|   
                     सब 
					कुछ चुपचाप हो गया। भाटिया साहब के निर्जीव जैसे शरीर में ऐसा 
					कुछ बचा भी न था कि कोई आवाज़ होती। एक खामोश सी हिचकी आई और 
					बस। 
 पर यह अचानक नहीं हुआ था। ज़्यादा नहीं तो कम से कम दो सप्ताह 
					से तो सावित्री को लगने लगा था कि ऐसा हो सकता है, किसी भी 
					दिन। डॉक्टरों ने तो पहले ही जवाब दे दिया था। तब से ही 
					सावित्री ने इसके लिए अपने को तैयार कर लिया था।
 
 उस रात वह बिलकुल सो न सकी थी। भाटिया साहब के मुर्दा जैसे 
					शरीर के निकट ही बैठी रही थी। रह-रह कर उनकी नाक के पास अपनी 
					हथेली रख कर देख लेती कि साँस चल रही है न! जब वह वक्त आया तो 
					उसे झपकी आ गई थी। जैसे ही आँख खुली, उसकी हथेली अपने आप ही 
					भाटिया साहब की नाक के पास पहुँच गई। साँस नहीं आ रही थी, उसने 
					महसूस किया। फिर हड़बड़ा कर उसने उनका शरीर हिलाया डुलाया और 
					बेहाली में वह उनके सीने पर लेट ही गई। पर वहाँ कुछ बचा न था। 
					कहीं कोई कंपन न था। सब निस्पंद, निःशब्द और निर्जीव। सुबह के 
					चार बजे होंगे। यों भी सब ओर सन्नाटा ही था, उस वक्त। सन्नाटा, 
					जिसमें सब कुछ थम जाता है।
 
 सावित्री ने अपने को तैयार कर लिया था फिर भी वह एकाएक दहल 
					उठी। उसके गले से कोई आवाज़ न निकली। रोती भी तो, किसके लिए। 
					अक्सर आदमी केवल अपने दर्द से नहीं रोता है। उसे औरों पर 
					उदघाटित करना होता है कि वे जानें कि उसे दर्द है। यहाँ था ही 
					कौन जो उसके आँसू देखता, उसकी दहाड़ सुनता, तो उसके दर्द से गले 
					लग कर उसे दिलासा देता?
 इस बेरहम और बेमुरव्वत मुंबई का चरित्र ही ऐसा है। यहाँ कौन 
					किसका होता है?
 
 भाटिया दंपत्ति मुंबई के पुराने इलाके में रहते हैं जहाँ अब 
					धीरे-धीरे नये चलन की गगनचुंबी इमारतें भी बन गई हैं। पर ये रो 
					हाउस जैसे हैं। एक कतार में आठ बँगलेनुमा मकान हैं जो दो-दो की 
					जोड़ियों में हैं, जिनके बीच वाली दीवार एक है जैसे कि एक बड़े 
					घर को चाकू से बीच में से काट दिया गया हो। बाहर एक लॉन है और 
					उसी तरह पिछवाड़े छोटा–सा किचेन गार्डन है। दोनों को बाँटती हुई 
					फेंसिंग है। बाहरी चहारदीवारी सबने अपने ढंग से अलग–अलग बनवा 
					ली है।
 
 सावित्री ने ऐसे रो हाउस पहली बार इंग्लैंड में देखे थे। उसे 
					एक बार भाटिया साहब अपने साथ विदेश ले गए थे। लंदन के एक 
					दूर-दराज के उपनगर सिटिंगबोर्न में विद्यार्थी जीवन का उनका एक 
					दोस्त रहता था। उसी के घर ठहरे थे वे दोनों। ऐसे घर को रो हाउस 
					कहते हैं, बताया था भाटिया साहब ने। पर वे सभी घर बहुत साफ़ और 
					खूबसूरत थे। लॉन की घास भी खूब हरी थी और लॉन में पानी देने का 
					एक फव्वारा–सा था जिसे स्प्रिंकलर कहते थे वे लोग। जब पानी की 
					टोंटी खोल दी जाती तो वह फव्वारा नाचने लगता था और नाच-नाच कर 
					लॉन की घास को सींचता था। सावित्री को वह बहुत अच्छा लगता और 
					वह जितनी देर भी वहाँ रही, खाली वक्त निकाल कर उसे नाचते हुए 
					देखती रही थी।
 
