जल पूजन
-कादंबरी
मेहरा
एक दिन सुबह सुबह सात
बजे मेरी बेटी का फोन आया। वह पूछना चाहती थी
कि हम घर छोड़ते समय द्वार पर चाँदी के लोटे में जल
लेकर 'सगुन' क्यों करते
हैं? इस प्रथा में उसे ही चुन्नी सरपर ढाँक कर खड़ा
किया जाता था। मेरी बेटी
दन्त-चिकित्सक है। पाश्चात्य संस्कृति के प्रभाव से
उसकी आधुनिक सोच व जीवन
में कार्य की व्यस्तता को देखते हुए मुझे इस प्रश्न पर
बड़ा आश्चर्य हुआ। कारण पूछा
तो वह बड़ी मासूमियत से बोली कि उसका नौ वर्ष का पुत्र
स्कूल ट्रिप के साथ
परदेस जा रहा है और वह उसको घर से भेजते समय वही सगुन
करना चाहती है।
मेरा मन भर आया। एक और माँ! एक और अनजान की आशंका!! एक
और
विचलित मन !!! मुझे भी तो मेरी माँ ने यह सिखाया था।
गर्व से एक लम्बी
साँस ली, छाती भर ऑक्सीजन या जीवन भर का आश्वासन? या
परम्परा की
सनातन, चिरंजीवी निरंतरता!! ममता भरे ह्रदय के डर ने
ही तो आखिर धर्म को
जन्म दिया।
माँ की सिखाई रीति कुछ इस प्रकार है।
जब कोई घर से परदेस यात्रा पर जाता है तो किसी कन्या
या सुहागिन को लाल
चुन्नी सर पर ढँक कर द्वार के दाहिनी ओर खडा कर दिया
जाता है। उसके एक हाथ
में जल से भरा पात्र व दूसरे में शक्कर की कटोरी होती
है। जाने वाला कटोरी की
शक्कर चुटकी भर जल में चुटकी भर कन्या के मुँह में व
चुटकी भर अपने मुँह में
डालता है। तदुपरांत जेब से पैसा निकालकर जलपात्र में
डालता है और उसे प्रणाम
करके दहलीज लाँघ जाता है। इसके साथ ही एक बहुत पुरानी
अरदास ( प्रार्थना
)बोली जाती है :-- सदा भवानी दाहिनी, गौरीपुत्र गणेश। पाँच देव रक्षा
करें, ब्रह्मा,विष्णु, महेश।
जल पूजन
से जुड़े विश्वास और दंत कथाएँ-
माँ ने बताया था कि यह प्रथा कुएँ की पूजा का सूक्ष्म
रूपांतर है। हर क्षेत्र का
अपना कुआँ या बावड़ी होता था। जल की पूजा से ही सब शुभ
काम शुरू किये
जाते हैं और समाप्त किये जाते हैं। इस विधि का आशय यह
था कि जाने वाला
सही सलामत वापिस आये और उसी जलको पूजता रहे।
आधुनिक कल संस्थानों के बनने से पूर्व प्राकृतिक जलाशय
--- कुएँ, बावड़ियाँ,
नदियाँ और तालाब आदि ही पानी के स्रोत थे जनसाधारण के
लिए। इनको बहुत
सम्मान दिया जाता था। अनेकों रीति-रिवाज़ हमारे
शुभ-अशुभ अवसरों से जुड़े हैं
जिनमे जल पूजन का विधान है।
कोई भी पूजा हो, उसका आरम्भ जल से होता है। इसके तीन
चरण हैं। प्रक्षालन,
आचमन, एवं संकल्प। प्रक्षालन यानि हाथ पैर धोना, जल से
शुद्धि, आचमन यानि
जल से मुख एवं आंतरिक अंगों की शुद्धि, संकल्प यानि
शुद्ध मन से की गयी
प्रतिज्ञा। संकल्प के साथ ही दक्षिणा का विधान है, यह
आपके धन की शुद्धि होती
है। इस प्रकार तन, मन, धन, तीनों की शुद्धि करने के
बाद हम पूजा आरम्भ करते
हैं . अधिक दिन नहीं हुए हैं जब पूजा के लिए जल कुँए
से मँगवाया जाता था। अब
हम इस रिवाज का पालन नहीं कर रहे। पहले हरेक घर में
कुआँ बनवाया जाता
था। बड़े रईसों ने अपने पूर्वजों का सत्कार करने के लिए
अनेकों कुएँ बनवाये थे।
विज्ञान की उन्नति के कारण अब नल के पानी को ही शुद्ध
माना जाता है। अनेकों
कुँए बड़े शहरों में बढ़ती आबादी एवं निर्माण की भेंट चढ़
गए। पेड़ों के काट दिए
जाने से अनेकों कुएँ सूख गए। बीसवीं सदी के आरम्भ में
जब मलेरिया की रोकथाम की गयी तो अनेकों कुओं को ढक दिया गया व अनेकों को
पाट दिया गया
क्योंकि उनमें मच्छर पैदा होते थे।
म्युनिस्पैलिटी के इस फरमान का जोरदार विरोध किया गया।
जैन सम्प्रदाय ने तर्क रखा की जिस पानी पर सूर्य और
चन्द्र की छाया न पड़ती हो उससे मंदिर में तीर्थंकरों
की मूर्तियों को स्नान नहीं कराया जा सकता। हिन्दू
धर्मावलम्बियों की भी यही दलील थी। यह सच है कि सूर्य
की रौशनी से कीटाणु मर जाते हैं मगर गहरे कूपों में
इतनी रोशनी नहीं पहुँच पाती।
इस आज्ञा का सबसे ज्यादा विरोध पारसी समुदाय ने किया।
पारसियों का विश्वास है कि कुओं में पीर या सैय्यद या
परियों का वास होता है और उनको ढँकने से वह क़ैद हो
जायेंगे अतः रात को विचरण नहीं कर पायेंगे। न ही
उन्हें दिन का उजाला मिलेगा न रात की चाँदनी। उनकी
पूजा करना असंभव हो जाएगा। पारसियों के साथ साथ उसी
जगह रहनेवाले अन्य समुदायों के लोग भी नाराज़ हुए।
पारसी लोग नियमित रूप से कुओं की पूजा करते हैं। वह
नारियल फूल माला धूप आदि से पूजा करते हैं और मिठाई
आदि भी चढ़ाते हैं। इसका कारण है कि पारसी धर्म में
''आर्देवी सूरा अनाहिता'' नामक देवी जलाशयों की देवी
