अग्नि
वेद काल का सबसे महत्वपूर्ण देवता है। स्वाभाविक भी है, अग्नि उस
काल की सबसे बड़ी उपलब्धि थी, जिसने अचानक आदमी को अन्य
जीवों में महत्वपूर्ण बना दिया। वैदिक ऋषियों ने अग्नि के एक ही
रूप को नहीं देखा बल्कि उसके सभी रूपों को समझा। उनके लिए अग्नि
मात्र एक शक्ति ही नहीं बल्कि अन्य देवताओं तक उनकी प्रार्थना व
हविष (भोग) ले जाने वाला दूत भी है। इसलिए यद्यपि ऋग्वेद में
इन्द्र के लिए अग्नि की अपेक्षा ज्यादा ऋचाएं हैं, फिर अग्नि का महत्व
सर्वाधिक माना जा सकता है क्योंकि अग्नि को सम्पूर्ण वेद साहित्य
में महत्व दिया गया है। ऋग्वेद की पहली ऋचा ही अग्नि के लिए समर्पित
है। वेदों में अग्नि पुरूष वाचक है।
अग्नि तीन तरह का है एक यज्ञ
से सम्बन्धित, दूसरा अतिथि सेवा और देव आहुति और भोजन
के लिए घर में जलाए जाने वाला तथा तीसरा दैविक जो अन्तरिक्ष में
बिजली, रोशनी आदि के रूप में। इसका महत्व इसलिए भी है कि यह
अन्य सभी देवताओं से सम्बन्ध स्थापित करवाता है। ऋग्वेद के समान
यजुर्वेद में भी अग्नि के लिए सुन्दर प्रार्थनाएं मिलती हैं।
स्वाभाविक है, क्योंकि यजुर्वेद का सम्बन्ध यज्ञ से हैं और
अग्नि के बिना यज्ञ संभव ही नहीं। यहां पर अग्नि स्वामि, पावन
कर्ता और जीवन दाता है। (यजुर्वेद 155) अग्नि को जातवेद
भी कहा जाता है।
अग्नि के मूर्तरूप की कल्पना भी काफी रोचक
है। यह चमकदार वस्त्र पहने शक्तिशाली देव है जिसकी अनेक जिह्वाएं
हैं जिनसे वह हविष लेता है। अथर्ववेद के मुण्डकोपनिषद में सात
जिह्वाएं बताई गई हैं काली कराली, मनोजवा, सुलोहिता,
सुधूम्रवर्णा, स्फुलिंगिनी और विश्वरूची (मुउ 124)
जो इन जिह्वाओं में सही तरीके से अग्निहोत्र करता है उसकी हविष
सूर्य किरणों से होकर वहां पहुंचती है जहां देवों का स्वामि रहता
है। अग्नि को परम ब्रह्म का मस्तिष्क भी माना गया है। यह मनुष्यों
की और उनके घरों की असुरों से, अंधकार से, राक्षसों से रक्षा
करता है। कठोपनिषद में अग्नि का उदाहरण देते हुए परमेश्वर के स्वरूप को
बहुत सुन्दर तरीके से समझाया गया है। जिस तरह अग्नि जिस जिस रूप
में प्रवेश करता है, वैसा ही रूप धारण कर लेता है उसी तरह
सर्वभूतात्मा जिस प्राणी में प्रवेश करता है, उसी का रूप धारण कर
लेता है। (कठोपनिषद 229)
ऐसा नहीं है कि वेदकालीन जन अग्नि
के भयानक व दाहक रूप से परिचित नहीं थे। इस सम्बन्ध में सामवेद
के जैमनीय ब्राह्मण में बड़ी रोचक कथा है। "एक बार
देवताओं ने मृत्यु पर विजय प्राप्त करने का सोचा। उस समय अग्नि
ही मृत्यु का रूप थी। देवताओं ने कहा चलो हम घी चढ़ा कर इस
पर विजय पाएं, सब ने मिल कर अग्नि को घी से जीतना चाहा,
अग्नि की लपटे इसके विरोध में और ऊंची हो गई। तब उन्होंने पशु
की आहुति से अग्नि को जीतना चाहा। अग्नि की लपटें और ऊंची हो