 मुंबई में उसी के कहने से भाटिया साहब ने ढूँढ-ढाँढ कर यह रो 
					हाउस ले लिया था। यह उतना साफ़ और खूबसूरत तो न था पर बुरा भी न 
					था। सावित्री ने लॉन में ठीक वैसे ही वाटर स्प्रिंकलर लगवा लिए 
					थे और वह जब–तब उसका नल खोल दिया करती थी और पानी का नाच देखा 
					करती थी। कई बार तो उसने बारिश में भी नल खोला था और भाटिया 
					साहब ने जब देखा तो उस पर गुस्सा भी किया था।
 
 भाटिया दंपत्ति यहाँ के सबसे पुराने बाशिंदे हैं और पिछले 
					पच्चीस–तीस सालों से रह रहे हैं। बाकी लोग अदलते-बदलते रहे हैं 
					पर भाटिया साहब के पड़ोसी तो कम से कम चार साल से यहीं हैं। 
					सावित्री को याद है कि उसने एक दिन एक नयी नवेली दुल्हन को घर 
					में घुसते देखा था जिसके चूड़े का रंग तब तक फीका न पड़ा था। 
					उनके रो हाउस का नंबर छह होगा शायद क्योंकि उसका नंबर पाँच है।
 
 पर दोनों पड़ोसियों के बीच कभी बोलचाल न हुई। कोई मौका भी न 
					आया। यों भी वे लोग तो क्या शुरुआत करते, सावित्री ने ही अपनी 
					तरफ़ से कभी पहल न की। आते-जाते एक आध बार उसने छह नंबर पर नज़र 
					ज़रूर डाली थी पर किसी से सामना नहीं हुआ। बैक यार्ड से उनके घर 
					का एक टुकड़ा दिखाई देता था पर हमेशा वहाँ किसी की छाया तक नहीं 
					दिखाई दी। कभी देर रात में ज़ोर से खिलखिलाने की आवाज़ अवश्य 
					सुनाई दे जाती थी।
 
 सावित्री की छाती में एक हूक सी उठी। उसने एक नज़र भाटिया साहब 
					के निस्पंद शरीर पर डाली और वहाँ से उठ गई। वह सीधे किचेन में 
					गई और सिंक के दोनों नल उसने पूरी रफ़्तार से खोल दिए। पानी 
					बेतहाशा बह निकला। उसे लगा कि तमाम चुप्पी भरे माहौल में कुछ 
					आवाज़ तो हुई।
 
 फिर वह बाथरूम में पहुँची और वाशबेसिन के नलों की टोंटी खोल 
					दी। बाथटब का नल भी खोल दिया और तो और, शॉवर भी चला दिया। वह 
					तब तक वहीं रुकी रही जब तक कि टब भर न गया और उसके किनारों से 
					पानी भेड़ाघाट के झरने की तरह बह कर बाहर गिरने लगा। जबलपुर 
					उसका जन्मस्थान था और हर वीकएंड पर वह भेड़ाघाट जाया करती थी। 
					ऊँचाई से गिरता पानी उसे स्वर्ग से उतरती गंगा की तरह लगता था।
 
 बाथटब से गिरते हुए पानी से भी उसे वही याद आया और एक दिव्य 
					अनुभूति हुई। अब घर में कुछ आवाज़ें तो आईं, नहीं तो सारा का 
					सारा घर न जाने कितने दिनों से निर्जीव और चुपचाप पड़ा हुआ था, 
					भाटिया साहब की तरह। और कुछ हलचल भी हुई नहीं तो सारी गतिमयता 
					ही जैसे भाटिया साहब के स्थिर होते समाप्त हो गई थी।
 
 बाहर दिन निकल आया था। चिड़ियों की चहचहाअट हवा में गूँजने लगी 
					थी। यह चहचहाहट होती तो प्रतिदिन थी पर सावित्री को उसे सुनने 
					का मौका आज ही मिला था। उसने बाहर वाला दरवाज़ा खोला और लॉन पर 
					नज़र डाली। घास का रंग मटमैला हो गया था। भिनसारे की मद्धिम 
					रोशनी में वह और भी बदरंग लग रही थी। आगे बढ़ी और स्प्रिंकलर 
					चला दिए। कुछ देर रुक कर सावित्री उनसे निकलते पानी का नाचना 
					देखती रही फिर अंदर चली आई। इस बीच काफ़ी पानी बह गया था और 
					बेडरूम में भी उसका शोर आने लगा था जहाँ भाटिया साहब का 
					निःस्तब्ध शरीर पड़ा था। पर वह उस कमरे में नहीं गई। उधर नज़र भी 
					न डाली। सब कुछ लाँघ कर किचेन गार्डन में गई और वहाँ का 
					स्प्रिंकलर भी चला दिया। अब तक वह काफ़ी थक चुकी थी और निढाल 
					होकर किचेन की कुर्सी पर ही लुढ़क गई।
 