है। कुओं में चढ़ाई पूजा वहाँ रहने वाली परियाँ या महान
आत्मा देवी तक ले जाती है इसके साथ ही यह अंधविश्वास
प्रचलित था कि इन आत्माओं को अगर नाराज किया गया तो ये
अनिष्ट करेंगी। यह विशवास जनसाधारण में भी था, अतः
कुओं को ढँकने का कोई और तरीका सोचा गया। कुछ ने जाली
लगवा ली और कुछ ने लकड़ी के पत्तों में जाली का दरवाज़ा
लगवाया। मुम्बई में कुओं से सम्बंधित अनेक दन्त कथाएँ
सामने आईं।
एक बनिया था। वह अपने परिवार के साथ तीर्थयात्रा पर जा
रहा था। राह में उसे व उसके परिवार को प्यास लगी। एक
घने बरगद के पास कुआँ आदि देखकर बनिया रुक गया। उसने
बैलगाड़ी पेड़ से बाँधी और जल आदि लेने गया। मौक़ा देखकर
कुएँ में रहनेवाले जिन्न, एक्दंतोरियो ने उसकी पत्नी
को चुरा लिया। बनिए ने उसे बहुत चढ़ावा दिया और अपनी
पत्नी को वापिस माँगा। एकदंतोरियो खा पी कर भी मुकर
गया तिस पर बनिया रोता रोता बोचकीबाई के पास गया।
बोचकी बाई ने फैसला बनिए के पक्ष में दिया। पर
एकदंतोरियो न माना। तब बोचकी बाई ने उसे बाँस की नलकी
में क़ैद कर लिया और बनिए को उसका परिवार वापिस मिल
गया। अब एक्दंतोरियो को यह सज़ा मिली कि वह सदा अपनी
कहानी सबको सुनाएगा। जो चुपचाप सुन लेगा उसे वह कभी
नहीं सताएगा।
कहा जाता है कि कालबादेवी मुम्बई के निकट एक थिएटर के
मालिक ने अपनी इमारत बनवाते समय वहां के कुएँ को बंद
करवा दिया . सब हिन्दू और पारसियों ने उस जगह को अशुभ
मानकर थिएटर का बाईकाट कर दिया। थिएटर नहीं चला। तब
उसने वह जगह बेच दी और तबाह हो गया। अगले मालिक ने
कुआँ फिर से खुलवा दिया और उसी जगह से लाखों कमाए।
घोघा स्ट्रीट मुम्बई में एक कुआँ था जिसे पारसी पूजते
थे। कहते हैं कि यह इच्छादानी कुआँ था, आठ या बारह
स्त्रियाँ, सुहागिनें, कुँए की जगत के आस पास घेरा बना
कर खड़ी हो जाती थीं। पूजन आदि के बाद वह प्रश्न पूछती
थीं। यदि जल में बसने वाली परियों या आत्मा का उत्तर
हाँ में होता था तो पानी की सतह पर आग की लपटें नज़र
आती थीं।
कुओं में गन्दगी फेंकना या शव फेंकना बदकिस्मती को
न्यौता देना है। सौ वर्ष पहले प्रसिद्ध नौरोजी वाडिया
के घर को उनकी मृत्यु के बाद बेच दिया गया। इस विशाल
हवेली में एक कुआँ था जिसमे कहते हैं रात को परियाँ
नाचा करती थीं। साथवाली एक बुधिया अक्सर यह स्वर्गिक
संगीत सुना करती थी। नए मालिक के आने पर कहते हैं कि
यह संगीत बंद हो गया और एक के बाद एक उसके परिवार में
कई मौतें हो गईं। कारण यह कि उसने कुँए के पास वाले
कमरे को शवगृह बना दिया था। दफ़न करने से पहले मृत शरीर
इसमे रखे जाते थे। इससे कुआँ भ्रष्ट हो गया और उसमे
निवास करनेवाली आत्मा नाराज़ हो गयी। शव गृह हटा देना
पडा। ऐसे ही दमिश्क सीरिया में रिवाज़ है कि यदि कोई
शवयात्रा घर के पास से गुजरे तो घर का सारा पानी
अशुद्ध हो जाता था और फेंक दिया जाता था।
अनेकों काल्पनिक जलदैत्यों, दुरात्माओं एवं संखिनियों
के बावजूद, हिन्दू धर्म में जलपूजन उनके भय से नहीं
किया जाता था। वास्तव में जल ही जीवन है, ऐसी मान्यता
है। मानव जीवन का निर्माण जल में ही होता है।
तदुपरान्त उसका पोषण जल के बिना संभव नहीं। प्रजनन
मानवमात्र का सर्वप्रथम अनुसंधान था। प्रजनन की
अनिवार्यता सर्वोपरि रही है, इसलिए जल को देवता मान कर
उसकी वंदना की गयी है। यह पूरे भारत में ही नहीं वरन
सारे विश्व में मातृशक्ति का पर्याय मानकर पूजित है।
वर्ष में दो बार पूरे भारत के कोने कोने में मनाया
जाने वाला नवरात्रि का पर्व इसका सबसे ज्वलंत उदाहरण
है। मिटटी के घड़े में जल भर कर उसपर शीर्ष स्वरूप
नारियल रखा जाता है। नारियल पर कौड़ियों के नेत्र चिपका
कर उसे लाल सूती कोरा कपड़ा ओढ़ाया जाता है। यह जल कुम्भ
मातृत्व का प्रतीक है . इसे गरबा यानि गर्भ कहा जाता
है . नौ दिन व नौ रात्रि इसकी पूजा होती है। दसवें
दिन इसकी पूर्णाहुति होती है। यह नौ का अंक गर्भ के नौ
महीनों का सूचक है और दसवें महीने जन्म का।
जल और स्नान का
महत्व
धार्मिक अनुष्ठानों में मूर्ति पूजा करते समय एक लंबा
चौड़ा अनुष्ठान केवल स्नान का है। अब तो श्री साईं बाबा
को भी घी चन्दन दूध दही से नहलाया जाता है। धर्म
संबंधी व जीवन संबंधी संस्कारों व कर्मों का निर्वाह
हो जाये तो मनुष्य को अपनी सद्गति के लिए भी अनुष्ठान
करना सब धर्मों की हिदायत है। अतः तीर्थयात्रा आवश्यक
है। तीर्थ शब्द का अर्थ शब्दकोष में जल है।
प्रजनन एवं जन्म सम्बन्धी सभी रस्मों में कुँए या बहते
