|  | ''वो तो अपने मियाँ की लड़ैती 
                    है।'' माँ ने मुस्कान के साथ, चद्दर झाड़ते हुए कहा। ''लड़ैती बाप की होती है लड़की या पति की?'' पिता पास में चलते 
                    हुए आ गए और शयन कक्ष कि एक कुर्सी पर पसर गए।
 ''जो लाड़ करे, वो उसकी लड़ैती। इसमें बाप-पति कहाँ से आ गए। 
                    क्या मैं आपकी लड़ैती नहीं हूँ?''
 माँ को अपने पुराने दिन याद आ गए जैसे। वो नज़रें तिरछी करके और 
                    प्यार की उम्मीद में उनकी तरफ देखने लगी।
 ''सही बात है।'' पिता ने माँ की बात का कोई विरोध नहीं किया।
 ''याद करूँ तो, मैं जब ब्याह के आई तो कुल सत्रह की थी। बी.ए. 
                    फ़स्ट इयर के इम्तहान भी पूरे नहीं किए थे कि बाबू जी ने कहा, 
                    ''तुझे लड़के वाले देखने आ रहें हैं।'' मुझे लगा था कि मेरा 
                    सारा जीवन किसी अनजानी राह पर निकलने वाला है। पर देखो, बाद 
                    में सब ठीक हो गया। बचपन तो जैसे हवा की तरह छूने आया और चला 
                    गया।
 माँ की आँखों में किसी बात की हरियाली दिखी और वो बिस्तर पर 
                    तकिये के सहारे बैठ गईं।
 पिता ने उठाई किताब रैक पर वापस रख दी। वो माँ की तरफ़ स्नेह 
                    भरी दृष्टि से देखने लगे।
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