एक पंड़ित जिस तरह अपनी बात
का प्रभाव डालने के लिए वेद, गीता आदि का उदाहरण देता है
उसी तरह साधारण व्यक्ति भी अपनी बात इन कहावतों से पक्की
करता है।
राजस्थानी
कहावतें बड़ी अमूल्य है। जनजीवन के व्यवहार कुशलता की
कुंजियाँ हैं। एक कसौटी है जो सच्चे खरे को पहचानती है।
मानव मात्र का स्वभाव कुछ ऐसा होता है कि वो अपने सामने
किसी को कुछ समझता ही नही। मानो ईश्वर ने पैदा होने से
पहले उसे सूचित कर दिया हो कि इस संसार में मैंने तुमसे
अधिक बुद्धिमान व्यक्ति नहीं भेजा है। ऐसे व्यक्ति को
समझाने के लिए राजस्थान में कहा जाता है 'लूण कैवे मनै ई
सीरे में डालो' यानी नमक का कहना है कि मुझे भी हलवे में
डालो। अनुचित बात की खिल्ली उड़ाने के लिए कहा जाता है कि
'राबड़ी कैवे मनै ई दांता सूं खावो' अर्थात राबड़ी का कहना
है कि मुझे भी दाँतों से खाओ। इस तरह ड़ींगें मारने वाले
को उसकी कमज़ोरी दिखाकर निरुत्तर कर दिया जाता है।
ग्रामीण लोग तो बात-बात
में इन कहावतों का उपयोग करते हैं। स्वार्थी प्रेम के लिए
उनके पास कहने को है कि 'खर्ची खूटी और यारी टूटी' धन पास
में नहीं है तो मित्रता भी नहीं।
मैथिली शरण गुप्त ने कहा है, 'एक नहीं दो दो मात्रा, नर से
भारी नारी'। हमारे देश में प्राचीन काल से नारी का आदर
किया जाता है। राजस्थानी कहावतों में नारी के लिए कहा गया
है कि 'नारी नर री खान', 'नारी को तो एक ही चोखो, सूरी का
बारह भी के कार रा' पहली में नारी को नर रूपी रत्न की खान
कहा गया है तो दूसरी में नारी की कुक्षी की प्रशंसा की गई
है। जहाँ नारी में सभी गुण वहाँ अवगुण भी व्याप्त है-
''तेरा गमाया घर गया, ऐ कांदा खानी नार।'''
अर्थात ऐ कांदे खाने वाली नारी तेरे उजाड़ने से ही घर
उजड़ता है।
किसान खून पसीना एक करके मेहनत करता है लेकिन उसकी कमाई
उसके परिवार के लिए न हो कर बनिये के लिए होती है।
'करसौ रात कमावै, बणिया रा बेटा सारू।'
जाति विशेष पर कही गई कहावतें भी अपना खास स्थान रखती है।
जाट जाति के लोग अपनी अक्खड़ता और हाजिर जवाबी के लिए
प्रसिद्ध है। एक नट व्यक्ति पानी का घी बना कर भोले भाले
लोगों को ठग रहा था। कह रहा था कि यह घी है जो सारी चीज़ों
को स्वादिष्ट बना देता है। इस पर जाट तुरन्त बोला 'तम्बाकू
बणाय ले' तब ठगों ने खिसिया कर कहावत बनाई 'जाट बुद्धि नीं
आवे'। राजपूत जाति राजस्थान की शान है। इनके लिए कहा जाता
है कि 'रण खेती रजपूत री'।
हर कहावत अपने में कोई न
कोई घटना को लिए होती है जो जीवन में घटित हो कर अपना कोई
संकेत छोड़ देती है। कहावत है 'कात्यौ पीत्यौ कपास' इसके
पीछे कहानी कुछ इस प्रकार है- कहते हैं कि एक किसान की
स्त्री बड़ी कामचोर थी, वह खेत में जाकर काम नहीं करना
चाहती थी। इसलिए काम से बचने के लिए नित नए बहाने बनाती।