पानी की पूजा या उपस्थिति अनिवार्य है। सातवें महीने
तक गर्भस्थ शिशु के सभी अंग पूरे बन जाते हैं, केवल
उनका पोषण बाकी रहता है, इसलिए गोद भराई की रस्म
सातवें महीने की जाती है। गर्भिणी को कुँए के जल से
स्नान कराया जाता है, पश्चात उसकी गोद में फल मेवा
मिठाई एवं उपहार रखे जाते हैं। गाँवों में यह पूजा नदी
या कुँए के पास ले जाकर की जाती है।
ईरान में गर्भिणी की रक्षिका देवी ''आर्देवी सूरा
अनाहिता'' के नाम से जानी जाती है। इसका निवास जल-ताल,
कुओं, नदियों में माना जाता है। यह पारसी धर्म के
प्रमुख देवता -आपान नापात -(जो वैदिक देवता भी हैं और
वरुण के समकक्ष हैं ) की सहयोगी मानी जाती है, इसलिए
गर्भिणी स्त्रियाँ कुँए के पास जाकर इसकी पूजा करती
हैं व दीप जलाती हैं। मुम्बई और उसके आस पास बसी पारसी
बिरादरी यह रिवाज़ अपने साथ लेकर आई थी
और आजतक इनका पालन करती है। स्त्रियाँ कुँए की पूजा को
सुहाग व संतान की कुशल के लिए अनिवार्य मानती हैं। वे
संध्या पूजन भी कुँए पर करती हैं और कुँए के अन्दर आले
में दीपक जलाती हैं।
रोमन जाति में विश्वास था कि ''इगेरिया'' नाम की
जलदेवी गर्भिणी की रक्षा करती है और उसकी पूजा से सुखद
प्रसव संभव होता है, इसलिए मिटटी के पात्र में भरकर
कुँए से पानी लाया जाता था और उसे स्नान कराया जाता
था। कालान्तर में रोमन धर्म शनैः शनैः लुप्त हो गया और
उसका स्थान ईसाई मत ने ले लिया रोमन देवी देवताओं को
खदेड़कर उनका स्थान ईसाई संतों ने ले लिया। मातृदेवी का
पद जीसस क्राइस्ट की माता मेरी को मिल गया, परन्तु
आदिम विश्वासों का उन्मूलन सहज नहीं क्योंकि उनकी जड़ें
कई युगों से भी गहरी होती हैं, अतः यह प्रथा ईसाइयों
ने भी जारी रखी।
मध्य युग में ईसाई धर्म में क्रान्ति आई तो पुराने
धर्म को माननेवाले यूरोप से अमेरिका चले गए। वहाँ यह
रिवाज़ खूब पनपा। सातवें महीने गर्भिणी को स्नान कराना
एक महत्वपूर्ण सामाजिक उत्सव है वहाँ इसे ''शावर्स''
कहा जाता है। कहना न होगा कि अमेरिका में बसे भारतीयों
ने भी इस रिवाज़ से सहर्ष संधि कर ली है और सातवें
महीने धूम धाम से शावर्स की रस्म अदा की जाती है। भारत
में गोद भराई होती हो या नहीं पर लन्दन अमेरिका में
खूब चाव से हम लोग मनाते हैं और होनेवाली माँ को
अनेकों उपहार दिए जाते हैं।
भारत में तो पवित्र स्नान की परम्परा जीवन के सभी
पक्षों से जुड़ी है। शिशु का प्रथम स्नान, षष्ठी पूजन,
तेरह दिन का नहान, चालीस दिन का स्नान व जलाशय की
पूजा, जिसके बाद नवप्रसूता घर आँगन से बाहर आ जा सकती
है।
पुरुषों के प्रथम बाल कटाने पर मंडन, मुंडन यज्ञोपवीत
धारण करने पर तीर्थ स्नान, शादी के समय पीठी उबटन आदि
अनेक आयोजन हैं जो जल पूजन का ही रूपांतर कहे जा सकते
हैं। अनेक घरों में जब दुल्हन गृह प्रवेश करती है तो
सास पानी से परछन उतारती है।
सोतों और चश्मों
का महत्व
भारत के ही
नहीं इस्लाम और ईसाई धर्म के भी सभी तीर्थ किसी न किसी
जल स्रोत के पास हैं। यहाँ दर्शन से पूर्व स्नान
आवश्यक है। बात साफ़ है, मंदिरों, गिरिजों, मस्जिदों
आदि का निर्माण ही जलाशयों के पास किया जाता था जो कि
देवताओं से पहले से पूजित व प्रसिद्ध थे।
इनमे से अनेक गरम पानी के सोते हैं और उनका पानी
शारीरिक कष्टों से मुक्ति दिलाने वाला माना जाता है,
खासकर पहाड़ों के ऐसे सोते प्रसिद्ध हैं क्योंकि ठन्डे
मौसम में जोड़ों के दर्द में यह जरूर औपचारिक होते हैं।
पानी में भूगर्भ स्थित रसायनों के कारण इनकी तासीर
अवश्य रोग निदान का साधन रही होगी। बद्रीनाथ जी एवं
यमुनोत्री ऐसे ही कुण्ड व धाराएँ हैं। यूरोप में अनेक
जगह ऐसे चश्मे हैं। चश्मे शाही काश्मीर का पानी रोज
पंडित नेहरु के लिए हवाई जहाज से आता था। इंग्लैण्ड
में बाथ शहर का गरम पानी का कुण्ड रोमन समय से
प्रसिद्द है। रोमन समय में इसके चारों और सुन्दर भवन
बनाया गया था केवल राजा के नहाने के लिए, इसका
जीर्णोद्धार किया गया है और यह एक पर्यटकों का विशेष
आकर्षण है। यहाँ चर्च भी अति प्राचीन है।
अनादिकाल से ऐसे चश्मों का महत्त्व इंसानों ने पहचाना
और इन्हें सम्मानित किया। समस्त तीर्थों का उद्भव इसी
प्रकार हुआ है।
अमृतसर के हरमंदर साहेब का निर्माण भी कुछ ऐसे ही हुआ
था। श्री गुरु रामदास जी ने देखा कि एक जल सरोवर में
कौआ नहाया, जब वह नहा कर बाहर आया तो वह सफ़ेद रंग का
हंस बन गया और उड़ चला। जब उन्होंने यह करिश्मा देखा तब
उस स्थान को पवित्र मानकर वहाँ की सारी ज़मीन खरीद ली