 •••
 
 दस दिन बीत गए। पूरे दस दिन, पर सावित्री को लगा कि जैसे दस 
					साल बीत गए हों। इतने लंबे दिन, इतनी लंबी रातें उसने पहले कभी 
					महसूस न की थीं। वह सब कुछ यंत्रवत करती रही। फ़ोन करना। 
					एंबुलेंस को बुलवाना। श्मशान में जाकर अकेले ही अंतिम क्रिया 
					करना। बैंक वगैरह की लिखा पढ़ी तो सब भाटिया साहब खुद ही करा गए 
					थे।
 
 बाहर का काम निबटा कर जैसे ही वह घर में घुसती उसे लगता कि कोई 
					और भी उसके साथ-साथ घर में चला आया है। वह बदहवासी में सब तरफ़ 
					नज़र डालती पर कुछ न दिखाई देता सिवाय सन्नाटे के और मुर्दनी के 
					जो अब, शायद, इस घर का हिस्सा बन गई थी। कुछ देर वह इस बारे 
					में सोचती, फिर उसका पानी बहने लगता। सब टोटियाँ खुल जातीं और 
					बाथटब, शॉवर, सिंक और वाशबेसिन, सबके झरने बहने लगते। 
					स्प्रिंकलर तो अपना नाच जारी रखते ही थे।
 
 पिछले चार-पाँच दिन से तो वह कहीं गई ही नहीं है। लिविंग रूप 
					में एक आराम कुर्सी पर बैठी रही है। जब नींद आई तो सो भी वहीं 
					गई। याद भी नहीं पड़ता कि उसने कुछ खाया हो। वह सन्नाटे को 
					तोड़ती पानी की आवाज़ सुन कर ही जैसे पेट भर लेती हो। नल की 
					टोंटियों से तेज़ी से बहते पानी से एक संगीत उभर रहा था जिसकी 
					बारीकी को सिर्फ़ वही समझ रही थी। जीवन का आभास देता एक दिव्य 
					दर्शन भी झर रहा था जिसमें वह डूब रही थी।
 
 एक बहुत पुराना 'धर्मयुग' न जाने कहाँ से उसने निकाल लिया था। 
					उसके मुड़े–तुड़े मुखपृष्ठ पर एक नवविवाहिता की तस्वीर छपी हुई 
					थी। उसके रंग तो अब फीके पड़ गए थे पर जब वह अंक ताज़ा रहा होगा, 
					तस्वीर बहुत आकर्षक रही होगी। भाटिया साहब ने जब उसे देखा तो 
					कहा था कि सुहागरात के वक्त वह बिल्कुल ऐसी ही लगती थी। वे खुद 
					तो हिंदी की पत्रिका पढ़ते न थे पर उन्होंने उसके लिए 'धर्मयुग' 
					बाँध दिया था और वह तब तक नियमित आता रहा, जब तक कि उसका छपना 
					बंद न हो गया।
 
 सावित्री की नज़रें उस वक्त उसी तस्वीर पर जमी हुई थीं जब उसने 
					दरवाज़े की घंटी की आवाज़ सुनी। घंटी शायद देर से बज रही थी पर 
					उसका ध्यान पहले गया नहीं था। उठने का मन नहीं हो रहा था बल्कि 
					सच तो यह था कि उसमें उठने की ताकत ही न बची थी। घंटी एक बार 
					फिर बजी तो वह कुर्सी के हत्थे का सहारा लेकर धीरे से उठी और 
					बड़ी कठिनाई से अपने पैर सीधे किए। फिर दरवाज़े की तरफ़ बढ़ी। उसकी 
					चाल डगमगाने लगी थी। शायद लगातार बैठे रहने की वजह से। उसने 
					देखा कि कालीन बिलकुल भीग गया है जैसे कि उसे किसी शरारती 
					बच्चे ने मूसलाधार वर्षा में डाल दिया हो। उस पर पाँव पड़ने पर 
					सावित्री के स्लीपर भी भीग गए।
 