गई। तब देवताओं ने कहा चलो हम अग्नि को दूध से जीते
उन्होंने अग्नि पर दूध की आहुति डाली। दूध की आहुति से कोयले ही
बाकी बचे। इस तरह उन्होंने अग्नि पर जीत हासिल कर ली। तब वे
बोले हम उन सब पर विजय पाएं जिन पर विजय पाना कठिन
है।"
इस कहानी से इस तथ्य का पता चलता है
कि हमारे पूर्वजों ने जिस तरह अग्नि का आविष्कार किया उसी तरह उसके
भयंकर रूप से बचने के लिए भी उन्हें कई प्रयोग करने पड़े होंगे।
जब वनों में या घरों में आग लग जाती होगी तो वह मौत के
समान प्राण ले लेती होगी। ऐसा स्थिति में घी आदि की आहुति से
कोई लाभ नहीं हो सकता था। उस समय दूध या जल का उपयोग करके
ही अग्नि का शमन किया जा सकता था।
अग्नि एकमात्र ऐसा देवता है जो हर काल
में महत्वपूर्ण रहा है। महाभारत में तो अग्नि को लेकर बड़ी रोचक
कथाएं हैं। ऋग्वेद में अग्नि के लिए जो सहज व सरल भाव हैं उनका
आस्वादन करना आवश्यक है। ऋग्वेद का पहला मंत्र है
अग्निमीळे पुरोहितम्
यज्ञस्य देवमृत्विजम्
होतारं रत्नधातमम्।। ऋग्वेद 1111
इस सूक्त की कुछ ऋचाएं हिन्दी में इस
तरह से पढ़ी जा सकती है
प्रथम स्थित
यज्ञ में देवों के ऋत्विज
होता और रत्न धाता
अग्नि की
हम करते स्तुति
पुरातन और नवीन
ऋषियों से पूजित
अग्नि,
ले आए सभी देवों को यहीं
प्राप्त करें अग्नि से
धन और पोषण
दिनप्रति दिन/ और
पाएं यश
वीरों को जो मिलता
हे अग्नि!
यह सर्वत्र व्याप्त
अध्वर यज्ञ
इसे ले जाओ तुम
सभी देवों को
अग्नि होता
सर्व ज्ञाता, सत्य
सर्वाधिक चमकदार
आओ, सभी देवों के साथ
तुम यहीं।
ऋग्वेद 1111
इस प्रार्थना में जो सादगी दिखाई
देती है वहीं वैदिक मानव के जीवन की कहानी है। जितना सरल उनका
मन था, उतने ही सरल उनके देवता और वैसी ही उनकी भावनाएं।
व्ोदोत्तर
काल में अग्नि
हमारे प्राचीन काल के साहित्य की यह
विशेषता रही है कि देवताओं का महत्व व रूप समय के साथ बदलता
रहा है। जहां वेद काल में देवों को प्राकृतिक रूप में वर्णित किया
गया है वहीं वेदोत्तर(प्रमुख रूप से पुराण और महाभारत) काल में
उनके स्वरूप में थोड़ा अन्तर ही नहीं आया बल्कि उनसे सम्बन्धित अनेक
कथाओं का विकास भी हुआ। जहां तक अग्नि का सम्बन्ध है, यह वेदकाल
में महत्वपूर्ण देवता तो रहा ही, पौराणिक युग में भी इसका महत्व
किसी न किसी रूप में कायम रहा। अग्नि पुराण एक महत्वपूर्ण पुराण भी
है, जिसमें अग्नि देव ने वसिष्ठ मुनि को ब्रह्मविद्या,
परमतत्व आदि का उपदेश देते हुए मत्स्यावतार आदि की कथाएं कहीं। ये
कथाएं रोचक होने के साथसाथ वैज्ञानिक सत्यों को कथात्मक
रूप में समझने का साहित्यिक प्रयास है, साथ ही देवताओं का
समाज के अनुरूप अनुबन्ध है। अग्निपुराण में स्वयं अग्नि देव कहते
हैं
मैं कालाग्नि विष्णु और रूद्र हूं,
विद्या के सार को बताता हूं, यह अग्नि पुराण विद्याओं का सार और