और सरोवर को पक्का बनवाया तथा हरमंदर साहिब का निर्माण
कराया। यही कालांतर में अमृतसर यानि अमृत सरोवर बन
गया।
मुंगेर जिले में एक कुआँ है जिसमें उबलता हुआ पानी आता
था। किंवदंती यह है कि जब सीताजी ने अग्नि परिक्षा दी
तब वह इसमे कूद गई। जिस कारण से इसका पानी उबलने लगा।
समय के साथ पानी सामान्य तापमान पर आ गया और जनता इसमें
नहाने धोने लगी। पिछली शती में वहा का शासन अंग्रेजों
के हाथ में था। अंग्रेज अफसर डा॰ ब्युकैनन को यह बात
ज्ञात नहीं थी जल अस्वच्छ हो गया था और पीने लायक नहीं
रहा था, इसलिए उन्होंने इस के चारों ओर दीवार खिंचवाने
का हुकुम दिया। जैसे ही दीवार बनानी शुरू हुई, कहते
हैं कि पानी फिर उबलने लगा और असह्य हो गया। मजदूर काम
छोड़कर भाग गए। डॉ ब्युकैनन यह करिश्मा देखकर स्थानीय
विश्वासों की ताकत से दब गए और काम रुकवा दिया। \
वाराणसी की ज्ञानवापी एक अलौकिक शक्ति वाला कुआँ है।
इसका जल पीने से आत्मिक ज्ञान की प्राप्ति होती है।
लखनऊ के बड़े इमामबाड़े में लक्ष्मण जी द्वारा बनाया हुआ
एक कूप है जिसका जल पवित्र माना जाता है। जिजुवादा
गुजरात में नालेश्वर महाराज के मंदिर के कुएँ, कहते
हैं भादों की पूर्णिमा को गंगा जी पाताल मार्ग से आती
हैं।
भोलावा नामक स्थान पर सरस्वती नदी ने समुद्र की ओर
जाते समय पड़ाव डाला था, अतः कुएँ में उनका वास है।
गिरगाँव में भृगु आश्रम का कुआँ, गिरनार पर्वत के पास
का मृगी कुण्ड, द्वारिकाधीश में गोमती कुण्ड नासिक में
कट्काले तीर्थ, रेवती कुण्ड, पगहे कुण्ड व राजस्थान का
पुष्कर कुण्ड आदि अनेक जलाशय भारत के कोने कोने में
पूजित हैं।
इसके अतिरिक्त उत्तर से दक्षिण तक, कई स्थानों पर सीता
रसोई मिलती है जहाँ कुएँ बने हैं। प्राचीन काल से
विन्ध्याचल, मुंगेर, सुल्तानपुर, इलाहबाद, कन्नौज आदि
उल्लेखनीय हैं।
उत्तरी फ्रांस में लौर्ड्स नामक शहर में एक चर्च है
जहाँ प्रतिवर्ष लाखों की संख्या में प्रार्थी अपने
शारीरिक कष्टों के निवारण हेतु आते हैं। कहा जाता है
कि पहाड़ों से घिरी इस जगह पर लोग केवल भेड़ें चराते थे।
ऐसे ही एक चरवाहे की कन्या थक कर सो गयी। वहाँ एक गुफा
थी। उसने देखा कि गुफा में एक तेज रोशनी के घेरे में
एक स्त्री खड़ी है और उससे कह रही है कि इस सोते के
पानी में नहा ले, इसे पी ले, यहाँ मेरा चर्च बना दे।
पहले तो उसने कोई ध्यान नहीं दिया, परन्तु कहते हैं कि
यह स्त्री बार बार प्रकट हुई और उस लड़की को दर्शन दिए।
उसने पूछा कि तुम कौन हो तब वह बोली कि मैं जीसस की
माँ हूँ। तब उस लड़की ने अपने पिता को बताया। पहले तो
म्युनिसिपल कौंसिल ने ध्यान नहीं दिया पर तीन साल के
बाद उस जगह के चर्च वालों ने सारी ज़मीन खरीद ली और
वहाँ एक आलीशान चर्च माँ मेरी के नाम से बनवाया। यह
१८५८ की बात है। इस गुफा में ठीक उसी स्थान पर माँ
मेरी की मूर्ति बना दी गयी है जहाँ उन्होंने दर्शन दिए
थे। लौर्ड्स के इस जल स्रोत की महिमा इतनी प्रसिद्द है
कि सारे विश्व से विश्वासी भक्त इसे पीने और ले जाने
आते हैं। उनका धर्म जो भी हो वह सब इसके चमत्कारी
प्रभाव को मानते हैं। चर्च की किताबों में ऐसे ६७
किस्से दर्ज हैं जिनमे प्रार्थी जल पीकर रोगमुक्त हो
गए। यहाँ मीलों लम्बी भक्तों की लाइन लगती है। केवल
चर्च में जलाई जानेवाली मोमबत्तियों का भार प्रतिवर्ष
८०० टन आँका गया है। चर्च की ओर से यह पानी प्लास्टिक
की बोतलों में मुफ्त वितरित किया जाता है।
नदियों को पूजने की परंपरा
जिस प्रकार हमारे यहाँ गंगा स्नान का महत्त्व है वह
अन्यंत्र उपलब्ध नहीं। कुम्भ स्नान पूरे विश्व का सबसे
बड़ा आयोजन है जिसमे सात करोड़ के लगभग जनता एक ही दिन
में गंगा में डुबकी लगाती है। तार्किक स्पष्टीकरण हो
या न हो, धार्मिक आस्था हो न हो, इस अवसर पर सम्मिलित
होना हर कोई अपना सौभाग्य समझता है। भारत के मंत्री
हों या हॉलीवुड की सुंदरियाँ! लन्दन का मिलेनियम डोम
सन २००० ई में अस्सी करोड़ पौंड की लागत से बना और
मुश्किल से ६० लाख दर्शक उसे देखने आये। हार कर उसे
बंद कर देना पडा। २००१ में जब यह बंद हुआ तब उसी साल
कुम्भ के मेले में ७ करोड़ लोगों ने स्नान किया।
इंग्लैण्ड के प्रवक्ताओं ने अपनी एक विज्ञप्ति में कहा
कि जो काम महाधनी राष्ट्र अपनी समस्त वैज्ञानिक व
तकनीकी जोड़- जुगत से न कर पाया उसे एक खुले रेत के
मैदान में नंगे - भूखे साधुओं ने केवल कुछ मंत्र पढ़कर
कर दिखाया। तो फिर यह कौन सा आकर्षण है मानवों के दिल
में?
