वैदिक
देवताओं की सबसे बड़ी विशेषता है कि वे प्रकृति के किसी एक रूप के
विभिन्न भावों को विभिन्न नामों से प्रस्तुत करते हैं। उदाहरण के
लिए सौर देवताओं को ही ले लिया जाए। ऋग्वेद में पांच सौर देवता
हैं जो प्रत्यक्ष रूप में सूर्य की विभिन्न चेष्टाओं और स्वरूपों के
प्रतीक माने जा सकते हैं। इनमें से कुछ का रूप कालांतर में बदल गया
और कुछ की स्थिति वर्तमान समय तक बनी रही। ये इस प्रकार
हैं।
सूर्य
सौर देवताओं में सबसे महत्वपूर्ण
देवता सूर्य है। ऐसे युग में जहां सूर्य का प्रकाश ही जीवन का
एकमात्र आधार हो, सूर्य का महत्व कम नहीं आंका जा सकता है। सूर्य
प्रकाश का बोधक रहा है, इसलिए उसे संपूर्ण जगत का सृष्टा जो कहा
गया है। वह दिन का परिणाम है, जीवन का नियामक है, आयु का
वर्धक है। सूर्य के उदय होने पर ही मनुष्य अपनेअपने कामों में
लगते हैं इसलिए सूर्य चराचर का अभिभावक है। वह ऐसे रथ पर सवार
होता है जिसमें सात घोड़े जुते होते हैं। जब वह अपने घोड़ों
को विश्राम देने के लिए खोलता है, रात अपना प्रसार आरंभ कर देती है।
सूर्य के वर्णन में प्राकृतिक सौंदर्य की स्थिति स्वाभाविक है। क्यों
कि सूर्योदय पूर्व व सूर्यास्त की स्थिति मानव को सदैव से आकर्षित
करती रही है। इसलिए वेदों में काव्य सौंदर्य की दृष्टि से सूर्य
संबंधित मंत्र महत्वपूर्ण हैं। अथर्ववेद में एक मंत्र है जब सूर्य
देवता अपनी महिमा से अपनी रश्मियों को समेट लेते हैं तो तब
अंधकार को लेती हुई रात्रि
वस्त्र देती है। मित्र और वरूण सूर्य को द्यौ पर स्थापित कर रूप देते हैं।
इसका दूसरा रूप कृष्ण वर्ण का है जिसका रश्मियां भरण करती हैं।
(अथर्ववेद 2012312)
सूर्य की उपस्थिति मानव को हर तरह के
भय से दूर करती रही है, अतः उसे रक्षक के रूप देखना स्वाभाविक है
लोहे के जाल वाले पाश हाथ में लिए घूमते मायावादी असुर सब
ओर घूमते हैं। हे जातवेद सूर्य! मैं उन्हें तुम्हारे तेज से वश में
करता हूं। तुम सहस्त्र रश्मि वाले और वज्रधारी हो, तुम शत्रुओं को
मार कर हमारी रक्षा करो।
(अथर्ववेद 19661)
मानव जीवन की मंगलकामना से
संबंधित प्रसिद्ध सूक्त का देवता सूर्य ही है
पश्येम शरदः शतम्। जीवेम शरदः
शतम्।।
बुध्येम शरदः शतम्। रोहेम शरदः शतम्।।
पूषेम शरदः शतम्। भवेम शरदः शतम्।।
भूयेम शरदः शतम्। भूयसीः शरदः शतम्।। अथर्ववेद (196718)
सूर्य का महत्व तो वैज्ञानिक युग
में भी कम नहीं हुआ है, आज भी सूर्य नमस्कार को हिंदू जीवन का
प्रमुख कर्म माना जाता है। सूर्य को पौराणिक ग्रंथों में मानवीय
या अर्धदैविक रूप में भी प्रस्तुत किया गया किंतु यह एक ऐसा देवता है
जो मानवजीवन में सदैव महत्वपूर्ण बना रहा।
मित्र
मित्र का वेदों से पहले क्या रूप रहा
होगा, इसके बारे में कुछ स्पष्ट नहीं हैं, इतना अवश्य है कि वैदिक
काल में ही मित्र का महत्व अन्य देवताओं की अपेक्षा कमतर होने लगा
था। अधिकतर मित्र का उल्लेख वरूण के साथ किया गया है। इस कारण वरूण
से संबंधित नैतिकता मित्र के साथ भी जुड़ गई। ऋग्वेद का केवल एक
सूक्त ऐसा है (तीसरे मंडल का 57 वां सूक्त) जिसमें मित्र की
प्रार्थना अलग से की गई है। इस सूक्त में मित्र को अन्य देवताओं के
समान द्यौ व पृथ्वी धारण करने वाला, सुख देने वाला, और
बुद्धिमान आदि कहते हुए आहुति चढ़ाने का उपक्रम किया गया है। यह
समझा जा सकता है कि यह देवता वेद से पूर्व काल में प्रमुख स्थान
रखता होगा, कालांतर में वरूण का सहभागी देवता बना जिससे शनैः
शनैः महत्व कम हो गया।
सविता
सविता वैदिक युग का महत्वपूर्ण देवता
है। ऋग्वेद के ग्यारह सूक्तों में इस देवता का गुण गाया गया है।