एक बार किसान के खेत की फसल सोना बनने आई, लेकिन किसान
अकेला फसल काटने में असफल हो रहा था। उसने जब अपनी स्त्री
को खेत में चलने को कहा तो उसने बहाना बना दिया कि मैं तो
घर पर ही रह कर कपास कातूँगी तुम अनाज का इंतज़ाम करो।
बेचारा किसान अकेला ही फसल काटने में जुट गया। बहुत दिनों
के बाद जब किसान ने कटी हुई फसल का हिसाब माँगा तो उसकी
स्त्री घबरा गई क्यों कि उसने कपास तो काता ही नहीं था।
परेशान हो कर उसने अपने पड़ौसी से मदद माँगी। पड़ौसी उसी
रात एक खाली पीपा और लाठी ले कर खेत में पहुँच गया। खेत पर
जाकर ज़ोर-ज़ोर से पीपा बजाने लगा और लाठी को रेत पर पटकने
लगा यह सब देख कर किसान घबरा गया उसने जब पूछा कि तुम कौन
हो तो पड़ौसी बोला --
गड़गड़ ठया मेघमाला,
कठै गया खेतां रा रखवाला,
का मारू लुगाई का किसान
का करू कात्यौ पीत्यौ कपास।
यानी मैं गर्जन करने वाला
मेघ हूँ ,खलियान का रखवाला कहाँ है, मैं या तो उसको
मारूँगा या उसकी स्त्री को या फिर स्त्री द्वारा काते हुए
कपास को फिर से सूत बना दूँगा। किसान घबरा कर बोला आप हमें
न मारे चाहे तो काते हुए कपास को सूत बना दें। उसी दिन से
काम बिगड़ जाने पर कहा जाता है कि काता पीता कपास हो गया।
राजस्थान में रहने वाली हर जाति के स्वभाव को इंगित करती
एक कहावत देखिए-
''राजपूत रो घोड़े में, बांणिये रो रौड़े में,
जाट रो लपौड़े में धन जावै।''
अर्थात राजपूत का धन घोड़े ख़रीदने में, बनिये का धन झगड़े
में और जाट का धन खाने में समाप्त होता है।
अंधविश्वास तो राजस्थान
के कण-कण में भरा पड़ा है। हर शकुन-अपशकुन के लिए यहाँ
हज़ारों कहावतें भरी पड़ी हैं-
''खर डावा विस जीवणा'' यानी गधा बायीं ओर एवं साँप आदि
विषधारी जीव दायीं ओर यात्रा के समय रास्ते में आ जाए तो
अच्छा होता है।
मौसम का संकेत देने वाली
कहावतें की तो जैसे भरमार है--
अक्खा रोहण बायरी, राखी सरबन न होय,
पो ही मूल नहोय तो, म्ही डूलंती जोय।।
अक्षय तृतीया पर रोहिणी नक्षत्र न हो, रक्षाबंधन पर सावन
नक्षत्र न हो और पोष की पूर्णिमा पर मूल नक्षत्र न हो तो
संसार में विप्पत्ति आती है। इसी तरह कहा गया है कि अगस्त
उगा, मेह पूगा यानी अगस्त्य का तारा उदय होने पर वर्षा का
अंत समझना चाहिए।
कहना ठीक होगा कि ये
कहावतें न केवल मानव जगत को सीख देती है बल्कि नीति
शास्त्र की तरह जीवन के समस्त कार्य कलापों पर आधारित है।
यह मानव जीवन में व्यवहार की सत्यता को प्रकट करती है। इस
दृष्टि से राजस्थानी भाषा बड़ी भाग्यशाली है जिसका भंड़ार
कहावतों से समृद्ध है। या यों कह लिजिए ये धरती कहावतों से
भरी पड़ी है जिधर खोदिए कहावतों रूपी सोना निकल पड़ेगा।
अंत में नीति सम्बन्धी एक कहावत देखिए--
''पाणी में पाखणा, भीजे पण छीजे नहीं।
मूरख आगे ज्ञान, रीझै पण बूझै नहीं।।''
१८ अगस्त
२००८ |