रूस देश में भी ज़ार के समय में नीवा स्नान होता था।
जार अपनी प्रजा के साथ नदी में डुबकी लगाता था। ऐसे
स्नान में केवल शारीरिक ही नहीं वरन आत्मिक शुद्धि भी
मानी जाती है। क्या इसका कारण जल में स्थापित देव तत्व
है? विवाह से पूर्व, दुल्हा दुल्हिन को देवताओं के
आशीर्वाद के लिए तैयार करते समय लगभग सभी संस्कृतियों
में स्नान का धार्मिक महत्त्व है। भारत के धर्म संकुल
का प्रसार जहाँ जहाँ हुआ, विशेषकर बौद्ध धर्म का,
प्रक्षालन व आचमन को भी अनिवार्यता मिली। चीन और जापान
के सभी मंदिरों में घुसते ही हाथ धोने व पानी पीने की
व्यवस्था है। बाँस की शुद्ध करछी से हाथ पैर धोकर, मुख
शुद्ध करके भक्तगण अन्दर जाते हैं। कम्बोडिया में
अंगकोर वाट एक विशाल विष्णु मंदिर है। इस मंदिर का
निर्माण विष्णु के दशावतार को दर्शाने के लिए किया गया
था। इसके परिसर में एक विस्तृत ताल का निर्माण किया
गया जो क्षीर सागर की कल्पना को साकार करता है।
भूमितल में समाहित संस्कृतियों के उत्खनन से यह तथ्य
समान रूप से दृष्टिगोचर होता है कि आदि मानवों के
निवास स्थल किसी न किसी नदी के किनारे बने थे। नदियों
के पाट बदलने के कारण अनेक सभ्यताएँ भूमिगत हो गईं।
यातायात के लिए भी जलधाराएँ अधिक सुगम रही हैं इतिहास
में। जंगलों के जोखिम व दिशा शून्यता कौन झेलता।
जलमार्गों पर डोंगियों में तैरते मानव समूहों ने जल
देवों की, पराशक्तियों की कल्पना की और उन्हें अपनी
श्रद्धा व भेंटें अर्पित कीं। प्रोफ॰ रॉबर्टसन स्मिथ
का मानना है कि जलाशयों की आत्मा या देवी शक्ति उन
आदिमानवों के अनुभव का परिणाम है जिन्होंने सर्वप्रथम
खेती बाड़ी आरंभ की। यह आविष्कार स्वर्ग में रहने वाले,
यानी आकाशीय शक्तियों, सूर्यजनित देवताओं, यानी भगवान्
से पहले हुआ। उनका यह भी मानना है कि पूर्व की अपेक्षा
पश्चिमी सभ्यताओं में जल की पूजा अधिक प्रचलित मिलती
है और पश्चिम के अनुष्ठान पूरब के रीति रिवाजों से
अधिक आदिकालीन हैं, कदाचित अमानुषिक भी। यह कई स्थानों
पर मिली बलि के अवशेषों से सिद्ध होती है।
इंग्लैण्ड में यह रिवाज़ था कि पुल बनाते समय बलि दी
जाती थी। जब गंगा नदी पर कोलकाता में हावड़ा पुल बनाया
गया तो पता नहीं कैसे यह अफवाह फ़ैल गयी की पुल की नींव
में १००१ नर मुंडों की बलि दी जायेगी। उस समय के
अंगरेजी राज में हिन्दू मछुआरे बहुत भड़के और उन्होंने
पुल का मुआयना करने आये चार अंग्रेजों को उनकी नाव
समेत बंदी बना लिया। बहुत मुश्किल से अनेक आश्वासनों
के बाद छोड़ा।
अठारहवीं शताब्दी में एक यूरोपीय विद्वान ने गंगा पार
करते समय लोगों को नदी में पैसा फेंकते देखा। उसने
इसका कारण पूछा तो उसे बताया गया कि यह एक धार्मिक
मान्यता है और लोग इस तरह गुप्त दान करते हैं जिसका
बहुत पुन्य मिलता है। विद्वान ने कहा कि पश्चिम में भी
यह प्रथा है और इस तरह लोग दान करते हैं। तभी पहली बार
यह तथ्य सामने आया कि भारत और पश्चिम की भाषा और
संस्कृति में साम्य है। दरअसल जल पूजन ही सब
संस्कृतियों में समानता का सबसे ज्वलंत उदाहरण रहा है।
पश्चिम के विद्वानों का मानना है कि यह आदि मानवों का
विश्वास था जिसे आर्य जाति ने सहर्ष आत्मसात कर लिया
और अपने अधिक महत्वपूर्ण जल देवताओं की रचना की। विश्व
की सभी परिपक्व संस्कृतियों में जलदेव का स्थान सबसे
ऊपर है। इनमें वैदिक देवता वरुण सबसे प्राचीन व शक्ति
संपन्न है।
जॉर्ज द्युमेज़िल नामक एक फ्रेंच विद्वान ने एक पूरी
किताब लिखी है जिसका नाम है ' मित्र वरुण '। इसमें
उनहोंने सिद्ध किया है कि वैदिक साहित्य का वरुण जो
ईरान के प्राचीन धर्मग्रन्थ 'अवेस्ता' में भी सामान
रूप से पूजित है, ग्रीस जाकर ' युरेनस ' बन जाता है और
बाद में रोम का ' हरमीस '। इनका निवास जल में है और यह
तीनों मृत्यु के देवता हैं। यह तीनों यमलोक के स्वामी
हैं। विश्वकोश के अनुसार वैदिक देवता आअपम नपत का ही
पश्चिमीकरण नेपच्यून है जो कि रोमन हरमीस का दूसरा नाम
है।
जलाशयों को पूजने की परंपरा
पश्चिम के नगरों की सैर पर आये सभी पर्यटक देखते आये
हैं कि फव्वारों में सैकड़ों सिक्के पड़े रहते हैं। यह
आदि काल में चढ़ाई जाने वाली बलि या देवोपहार का आधुनिक
रूपांतर है। विश्व की कोई भी सभ्यता ऐसी नहीं है,
पाँचों महाद्वीपों में, जिसमें पानी का देवता और देवी
न हो।
अरब देशों में जलाशय को ही देवता माना गया है। अरबी
भाषा में पानी शब्द के करीब १०० पर्यायवाची शब्द पाए
जाते हैं। पानी की तासीर यानी गुण कारिता के कारण ही
इंसान ने आबे हयात, एम्ब्रोसिया और अमृत की कल्पना की।
