पटना के
संग्रहालय में स्थित इन्द्र की एक मूर्ति
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वायु
मंडल का सबसे महत्वपूर्ण देवता है इन्द्र। ऋग्वेद के एक चौथाई भाग
में प्रमुख रूप से इन्द्र की स्तुति की गई है। यह बात अलग है कि
अथर्ववेद तक आतेआते उसका महत्व कम हुआ। उपनिषदों में इन्द्र के
स्वरूप में आध्यात्मिक प्रभाव आया है। पुराणों में इस देवता को फिर
से इतना महत्व दिया गया कि इन्द्र नाम हिन्दू माइथोलोजी में
महत्वपूर्ण बन गया। लेकिन वेदों के शक्तिशाली देवता इन्द्र का
पुराणों से थोड़ा चारित्रिक पतन जरूर हुआ।
एक बात महत्वपूर्ण हैं कि यद्यपि इन्द्र
देवताओं का राजा माना गया है किन्तु हमेशा से ही इसका चित्रण
महामानव के रूप में अधिक हुआ है। वेदों में इन्द्र एक वीर योद्धा है
जो, अग्नि, मरूत आदि के साथ निरन्तर युद्ध में रत है। वेदों
में उसका सबसे बड़ा शत्रु वृत्र है जिसका विनाश करके इन्द्र ने
नदियों का रास्ता खोल दिया। उसने पर्वतों के चलन को रोका।
ऋग्वेद में उसके महत्व को इस तरह माना गया है इन्द्र ने वृत्र को मारा,
शत्रुओं के दुर्गों को तोड़ा, नदियों की धारा बहाई, पर्वतों का
भेदन किया और साथियों को गौ का दान किया। (ऋग्वेद दशम
मण्डल) वृत्र और इन्द्र के युद्ध का वर्णन ऋग्वेद में बड़े महत्व के
साथ किया गया। इन्द्र के शौर्य के वर्णन में एक सूक्त इस तरह है
मैं इन्द्र के शौर्य का वर्णन करता हूं,
जिस बज्रधारी ने कर्म किये सर्वप्रथम।
वृत्र का वध कर रूके पानी के बहाव को खोला, पहाड़ों की ऊंचाई को
रोका।।
जो बलवान वृषभ जैसा, सोमरस पीता जो तीनतीन बार।
वज्र को शस्त्र बनाकर प्रथम शत्रु वृत्र का करता हनन।।
न बिजली टिकी, न मेघ गरजे, हिम हो गया लुप्त।
इन्द्र और वृत्तासुर के संग्राम में जो जीता अन्ततः ।। (ऋग्वेद1,321,2,3)
(सरल अनुवाद)
इन्द्र के शौर्य कर्मों की प्रशंसा बड़े
जोरशोर से की जाती रही है। इन महिमा गीतों का काव्य सौन्दर्य
भी देखते ही बनता है।
जिसने कांपती धरती को किया दृढ़,
प्रकंपित पर्वतों का किया शमन।
जिसने मान लिया अन्तरिक्ष को द्यौ को किया स्तम्भित, हे लोगो,
वह इन्द्र है।
जिसके सामने झुकते द्यौ और पृथ्वी, जिसके बल को देख कांपते
पर्वत।
सोम रसपान करने वाला, बज्र बाहु, बज्र हस्त जो, हे लोगों,
वह इन्द्र है।। (ऋग्वेद1,122 और 13)
ऋग्वेद में इन्द्र का सम्बन्ध
सीधेसीधे वर्षा से नहीं है, किन्तु नदियों को बन्धन मुक्त
करवाने, मेघ गर्जन बन्द करवाने आदि प्रतीकात्मक उपमान जरूर दिए
गए हैं। उसे अन्तरिक्ष में संचरन करने वाला देवता माना गया है। शायद
यही कारण होगा कि बाद के साहित्य में इन्द्र का सम्बन्ध वर्षा से
जुड़ा। वेदों में इन्द्र का युद्ध दास, दस्यु, पणि आदि प्रायः सभी
कबीलों के लोगों से हुआ है। गौओं को भी युद्ध का कारण माना