समस्त ज्ञान का कारण है। (अग्निपुराणप्रथम अध्याय)
पुराणों में अग्नि का मानवीयकरण इस
तरह से हुआ है कि स्वाहा से विवाह की परिकल्पना भी हुई है। स्वाहा
प्रसूति के गर्भ से उत्पन्न दक्ष की पुत्री थी। (ब्रह्म पुराण अ 128,
ब्रह्मवैवर्त पुराण2/12/1, ब्रह्माण्ड पुराण आदि)। अग्नि के
शक्तिशाली होने के सम्बन्ध में भी रोचक कथा है
एक बार दिती के पुत्र मधु ने अग्नि के
भाई जातवेदस को मार दिया। जातवेदस देवताओं तक हवन सामग्री
पहुंचाता था। जब देवताओं को द्रव्य मिलना बन्द हो गया तो वे
परेशान हुए, इधर अग्नि ने गंगा में प्रवेश कर लिया। अब तो
देवता ही क्या, मनुष्यों की भी बुरी गति हो गई। तब सब देवता
मिल कर अग्नि के पास गए। अग्नि ने कहा कि मुझ में इतनी शक्ति
नहीं कि मैं सब जगह काम कर सकूं, मेरी भी गति मेरे भाई की तरह
हो सकती है। तब देवताओं ने अग्नि को आयु, कर्म में प्रेम और
व्याधि में शक्ति प्रदान की।(ब्रह्मपुराण)
पुराणों में कई बार अनेक रोचक
कथाएं मिलती हैं जैसे कि देवताओं में अजीर्ण (बदहजमी) की
कथा। जब पृथ्वी पर सभी लोग श्राद्ध कर्म के अनुष्ठान करने लगे तो
देवताओं का पेट खराब होने लगा। वे सोम के पास, फिर ब्रह्मा के
पास गए। ब्रह्मा ने उन्हें अग्नि के पास जाने को कहा। अग्नि ने
देवताओं की श्राद्ध की कल्याणकारी विधि
बताई, जिससे उनकी समस्या का समाधान हुआ। (वामन पुराण)
अग्नि को जन सामान्य के रक्षक के रूप
में भी प्रस्तुत किया गया है। वामन पुराण की कहानी के अनुसार एक
बार एक क्षत्रिय अपने पापों के कारण राक्षस बन गया तो एक ब्राह्मण के
पीछे पड़ गया। उससे कहने लगा कि यदि वह उसके पापों से मुक्ति
का उपाय बताएगा तो ही छोड़ेगा, अन्यथा खा जाएगा। ब्राह्मण ने
अग्नि की स्तुति की तो अग्नि ने सरस्वती को ब्राह्मण की रक्षा के लिए
भेजा। सरस्वती ब्राह्मण की जिह्वा पर आकर बैठ गई। इस तरह ब्राह्मण
ने अपनी रक्षा की।
पुराणों में देवों, मनुष्यों और
पशुपक्षियों में सामान्य सम्बन्ध बताया गया है। महाभारत में एक
बड़ी रोचक कथा है। एक बार अग्निदेव देवताओं को मिल नहीं पा रहे
थे। वे तीनों लोकों में अग्नि देव को खोजते फिर रहे थे। तब एक
मेंढ़क ने उन्हें बताया कि अग्नि देवता रसातल में हैं, तभी अग्नि
ने मेढकों को शाप दे दिया कि उन्हें रस का अनुभव नहीं होगा और दूसरी
जगह जाकर छिप गए। तब हाथी ने देवताओं को बताया कि अग्निदेव
अश्वल्य में हैं। इस पर अग्नि ने हाथियों को शाप दे दिया कि उनकी जीभ
उलटी हो जाएगी। अब अग्नि देव शमी वृक्ष में छिप गए, तब तोते ने
उनका पता बता दिया। अग्निदेव ने तोते को शाप दे दिया कि इनकी
जिह्वा ही नहीं होगी लेकिन वाणी मधुर जरूर होगी। (महाभारतअनुशासन
पर्व)
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