अमृत को केवल काल्पनिक ही कहा जाएगा तो फिर उसका भौतिक
स्वरूप क्या हुआ? हिन्दू धर्म में चरणामृत, इस्लाम में
आबे ज़मज़म, और इसाई धर्म में होली वाटर। सिख धर्म भी
अमृत सर यानी अमृत कुण्ड को मानता है।
परन्तु क्या प्रगतिशील मानव को कभी किसी अमृत की
आवश्यकता हुई? हताशा जनित अभिलाषा अवश्य हुई, आकांक्षा
भी हुई, मगर आवश्यकता नहीं! इतिहास साक्षी है, कोई अमर
नहीं हुआ।
ऑस्ट्रेलिया के आदिवासी जलाशयों को देवी देवता मानते
थे। यह बंजारे होते थे और प्राकृतिक शक्तियों की पूजा
करते थे। इनका देवी - देवताओं का परिवार बहुत व्यापक
है। काताजुट्टा यानि आयर्स रॉक इसका ज्वलंत उदाहरण है।
ऑस्ट्रेलिया के मध्य भाग में यह लाल पत्थर का पठार है।
सदियों के निरंतर क्षरण के कारण यह अब कई खण्डों में
बँट गया है। सूर्य की रोशनी पड़ने के साथ साथ इसका रंग
बदलता जाता है। काटाजुट्टा पठार एवं आयर्स रॉक में
एकत्र वर्षा का पानी पतली धाराओं के रूप में अनवरत
बहता रहता है, जिससे पठार के तल में झील बन गयी है। यह
बहुत गहरी है और इसका पानी एकदम स्वच्छ है। यह धाराएँ
देवियाँ मानी जाती हैं और इनके नाम व चारित्रिक
विशेषताएँ हैं। यह अपने भक्तों की रक्षिका व उनके
दुश्मनों की नाशिकाएँ हैं। पानी को छूना कतई वर्जित है
क्योंकि इससे वह अपवित्र हो जायेंगी और उनका कोप भाजन
बनना किसी को स्वीकार नहीं। इनसे जुड़ी अनेक दंतकथाएँ
हैं जो ऑस्ट्रेलिया का पौराणिक साहित्य हैं। इन कथाओं
में और रामायण महाभारत की कथाओं में अनेक बातें हैं।
कहते हैं जब सिकंदर अपने विजय अभियान से लौट रहा था तो
दमिश्क - सीरिया -- में ख्वाजा ख़िज्र से मिला। वह उसे
ज़ुल्मत में जहाँ अँधेरा ही अँधेरा था, सब्बाती चश्मा
दिखाने ले गए जिसका पानी पी लेने से मौत नहीं आती थी।
ज़मीन के अन्दर बनी यह कोह अँधेरे पेचीदा रास्तों से
पहुँची जा सकती थी जिनका पता सिर्फ ख्वाजा को मालूम था
. ख्वाजा ने कहा कि सिर्फ १२ घोड़ियाँ और १२ सवार अन्दर
जा सकते थे। उन्होंने आदेश दिया कि घोड़ियों के बच्चे
बाहर बाँध दिए जाएँ ताकि अगर कोई रास्ता भूल जाए तो
उसकी घोड़ी अपने बच्चे की आवाज़ सुनकर पहचान लेगी और सही
जगह लौटा लायेगी। चश्मे के पास पहुँचकर सिकंदर ने देखा
की कुछ फाख्ताएँ मौत मौत चिल्ला रही थीं। वे बूढ़ी और
जर्जर थीं मगर मरती न थीं। उनकी हालत देखकर सिकंदर ने
आबे हयात नहीं पिया .अलबत्ता ख्वाजा खिज्र ने चुल्लू
भर पानी पी लिया। वह अभी भी नाविकों के रक्षक माने
जाते हैं और अरब सागर के मछुआरे उन्हें पीर मानते हैं
और उनके लिए घास की पिटारी में रखकर दिया जलाते हैं,
फिर उसे समुन्दर में तैरा देते हैं। वे दलिया भी चढ़ाते
हैं और खाते व बाँटते हैं।
प्रागैतिक इतिहासकाल में बर्तानिया में केल्ट जाति के
लोग मानते थे कि जलाशयों में देवता निवास करते हैं अतः
वह उन्हें खुश रखने के लिए सोना चाँदी आदि चढ़ाना
अनिवार्य समझते थे। केल्ट जाति के लोग मध्य एशिया से
निकलकर उत्तरी यूरोप व स्कैंडिनेविया होते हुए आयरलैंड
और इंग्लैण्ड में आकर बसे थे इनकी भाषा संस्कृत मूल की
थी। यह खेती करते थे अतः इनके देवता सूर्य व जल आदि
थे। शरद ऋतु में जब ठन्डे मौसम में खेती बंद हो जाती
थी तब यह अपने पितरों को भोजन आदि चढ़ाकर उनका सम्मान
करते थे। वह मृत आत्माओं का अनुष्ठान पूर्वक दीये व
अलाव जलाकर आवाहन करते थे और नदी या कुँए के पास उनके
लिए भेंट चढ़ाते थे। पशुबलि एवं नरबली के भी चिह्न मिले
हैं . ईसा के ४०० साल बाद बर्तानिया में ईसाई धर्म का
प्रचार हुआ। केल्ट जाति को प्रताड़ित करके उनके रीति
रिवाजों को अवैध, अंध विश्वास आदि बताकर कुचल दिया
गया। उनके पितरों व देवी देवताओं को भूत प्रेत बताकर
उनकी जगह ईसाई संतों को दे दी। किन्तु जन मानस से
विश्वासों का उन्मूलन संभव नहीं होता। धीरे धीरे
जनसाधारण ने मान्यताप्राप्त त्योहारों को ही अपना बना
लिया। पितरों की पूजा '' हैलोवीन '' बन गयी और शरद
ऋतु
की संक्रांति जीसस क्राइस्ट का जन्म दिन बन गयी। यह
जानी मानी बात है कि जीसस का जन्म २५ दिसंबर को नहीं
हुआ था।
देश विदेश में
कुआँ पूजने की परंपरा
यह तथ्य तब सामने आये जब उत्खनन में कई स्थानों पर
केल्टिक देवियों के मंदिर मिले . नोर्दाम्बरलैंड में
एक देवी '' कोवेंतिना का स्थान मिला। यहाँ एक
कुआँ
पाया गया जिसे ''कोवेंतिना वैल '' कहा जाता है। इस
कुँए के ताल में १६००० सिक्के पाए गए जो विभिन्न कालों
के हैं, पहली से पाँचवीं शताब्दी तक। यानी सदियों तक