वास्तविकता तो यह है कि यह देवता आज भी परोक्ष रूप में महत्वपूर्ण है।
क्यों कि महत्वपूर्ण गायत्री मंत्र तत्सवितुर्वरेण्यं, भर्गो
देवस्य धीमहि। धियो यो नः प्रचोदयात्।। (ऋ36210) के
देवता सविता ही हैं। वस्तुतः यह सावित्री मंत्र है किंतु इस प्रसिद्धि
गायत्री मंत्र के रूप में हुई क्योंकि यह गायत्री छंद में रचा गया है।
बाद के ग्रंथों में तो गायत्री को एक देवी के रूप में मान लिया
गया और इससे संबंधित अनेक कथाओं की रचना हुई। गायत्री को
अलग रूप से महत्व मिलना वैदिक युग से ही आरंभ हो गया था।
अथर्ववेद में गायत्री की स्वतंत्र स्थापना दिखाई देती है। इस मंत्र का अर्थ
बड़ा ही सरल है हम ओजस्वी देवता सविता के उस सर्वश्रेष्ठ ओज
को प्राप्त करने की लालसा से उसका ध्यान करते हैं। वह हमारी बुद्धि को
प्रेरणा प्रदान करे। इस मंत्र का महत्व संभवतः इसलिए भी बढ़ गया कि
इसमें मानव के बौद्धिक उत्कर्ष की कामना की गई है। यह अकेला मंत्र
वैदिक युगीन मनुष्यों के बौद्धिक उत्कर्ष की लालसा को व्यक्त करता
है।
सविता को एक ऐसे देवता के रूप में
प्रस्तुत किया गया है जो सूर्य की गति को तेज करता है। इसे प्रेरक
देवता के रूप में जाना गया है। इसे स्वर्णमय कहा गया है। इसकी
भुजाएं और रथ सोने के हैं। यह सोने के रथ पर सवार हो कर
प्राणियों का निरीक्षण करता है और सोने की भुजाएं उठाकर लोगों
को आशीर्वाद देता है। उषा के चल पड़ने पर सविता भी रथ पर आरूढ़ हो
चल पड़ता है और दुःस्वप्नों को दूर करता है। दानवों और
मायावियों का नाश करता है, मानवों की आयु बढ़ाता है। सविता
से संबंधित मंत्रों में भावसौंदर्य की अधिकता दिखाई देती है। एक
मंत्र में उसे प्रदोष वेला का सहचर मानते हुए कहा गया हैं
वेगवान घोड़ों पर तीव्र गति से
भ्रमण करता हुआ सविता अब विश्राम कर रहा है, उसने अपने तीव्रगामी
घोड़ों की लगाम खींच ली है, वह सर्प की तरह भागते घोड़ों की
गति रोक रहा है क्योंकि सविता का आदेश पा कर रात आ गई है। (ऋग्वेद
2383)
सारे दिन घूमते पक्षी अपनेअपने
घोंसलों में जा बैठे हैं, समस्त पशु वृंद भी अपनी गोशाला
में पहुंच गए हैं। सर्वनियंता सविता देवता ने सकल प्राणियों को
यथास्थान पृथकपृथक कर दिया। वह हमारी बुद्धि को प्रेरणा प्रदान करे।
(ऋग्वेद2388)
सविता का महत्व अन्य वेदों में भी
ऋग्वेद के समान बना रहा। अथर्ववेद में एक सूक्त है
मैं प्रार्थना करता देव बुद्धिशाली सविता
की
जो है रक्षक, सत्य प्रेरक, रत्न धाता और प्रिय मति
जिसकी मति सदा उत्कर्ष पाती
जिसकी स्वर्ण बाहुओं से सोम उत्पन्न होता
(अथर्ववेद 71412)
धीरेधीरे सविता सूर्य में समाहित
हो कर उसका पर्यायवाची बन गया, शायद यही कारण है कि बाद के
पौराणिक ग्रंथों में सविता का प्रथक देवता के रूप में अधिक उल्लेख
नहीं मिलता।
पूषा
पूषा ऋग्वैदिक कालीन महत्वपूर्ण देवता
है। इसे अभ्युदयकारक देवता के रूप में जाना जाता है जिसका संबंध
पशुपालन से हैं। यह गगन मार्ग में विचरता हुआ पितरों के पास
पहुंचता है। इसके हाथ में अंकुश होता है और रथ में बकरे जोते
जाते हैं। वह मार्गों का संरक्षक है, लोगों का पथप्रदर्शन करता है।
ऋग्वेद में पूषा के संबंधित मात्र आठ सूक्त हैं। उसका महत्व पशुपालक
देवता के रूप रहा था, संभवतः तत्कालीन युग में पशुपालन आवश्यक
वृत्ति थी इसीलिए एक ऐसे देवता की कल्पना की गई जो उनके पशुओं
को भटकने से बचाए। पूषा का अस्तित्व वैदिक काल के साथ ही कम होता
गया। फिर भी लोक जीवन से जुडे़ इस देवता को भूलना नहीं
चाहिए।
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