मरूत
मरूत के प्रति वेद और वेदोत्तर साहित्य
एक बात में सहमत हैं कि यह एक देवता नहीं अपितु एक समान आकृति और
स्वभाव वाले अनेक देवताओं का समूह हैं। ऋग्वेद में मरूतों की
गणना प्रमुख देवता के रूप में हुई हैं। इनकी संख्या कहीं 21 तो 100
बताई गई हैं। वेदों में मरूतों को रूद्र का आत्मज तथा रंगबिरंगी
जलद धेनु प्रश्नि की प्रसूति माना गया है। ये पवन और वात्या पर
अधिकार रखते हैं। मैक्डोनल के अनुसार वेदों में मरूत युवक वीरों
का एक दल है। ये भाले फरसे हाथ में लिए मस्तक पर शिरस्त्राण (लोहे के
टोप) पहने रहते हैं। ये सुवर्ण के आभरण धारण करते हैं। विशेषकर
अंगद और नूपुर इनके प्रिय आभूषण हैं। जब सौदामियां पृथ्वी पर
मुस्कुराती हैं तो मरूत घी की बरसात करते हैं। (ऋ11678) मरूत
का स्वभाव वन्य वराह और सिंह की भांति भीषण एक दारूण बताया गया
है। वे अपने रथ में घोड़े जोतते हैं। कभीकभी वे वायु को भी
घोड़े की तरह जोत लेते हैं। वे अपने रथ की नेमि के पर्वतों को
विदीर्ण कर देते हैं। (ऋ8, 74) इनके क्रोध से वन झुक जाते हैं,
पृथ्वी कांप उठती है, पर्वत डोल उठते हैं। (ऋ 5, 602) नदियां
निनाद करने लगती हैं और मेघ प्रशंसा गान करने लगते हैं। (11688)
ऋग्वेद में मरूत इन्द्र के सहयोगी देवता हैं जो युद्ध में सहायता करते
हैं।
पुराणों में मरूतों का स्थान
महत्वपूर्ण हैं किंतु उनकी उत्पत्ति कथा अलग अलग पुराणों में
अलगअलग तरीके से दी गई हैं। वाल्मीकि रामायण और मत्स्य,
वामन और ब्रह्म पुराण के अनुसार देवासुर संग्राम में अपने पुत्रों
के वध से दुखी होकर दैत्यों की माता दिति ने मदन द्वादशी व्रत किया।
कश्यप ने प्रसन्न होकर वर मांगने को कहा। दिति ने ऐसा पुत्र मांगा
जो इंद्र का वध कर सके। तब कश्यप ने दिति में गर्भाधान किया। इंद्र
को पता चला तो उसने गर्भ में घुसकर वज्र से भ्रूण के सात टुकड़े
कर दिए। वे सात टुकड़े रोने लगे तो इंद्र ने "मा रूदत,
मारूदत" कहते हुए चुप करवाया। इस तरह इनका नाम मरूत पड़ गया।
इंद्र ने दिति से अपने अपराधों की क्षमा मांग ली। दिति ने क्षमा कर
दिया तो इंद्र ने मरूतों को देव पद दे दिया। इस तरह अन्य पुराणों
में मरूतों की उत्पत्ति के संदर्भ में भिन्नभिन्न कथाएं हैं। एक कथा
में मरूत को चंद्रवंशी राजा अवीक्षित का पुत्र माना गया है जिसका
इंद्र से विरोध रहता था। इंद्र ने बृहस्पति को इस बात के लिए राजी कर
लिया कि वे मरूतों को यज्ञ कार्य न करने दें। बृहस्पति ने नारद के
कहने पर यज्ञ कार्य के लिए मना कर दिया। मरूत ने संवर्त को अपना
गुरू बना लिया और बृहस्पति को त्याग दिया। मरूत को शंकर की
आराधना से असीम स्वर्ण राशि प्राप्त हुई। यह देखकर बृहस्पति चिंतित हो
गए, इंद्र ने भी मरूत के यज्ञ में बाधा उत्पन्न करने की कोशिश की,
किंतु संवर्त ने मंत्रबल से इंद्र सहित सभी देवों को बुलाकर मरूत
का यज्ञ संपन्न करवाया।
मरूत के संदर्भ में सबसे रोचक बात
हैं इंद्र से सम्बन्ध। वेदों में वे इंद्र के स्वतः सहयोगी हैं। यहां
पर प्रकृति के प्रतिरूप होते हुए भी वे योद्धा के रूप में दिखाई देते हैं,
किंतु पुराणों में न केवल उनके पूर्णतया मानवीयकरण की कोशिश
हैं बल्कि उन्हें इंद्र के प्रतिद्वंद्वी के रूप में स्थापित करने की भी कोशिश
है। लेकिन वे इंद्र के शत्रु नहीं कहलाए। उनकी गिनती देवताओं में
होती रही। इसमें कोई संदेह नहीं कि देवताओं के बदलते अंतर्संबंध
इतिहासकारों के लिए सामाजिक विकास की गुत्थियां खोलने में
सहायक हो सकते हैं।
ऋग्वेद में कई ऐसे देवता हैं जिनका
वेदों में मानवीय रूप है किंतु परवर्ती साहित्य में पूर्णतया प्रकृति
का अंग मान लिया गया है। ऐसे देवताओं में प्रमुख हैं
1 वात (वायु का एक रूप) जिसको ऋग्वेद में इंद्र के सहचारी के
रूप में ख्यापित किया है।
2 पर्जन्य जिसे वृष्टि के देवता के रूप में मान्यता मिली।
वेदों में इसका रूद्र व शम्य दोनों रूप दिखाई देते हैं। 3 आपो
देवता जिसे मातृभाव वाली देवता माना गया है।
4 नदी देवता नदियों में चेतन धर्म आरोप करके देवत्व की
कल्पना की गई हैं। इनमें प्रमुख रूप से सरस्वती, सिंधु, विपाशा,
शुतुदृ और उसकी भगिनियों का वर्णन है।
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