लोग अपने पुराने विश्वासों को भूले नहीं।
बर्तानिया में ऑक्सफ़ोर्ड में '' पेनरीस '' का कुआँ है।
यह बहुत मशहूर जगह है । उन्नीसवीं शताब्दी तक इसकी बहुत
मान्यता थी। इसके पानी में किसी दैवी शक्ति का वास
माना जाता था। लोग इसमें पैसा डालते थे और अपनी कमीज
का बटन तोड़ कर पानी में फेंक देते थे या फिर अपना कपड़ा
फाड़कर आस पास के पेड़ों पर एक टुकडा अपनी सलामती के लिए
बाँध देते थे। यह बँधा ही रहता था जब तक रोग-शोक दूर
न हो जाए। लगभग यही रिवाज़ जापान और चीन में भी प्रचलित
है। कपड़ा या धागा बाँधना अनेक देशों की संस्कृति में
पाया जाता है, खासकर हमारे देश में। गुजरात में एक
देवस्थल के पास एक पेडपर लोग साड़ियाँ लटका जाते हैं।
सैकड़ों साड़ियाँ लटकी देखीं।
यही नहीं बर्तानिया के हरेक कसबे और शहर में आपको एक 'विशिंग वेल' यानि इच्छादानी कुआँ मिलेगा। इनमें से
अनेक प्राकृतिक जलस्रोतों पर बने हैं। उन्नीसवीं
शताब्दी में नलों के आने से पूर्व अनेक कुँए बनवाये भी
गए थे। इनमें से कई अब सूख गए हैं, फिर भी लोग इनमे
पैसा फेंक जाते हैं। नगर योजना और सड़कों के बन जाने से
कई को उखाड़कर जगत, चरखी व छप्पड़ समेत किसी पार्क में
सुन्दरता से जड़ दिया गया है। पर उनके नाम और इतिहास
आदि साथ ही टाँक दिए गए हैं। लोग अभी भी इन्हें पूजते
हैं।
वे माउथ नामक शहर में 'अपवाई' नामक एक जलाशय है, यह
'वाई' नदी का उद्गम माना जाता है। इसे एक गुफा का आकार
दे दिया गया है। लोग इस कुएँ का पानी दवा समझ कर पीते
हैं। कुछ पीते हैं और कुछ अपने बाएँ कंधे के ऊपर से
पीछे की ओर उछाल देते हैं। इस तरह वह अपनी इच्छा पूरी
होने की कामना करते हैं। जॉर्ज-३ यहाँ अपने इलाज के
लिए आता था। जिस स्वर्ण कटोरे से वह इसका पानी पीता था
वह कालांतर में एस्कोट रेस का इनामी स्वर्णपदक बन गया।
डर्बीशायर में एक अनूठा प्रचलन है। यहाँ की स्त्रयाँ
पहली मई को जब 'में डे' मनाया जाता है, कुँए का सिंगार
फूलों आदि से करती हैं और धन एकत्र करती हैं जो समाज
कल्याण के लिए प्रयोग किया जाता है। लोग इस मेले में
जरूर आते हैं और जी खोलकर दान देते हैं।
ग्लौस्टर शायर, बर्तानिया में ही सिडनी पार्क है। यहाँ
सैवर्न नदी के किनारे सड़क के पेवमेंट पर एक मूर्ति बनी
है जिसका नाम है, 'देवो नोदेंती'। यह एक देवी है जिसे
चार घोड़ों वाला रथ हाँकते हुए दर्शाया गया है। यह रोमन
काल से पहले की मानी जाती है और ब्रिटेन की नदी की
देवी है।
पूरे यूरोप में 'विशिंग वेल' एक लोकप्रिय खिलौना भी
है। सजावट के सामान में अनेकों बेशकीमती कुओं के मॉडल
बने हुए मिलते हैं। यह सिटिंग रूम से लगाकर बागीचों तक
की शोभा बढ़ाते पाए जाते हैं। बागीचों में कुँए या
जलधारा स्रोत बनवाना सबसे आधुनिक फैशन है आजकल। बाहर
बसे हिन्दू भारतीयों ने अपने बागीचों में शंकर जी
स्थापित कर लिए हैं और गंगावतरण का दृश्य बनाकर जलकुंड
बना लिए हैं जिनमें शंकर जी की जटा में से जलधारा फूट
कर बह रही है। रोम शहर के बीचों बीच एक फव्वारा है जो
रोमन जलदेवता हरमीस को समर्पित है। इसके बारे में कहा
जाता है कि इसकी चार धाराएँ विश्व की चार नदियों को
दर्शाती हैं, जिनमे से गंगा नदी भी एक है। हरमीस के
मुख से फूट रही जल की धारा का दृश्य अनेक घरों के
बागीचों में मिल जाएगा।
क्योंकि कुँए गर्भवती स्त्रियों द्वारा पूजित होते आये
हैं, यूरोप में भी यह सुख सुहाग के प्रतिमान माने जाते
हैं और विवाह के कार्ड आदि पर अंकित किये जाते हैं।
उपहार देने के लिए डिब्बे कुओं के आकार में बने मिलते
हैं।
प्राचीन ग्रीस में मानते थे कि 'नैयड' नामक निम्फ यानी
जलकन्या पानी में रहती थी। चाहे वह नदी हो या बावड़ी या
कुआँ, उसे प्रसन्न रखने के लिए धन की पूजा चढ़ाई जाती
थी और कामना की जाती थी कि यह कुँए सूखें ना। ग्रीस के
ह्रास के साथ साथ रोम का उत्थान हुआ। रोमन देवता हरमीस
या नेपच्यून नाविकों का रक्षक और मृत्युलोक का देवता
था उसे खुश रखना जरूरी था अतः उसे धन चढ़ाया जाता था।
जब किसी जलाशय में सिक्का फेंका जाता था तब उसके गिरने
के अंदाज़ से लाभ हानि का अनुमान लगाया करते थे पुजारी।
जर्मनी में जल देवताओं को खुश करने के लिए हारे हुए
दुश्मन के हथियार कुँए में फेंक दिए जाते थे।
स्कैंडिनेविया में देवी देवताओं का अलग संकुल है। यह
नॉर्स धर्म के नाम से जाने जाते हैं। इनकी कथा हमारी
रामायण की कथा से बहुत मिलती जुलती है। कथा का नायक
'ओडिन' है। मिमिर नामक नोर्डिक देवता ज्ञान प्रदान
करता है और एक कुँए में रहता है जो दिव्य वृक्ष