 कालीन के परे भी पानी फैल गया था और पूरा कमरा छोटा तालाब बन 
					गया था। पानी दरवाज़े की संध से बाहर भी जा रहा था क्योंकि जैसे 
					ही उसने किवाड़ का पल्ला ज़रा सा खिसकाया, वहाँ छपाक की आवाज़ आई।
 उसे पिछले साल देखी 'टायटैनिक' याद आई। उसे लगा कि उसका घर भी 
					छोटा 'टाइटैनिक' बनता जा रहा है।
 घंटी फिर बजी। सावित्री के मुँह के किसी बहुत गहरे भाग से 
					निकला, 'अच्छा।'
 पल्ला खोल कर देखा कि सामने एक लड़की खड़ी है। कौन होगी यह, याद 
					करने की कोशिश करने लगी। क्या उसने इसे कहीं देखा है, शायद, या 
					शायद नहीं। कहीं यह वह तो नहीं जिसकी वह सिर्फ़ छाया देखती रही 
					है?
 
 पर लड़की ने ही पहले बोल दिया, 'देखिए, मैं रीता हूँ। हम, यानी 
					मैं और मेरे पति अशोक, आपके पड़ोसी हैं। हम आपकी परेशानी समझते 
					हैं और हमें आपसे संवेदना भी है पर लगता है कि आपको शायद पता 
					नहीं है कि आपके स्प्रिंकलर खुले रह गए हैं।' कह कर उसने अपनी 
					नज़र अपने पाँवों पर डाली जैसे कि वह दिखलाना चाहती हो कि उसके 
					जूते किस कदर कीचड़ में सन गए हैं, आपकी वजह से। सावित्री ने 
					मुस्कुराने की कोशिश की पर उसके होंठ विकृत होकर ही रह गए। इस 
					बीच आगंतुका ने हाल के भीतर झाँक लिया था कि वहाँ का कालीन किस 
					तरह भीगा हुआ है और सावित्री के स्लीपर कैसे पानी से तर-बतर 
					हैं। वह एकबारगी घबड़ा गई बल्कि उसे डर भी लगने लगा।
 सावित्री को वह बच्ची सी लगी और उसे उस पर प्यार भी हो आया। 
					उसने तसल्ली देते हुए कहा, 'ठीक है।'
 
 पर रीता का डर अभी वैसा ही था। उसने कहा, 'शायद नल ख़राब हो गए 
					होंगे। अगर आप कहें तो प्लंबर अशोक लिवा लाएँगे।' वह दरवाज़े से 
					ऐसे हटी जैसे कि पानी का रेला उसका पीछा कर रहा हो। फिर वह 
					वापस जाने को मुड़ गई। आधे रास्ते पलट कर उसने फिर कहा, 'हमारा 
					पूरा घर भीग गया है। बाहरी कमरे का फ़र्श और तमाम दीवारें भी। 
					आपको पानी बंद करने के लिए फ़ौरन ही कुछ करना पड़ेगा।'
 सावित्री ने फिर दोहराया, 'ठीक है।'
 वह चली गई और सावित्री ने अपना दरवाज़ा बंद कर लिया।
 
 •••••
 
 सब वैसा ही चलता रहा बल्कि सावित्री ने वैसा ही चलने दिया। दो 
					दिन और गुज़र गए उसे उसी तरह आराम कुर्सी पर बैठे और उस पुराने 
					'धर्मयुग' पर छपी उस धूमिल तस्वीर पर आँखें गड़ाए।
 
 सुबह-सुबह ही उसने फिर घंटी सुनी। वह ज़्यादा ज़ोर से बजाई गई थी 
					इसलिए उसने पहली बार में ही सुन ली। अब उसमें उठने की ताकत और 
					कम हो गई थी और सचमुच वह उठना नहीं चाहती थी पर दरवाज़े पर जो 
					था उसे सब्र न था। उसने अगली बार लगातार कई बार और ज़्यादा देर 
					तक घंटी को बजने दिया।
 