गया है। एक कथा के अनुसार वह सरमा नामक कुतिया को पणियों के
पास गाय छुड़वाने के लिए भेजता है। अथर्ववेद में कुछ मंत्र ऐसे
भी हैं जिनमें इन्द्र के बाणों से बचने की कामना की गई है।
उसके चरित्र में अनैतिक लक्षण वैदिक युग में ही प्रवेश कर गए। इसके
लिए कहा गया है कि इसने अपने पिता का वध किया, उसने उषस के रथ
को भंग कर डाला, वह अत्यधिक सोमपान करता है। ऋग्वेद में एक पूरा
सूक्त है जिसमें वह शराब के नशे में चूर होकर अपने प्रताप का
स्वयं वर्णन करता है।
उपनिषदों में इन्द्र का शूरवीर रूप नहीं
दिखाई देता है, अपितु यहां उसका स्वरूप पुराणों की रूपरेखा अवश्य तैयार
करता दिखाई देता है। छांदोग्य उपनिषद में रोचक प्रसंग है कि जब
प्रजापति ने आत्मज्ञान द्वारा लोक विजय का ज्ञान दिया तो
देवताओं के राजा इन्द्र और असुरों के राजा विरोचन आपस में
ईर्ष्या करते हुए आत्मज्ञान के लिए प्रजापति के पास आ पहुंचे।
उन्होंने करीब 25 वर्षों तक ब्रह्मचर्य का पालन किया। तब प्रजापति
ने कहा कि सुन्दर वस्त्र पहन कर जल और दर्पण में अपनी छवि देखो।
विरोचन और इन्द्र ने ऐसा ही किया। प्रजापति ने कहा कि तुम जो कुछ
देख रहे हो, यही आत्मा है। दोनों सन्तुष्ट होकर चले गए। विरोचन
ने असुरों को सिखाया कि यह देह ही आत्मा है, हमें इसी की रक्षा
करनी चाहिए, इसे ही सजाना चाहिए।
लेकिन इन्द्र को मार्ग में ही शंका हुई
यदि यह शरीर आत्मा है तो इसके अंधे होने पर आत्मा भी अंधी
हो जाएगी, सड़नेगलने पर आत्मा भी सड़गल जाएगी। वह
रास्ते से लौट कर प्रजापति के पास आया और 25 वर्ष तक ब्रह्मचर्य
वास किया।
तब प्रजापति ने कहा कि जो यह
स्वप्न में पूजित होता हुआ विचरता है, वही आत्मा है। पहले तो इन्द्र
सन्तुष्ट हो गए, किन्तु बाद में उन्हें शंका हुई कि शरीर के
गुणदोषों का स्वप्न पर प्रभाव पड़े, यह जरूरी नहीं है, अतः इस
बात में कोई दम नहीं है। वह वापिस लौट आए, तब प्रजापति ने
उन्हें पुनः 32 वर्षों तक ब्रह्मचर्य रहने का आदेश दिया।
अन्त में उपदेश दिया कि जिस अवस्था
में यह सोया हुआ दर्शन वृत्ति से रहित सम्यक आनन्द का अनुभव
करता है वही अमृत, अभय और ब्रह्म है। किन्तु इन्द्र को लगा कि ऐसी
अवस्था में तो अपने होने का ज्ञान भी नहीं रहता तो आत्मा का
ज्ञान कैसे होगा, इन्होंने अपना सन्देह प्रजापति के सामने रखा।
उन्होंने इन्द्र को 5 वर्ष ब्रह्मचर्य वास करने का आदेश दिया। अन्त
में प्रजापति ने इन्द्र को उपदेश दिया कि हे इन्द्र, यह शरीर
मरणशील है, किन्तु यही इस आत्मा का निवास है शरीर का नाश हो
सकता है किन्तु आत्मा का नहीं। इस तरह प्रजापति ने इन्द्र को आत्मा के
बारे में विस्तार से उपदेश दिया।
यह आख्यान इसलिए भी रोचक है कि
यहां इन्द्र के बौद्धिक रूप को दर्शाया गया है।
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