|  | मयंक जी शब्दों के कारीगर थे। 
                    बहुत अच्छे कारीगर। शब्दों को गढ़ते, छीलते, काटते, तराशते। 
                    उन्हें रूप देते। कई तरह के रूप। शब्दों से वे फूल खिलाते। 
                    प्रकृति के रहस्यों को बूझने की कोशिश करते। उनके शब्द गरीबों 
                    के घरों में जाकर उनके आँसू पोंछ आते, लाचारों की लाठी बनकर 
                    खड़े होते। मयंक जी की कोशिश होती कि उनके शब्द सहारा बनें। 
                    अपने कवि की इसी में सार्थकता समझते थे। मयंक जी शब्दों से हर 
                    प्रकार का भाव जगा सकते थे। उनके 
                    शब्दों से होकर जो गुज़रता, वह कभी हँसता तो कभी रोता। उनके 
                    शब्दों से कभी अजान की आवाज़ सुनाई देती थी तो कभी मंदिर की 
                    घंटियों की। मयंक जी उन व्यक्तियों में थे जिनके लिए शब्द 
                    पवित्र होते हैं। वे शब्दों से प्रेम करते थे, उनसे नेताओं की 
                    तरह खेलते नहीं थे। शब्दों की दुर्दशा होते देखते तो वे खून के 
                    आँसू रोते। शब्दों के 
                    संसार के मयंक जी का असली नाम अशर्फीलाल था। यह नाम उन्हें लोभ 
                    का बोध कराता था। अकाव्यात्मक लगता। उन्होंने अपना कवि नाम 
                    मयंक रख लिया। इससे उन्हें शांति की अनुभूति होती थी। और मयंक 
                    यानी चंद्रमा के दाग़ के कारण यह नाम उन्हें इस जगत के यथार्थ 
                    के करीब लगता था। मयंक जी जानते थे कि जीवन में सब कुछ बेदाग 
                    यानी चौबीस कैरेट की नहीं होता। ऐसा कुछ घटित हो ही जाता है जो 
                    आदमी को बाईस कैरेट का बना देता है। बाईस कैरेट का आदमी ही आज 
                    की दुनिया में स्तरीय और टिकाऊ समझा जाता है। |