 हाल में पानी ज़्यादा था इसलिए भी उसे दरवाज़े तक पहुँचने में 
					अधिक देर लगी।
 बाहर एक सुदर्शन युवक खड़ा था। उसका चेहरा तो आकर्षक था किंतु 
					वह तमतमाया हुआ था। फिर भी सावित्री को अच्छा लगा, ठीक वैसा 
					जैसा भाटिया साहब शादी के समय लगा करते थे। उन्हें भी जब 
					गुस्सा आता तो उनका चेहरा इसी तरह तमतमा उठता था, लाल शलगम 
					जैसा। पर उस युवक को जल्दी थी। उसने सावित्री को देखने में वक्त 
					बरबाद न किया और तुरंत बोला, 'देखिए, दो दिन पहले मेरी पत्नी 
					आपके पास आई थी। उसने आपको चेताया होगा कि आपके नल खुले हुए 
					हैं और पानी हमारे लॉन और घर में फैल रहा है और आपको तुरंत कुछ 
					करना चाहिए। अब तो हमारी दीवारें भी भीग गई हैं और वालपेपर 
					उतरने लगा है। लॉन की कीचड़ भीतर आने लगी है और उसके साथ कई 
					कीड़े–मकौड़े भी। सुन रही हैं न आप?'
 पर वह लगातार उसे सिर्फ़ देखे जा रही थी। जब उसने यह पूछा तो 
					उसने उसके शब्दों पर ध्यान दिया और जवाब में हल्की सी 'हूँ' 
					की।
 'नहीं, आप सुन नहीं रही हैं' वह लगभग चिल्ला कर बोला, 'देखिए, 
					आपको अब तुरंत ही कुछ करना होगा। हमारी फेंसिंग भी उखड़ने लगी 
					है। और अगर एक दिन और ऐसे ही रहा तो हमारे मकान ही ढह जाएँगे। 
					पानी उनकी नींव में जाने लगा है। देखिए, यह मैं सिर्फ़ अपने लिए 
					नहीं कह रहा हूँ, ख़तरा आपको भी है, शायद हमसे भी ज़्यादा। आप 
					समझ रही हैं न! वह फिर भी कुछ न बोली तो वह भी ज़ोर से बोला, 
					'आप सुनती क्यों नहीं? आप ठीक तो हैं न, ईश्वर के लिए जल्दी 
					कुछ कीजिए। नहीं तो . . .' उसने वाक्य अधूरा छोड़ दिया पर हाथ 
					से कुछ ऐसा इशारा किया कि जैसे वह उसे खा जाएगा।
 
 अपने लॉन से उसकी बीवी रीता भी देख रही थी ओर डर रही थी कि 
					कहीं उसका गुस्सैल पति कुछ कर न बैठे। वह वहीं से चिल्लाई, 
					'लौट आओ अशोक, क्या हुआ? आख़िर पानी ही की तो बात है।'
 'सिर्फ़ पानी की बात है यह?' अशोक ने वहीं से रीता पर सवाल 
					उछाला। 'देख नहीं रही हो कि फेंस किसी भी वक्त गिर सकती है और 
					जल्द ही नींव हिलेगी और फिर एक दिन मकान ही ढह जाएगा।' तभी 
					अशोक की नज़र सावित्री के मकान के भीतर गई। वहाँ सब ओर पानी 
					फैला था। कालीन जैसे तालाब में पड़ा था। दीवारों का प्लास्टर 
					भीग कर फूल गया था। पूरे घर में अजीब सी गंध आ रही थी और 
					लगातार एक सरसराहट जो ज़रूर पानी बहने की होगी।
 'देखिए, पानी . . .कुछ करना ही होगा आपको।' इस बार उसने नरमी 
					से कहा।
 'पानी? कैसा पानी?' सावित्री के मुँह से निकला। और उसने झपाक 
					से दरवाज़ा बंद कर लिया। वह अस्पष्ट आवाज़ में बड़बड़ाई, 'ये लोग 
					मुझसे भाटिया साहब को छीनना चाहते हैं। उनमें जो थोड़ी-बहुत 
					हलचल बची रह गई है, वह भी इनसे देखी नहीं जाती।'
 
