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३१. ३. २०१४

इस सप्ताह-

अनुभूति में-
कृष्णनंदन मौर्य, अनिलकुमार मिश्र, विभारानी, रामशिरोमणि पाठक और अमित माथुर की रचनाएँ।

कलम गही नहिं हाथ-

पिछले दिनों इमारात में यातायात सप्ताह मनाया गया। इस-पर अचानक ध्यान तब गया जब आप्रवासन कार्यालय के सामने भयंकर रूप से...आगे पढ़ें

- घर परिवार में

रसोईघर में- हमारी रसोई-संपादक शुचि द्वारा प्रस्तुत है- चैत्र नवरात्रि की तैयारी में फलाहारी व्यंजनों की विशेष शृंखला के अंतर्गत- फलाहारी भेल

आज के दिन कि आज के दिन (३१ मार्च को) १५०४ में गुरु अंगद देव, १८६५ में आनंदी गोपाल जोशी, १८६० में लेखक रमाशंकर व्यास, १९३८ में...

हास परिहास के अंतर्गत- कुछ नये और कुछ पुराने चुटकुलों की मजेदार जुगलबंदी का आनंद...

घर परिवार के अंतर्गत- कॉफी के इतिहास, उसके विश्वव्यापी विकास और लोकप्रियता से संबंधित रोचक जानकारी अर्बुदा ओहरी से- कहानी कॉफी की

सप्ताह का विचार में- जिस प्रकार रात्रि का अंधकार केवल सूर्य दूर कर सकता है, उसी प्रकार मनुष्य की विपत्ति को केवल ज्ञान दूर कर सकता है। -नारदभक्ति

वर्ग पहेली-१७९
गोपालकृष्ण-भट्ट
-आकुल और रश्मि-आशीष के सहयोग से

सप्ताह का कार्टून-
कीर्तीश की कूची से

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साहित्य एवं संस्कृति में-

समकालीन कहानियों में भारत से
पवन चौहान की कहानी- चोर

रात के खाने का निबाला अभी मुँह में डाला ही था कि चोर...चोर... का शोर मेरे कानों से टकराया। मैं चौंका लेकिन यह सोचकर खाने में मशगूल हो गया कि रोज़ रात को गाँव में रहने लगे ईंट बनाने वाले मज़दूर शराब पीकर अक्सर लड़ते रहते हैं। शायद यह शोर उन्हीं का हो। लेकिन थोड़ी देर बाद चोर-चोर के शब्द फिर गूँजे। आवाज़ गाँव के किसी आदमी की ही लग रही थी। वैसे भी बिहार, छत्तीसगढ़, यू.पी., मध्यप्रदेश आदि राज्यों से आए इन मज़दूरों की बोली हमारी बोली से मेल नहीं खाती। मैं हैरान था। मेरी आज तक की जि़न्दगी में मैंने इस घने बसे गाँव में किसी चोर के घुसने के बारे में कभी नहीं सुना था। फिर आज यह शोर कैसा? एक अप्रैल का दिन होने की याद आई तो लगा-कहीं कोई मज़ाक तो नहीं कर रहा है? परंतु कुछ क्षणों के बाद एक बार फिर चोर... चोर... की पुकार सुनाई दी। मैंने रसोई की छोटी खिड़की से बाहर झाँका तो देखा गाँव के कुछ लोग दक्षिण दिशा की ओर भाग रहे थे। कुछ न कुछ गड़बड़ तो ज़रूर थी, मैंने भोजन वहीं छोड़ा और... आगे-
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पूजा अनिल की लघुकथा
माँ सब देखती है
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शीला इंद्र का संस्मरण
नमक सत्याग्रह और मेरी माँ
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डॉ. अशोक उदयवाल का आलेख
सुन सुन लहसुन
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पुनर्पाठ में-
चित्रकार सतीश गुजराल से परिचय

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पिछले सप्ताह- विश्व-जल-दिवस-के-अवसर-पर


ज्ञान चतुर्वेदी की व्यंग्यकथा
गंगाजल और गंदला नाला
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कादंबरी मेहरा का आलेख
जलपूजन
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डॉ. पुष्पारानी का ललित निबंध
शिल्पी है जल
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पुनर्पाठ में प्रकृति के अंतर्गत
महेश परिमल का आलेख- पानी रे पानी

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समकालीन कहानियों में भारत से
मनमोहन सरल की कहानी- पानी

सब कुछ चुपचाप हो गया। भाटिया साहब के निर्जीव जैसे शरीर में ऐसा कुछ बचा भी न था कि कोई आवाज़ होती। एक खामोश सी हिचकी आई और बस। पर यह अचानक नहीं हुआ था। ज़्यादा नहीं तो कम से कम दो सप्ताह से तो सावित्री को लगने लगा था कि ऐसा हो सकता है, किसी भी दिन। डॉक्टरों ने तो पहले ही जवाब दे दिया था। तब से ही सावित्री ने इसके लिए अपने को तैयार कर लिया था। उस रात वह बिलकुल सो न सकी थी। भाटिया साहब के मुर्दा जैसे शरीर के निकट ही बैठी रही थी। रह-रह कर उनकी नाक के पास अपनी हथेली रख कर देख लेती कि साँस चल रही है न! जब वह वक्त आया तो उसे झपकी आ गई थी। जैसे ही आँख खुली, उसकी हथेली अपने आप ही भाटिया साहब की नाक के पास पहुँच गई। साँस नहीं आ रही थी, उसने महसूस किया। फिर हड़बड़ा कर उसने उनका शरीर हिलाया डुलाया और बेहाली में वह उनके सीने पर लेट ही गई। पर वहाँ कुछ बचा न था। कहीं कोई कंपन न था।  आगे-

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यह पत्रिका प्रत्येक सोमवार को प्रकाशित होती है।


प्रकाशन : प्रवीण सक्सेना -|- परियोजना निदेशन : अश्विन गांधी
संपादन, कलाशिल्प एवं परिवर्धन : पूर्णिमा वर्मन

 
सहयोग : कल्पना रामानी -|- मीनाक्षी धन्वंतरि
 

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