 •••••
 
 अगले दिन उसी समय फिर घंटी बजी और देर तक बजती रही। सावित्री 
					ने जान लिया कि कौन होगा इसलिए वह अपनी कुर्सी से उठी ही नहीं। 
					घंटी फिर बजी और इस बार उसके साथ आवाज़ भी आई, 'फायर ब्रिगेड' 
					कहते हुए किसी ने दरवाज़ा पीटना भी शुरू कर दिया।
					आखिर सावित्री को उठना ही पड़ा। मन–ही–मन वह बड़बड़ाती भी रही और 
					धीरे–धीरे दरवाज़े की ओर बढ़ती रही। इस बीच दरवाज़ा लगातार पीटा 
					जाता रहा। दो हट्टे–कट्टे लोग थे। उसने हैरत से देखा कि सिर्फ़ 
					फायर ब्रिगेड़ के लोग ही नहीं थे। बल्कि पुलिस इंस्पेक्टर भी 
					साथ था और एक महिला कांस्टेबल भी। आगे इंस्पेक्टर ही बढ़ा। 
					बोला, 'हमें शिकायत मिली है कि आप नल बंद नहीं कर रही हैं। 
					आपके यहाँ से लगातार पानी बह रहा है। फायर ब्रिगेड वाले आपके 
					नल बंद करने आए हैं। उन्हें भीतर जाने दीजिए।'
 'नल? पानी? वे क्यों बंद करेंगे हमारे नल? हमने तमाम बिल दे 
					रखे हैं। आगे जो आएँगे, वे भी दे देंगे।' उसने कड़ाई से कहा।
 
 इंस्पेक्टर सावित्री की उम्र का लिहाज करके या किसी और वजह से 
					फिर भी नर्मी से कहा, 'देखिए, हम बिल देने या न देने की बात 
					नहीं कर रहे हैं। आप समझती क्यों नहीं कि पानी के लगातार बहने 
					से आपका ही नहीं, आपके पड़ोस का मकान भी गिर सकता है और इससे 
					आपकी जान को ख़तरा हो सकता है। हम आपको ऐसी हालत में यहाँ रहने 
					नहीं दे सकते। यदि आप नहीं मानेंगी तो मजबूरन हमें आत्महत्या 
					की कोशिश करने के जुर्म में आपको गिरफ़्तार करना पड़ेगा। अच्छा 
					हो कि आप खुद हमारे साथ चलें। क्या आपका कोई रिश्तेदार है? 
					बेटा-बेटी या कोई और?'
 सावित्री ने इंकार में सिर हिलाया। वह कैसे बताए कि उसका 
					एकमात्र बेटा अमेरिका में जा बसा है और पिछले दस साल से उसने 
					फ़ोन तक नहीं किया है।
 'तब हम आपको किसी वृद्धाश्रम में भरती कर सकते हैं। जहाँ आप जब 
					तक चाहें रह सकती हैं या जब आपका मकान रहने लायक हो जाए, वापस 
					आ सकती हैं। पर हम आपको इस हालत में इस मकान में तो नहीं रहने 
					देंगे।'
 
 इस बीच फायर ब्रिगेड के आदमी सावित्री को दरवाज़े से ढकेल कर 
					तेज़ी से पूरे मकान में घूम आए और उन्होंने आनन–फानन में सारे 
					नल बंद कर दिए। लॉन के स्प्रिंकलर भी बंद कर दिए। सावित्री ने 
					देखा कि नाचता हुआ पानी एक झटके के साथ बंद हो गया, जैसे 
					भाटिया साहब का शरीर एकबारगी निश्चल हो गया था। उसके भीतर से 
					एक हूक सी उठी पर उसे देखने की फ़ुरसत किसे थी? उसने हताशा में 
					अपने पाँव पटके और दोनों हाथों से सिर थाम लिया। फिर वह घूम कर 
					अंदर चली गई।
 इंस्पेक्टर ने कहा, 'आप जल्दी से अपनी ज़रूरी सामान ले लीजिए। 
					आपको इसी वक्त हमारे साथ चलना होगा। जाइए जल्दी कीजिए।' फिर 
					साथ आई महिला कांस्टेबल को इशारा किया, 'तुम इनके साथ भीतर 
					जाकर सामान बाँधने में मदद करो।'
 पर सावित्री अपने आप ही तुरंत आकर खड़ी हो गई, 'ले चलो जहाँ ले 
					चलना है। जब भाटिया साहब को ही तुम सबने छीन लिया तो मैं यहाँ 
					किसके लिए रहूँ?'
  
 ••••
 
 सावित्री जब एक अटेची लेकर उस इंस्पेक्टर तथा उन आदमियों के 
					साथ निकली तो उसने पलट कर अपने उस रो हाउस की ओर नज़र तक न डाली 
					जिसे उसने बड़े शौक से सजाया था। पड़ोस के मकान के पाथवे पर खड़ी 
					रीता यह सब देख रही थी। उसकी आँखें नम हो आईं और उसने देखा कि 
					पुलिसवैन में सवार होते समय सावित्री के हाथ उसके लिए हिल रहे 
					थे।
 |