'यागड्रासिल' की जड़ में है। कथा के अनुसार 'ओडिन' ने
अपनी दाहिनी आँख निकालकर कुएँ में फेंक दी ताकि वह
मिमिर की कृपा से भविष्य देख पाने की दिव्य दृष्टि
प्राप्त कर सके। इस कुएँ को मिमिर का कुआन कहा जाता है
और नॉर्वे आदि में भी कुएँ बनवाने का बहुत शौक है
लोगों को।
चीन की संस्कृति भारत से भी प्राचीन मानी जाती है।
चीनी लोग ड्रैगन को शुभ मानते हैं। ड्रैगन की पूजा
बौद्ध धर्म के प्रचार प्रसार से पूर्व से चली आ रही
है। यह ड्रैगन पानी में रहता था और जल का देवता है।
इसे ''गौंग गौंग'' या ''कौंग लौंग'' कहते हैं। इसका
साथी ''स्याँग याओ'' पानी में रहने वाला एक नौ फन वाला
सर्प है। इसकी साथी देवी ''मात्सु'' या ''माँ तो'' है
जो संतान और सम्पन्नता की देवी है।
जल - देवता के पूजन की परंपरा
चीनी पौराणिक कथा के अनुसार ''जू रौंग'' अग्नि का
देवता था। यह अति प्रचंड था। इसके विपरीत '' गौंग
गौंग'' जल का देवता था परन्तु उसका विस्तार बहुत था।
दोनों में स्वर्ग के आधिपत्य को लेकर युद्ध छिड़ गया।
जल का देवता हार गया। गुस्से में उसने अपना सर ''वू
जू'' पर्वत से दे मारा। यह पर्वत एक स्तम्भ था जिसपर
आकाश टिका हुआ था। '' गौंग गौंग '' के माथा फोड़ने से
आकाश का संतुलन बिगड़ गया, वह उत्तर पश्चिम की ओर से
ऊपर को उठ गया और दक्षिण -पूर्व की ओर से ढुलक गया।
पृथ्वी पर बाढ़ आ गयी और बहुत तबाही आई। तब ''नू वा''
नामक जलदेवी ने ''इ ओ'' नामक कछुए की टाँगें काटकर
''वू जू'' पर्वत में लगाईं और उसे स्थिर किया। परन्तु
वह आकाश को सीधा न कर पाई। इसलिए सूर्य व चन्द्र उत्तर
पश्चिम की ओर अग्रसर होते हैं व नदियाँ दक्षिण पूर्व
की ओर बहती हैं।
चीन में नाविकों व मछुआरों की रक्षिका देवी ''मात्सु''
है। दक्षिण पूर्व के सभी देशों में यह मातृशक्ति के
रूप में पूजी जाती है। इसके अनेकों मंदिर बने हैं।
जापान में यही देवी ''तेन फी'' के नाम से जानी जाती
है। इसका शाब्दिक अर्थ है स्वर्ग की राजकुमारी।
मिस्त्र देश में इस्लाम के आने से पहले ''सोबेक'' नामक
नील नदी के देवता की पूजा होती थी। अभी भी दूरस्थ
गाँवों में इसकी मान्यता है। इसका स्वरूप मगरमच्छ के
जैसा है। कहीं कहीं यह अर्ध मानव है जिसका सिर मगरमच्छ
का दर्शाया गया है। मिस्त्र में जन साधारण द्वारा देवी
रूप में पूजी जाने वाली शक्ति ''नेप्थिस'' है जो नदी
नालों व जलाशयों की देवी है।
तुर्की में एक गुफा देखी जिसके अन्दर जलाशय है इसमे
लोग पैसा फेंकते हैं। परन्तु इसकी गहराई इतनी है कि यह
धन कहीं उपयोग में नहीं लाया जा सकता। फिजी में
''डाकूवाका'' नाम से नाविकों का रक्षक देवता है।
अमेरिका के रेड इंडियन जब नदी नाले पार करते थे तब
पहले कुछ भेंट जल में डालते थे। रेड इंडियन्स के
द्वारा गाया जाने वाला एक गीत कुछ इस प्रकार से है
----''इस नदी को कौन प्रवाहित कर रहा है ?'' उत्तर
मिलता है - '' एक आत्मा इसे प्रवाहित कर रही है। ''
पेरू के लोग नदी पार करते समय अंजुली भर पानी पहले
पीते हैं फिर जल में मुट्ठी भर मकई के दाने चढ़ाते हैं
ताकि आने वाले खतरों से उनकी रक्षा हो और उन्हें ढेर
सी मछली प्राप्त हो।
अफ्रीका का पूरा महाद्वीप ऐसे विश्वासों का गढ़ है।
वहाँ हर नदी या झरने का अपना एक देवता है जिसकी पूजा
होती है। ये लोग भी जलाशयों में आत्माओं का वास मानते
हैं व घर से चलते समय उनकी आज्ञा माँगते हैं।
उत्तरी एशिया में तातारी जाती के लोग औस्तियाक औब नदी
में जब मछली कम दिखती है तो एक रेनडियर को मारकर बलि
चढ़ाते हैं। हमारे देश में ''डाला छठ'' नदी पूजन का एक
विशाल पर्व है जिसमें नदी को पूजा चढ़ाई जाती है।
इतने देशों की सैर के बाद यह स्पष्ट हो जाता है कि जल
की पूजा धर्मों के अभ्युदय से पूर्व की है और जल को
भेंट आदि चढ़ाना एक सामान्य अनुष्ठान है जो मंदिरों के
बनाने से पहले से स्थापित है। प्राचीन बलि आदि के बदले
अब सिक्के इस्तेमाल किये जाने लगे हैं। यहाँ तक कि
आधुनिक अट्टालिकाओं में जलाशय बनवाना एक आम बात हो गयी
है। बहुत शिक्षित, वैज्ञानिक रूप से प्रबुद्ध लोग भी
इनमे पैसा डालते हैं। यह पैसा ''वोटिव ऑफरिंग '' यानि
संकल्प से दान किया हुआ पैसा माना जाता है। इसे चुराना
पाप है।
दक्षिणी अमेरिका की एक यूनिवर्सिटी के मानव विज्ञान के
विभाग में बिल मौरर नामक विद्वान ने इच्छादानी कुओं /
जलाशयों में सिक्का डालने की प्रथा पर शोध किया .जिसके
निम्नलिखित निष्कर्ष निकले-
|
सब इसे करना चाहते थे।
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सभी कोई न कोई इच्छा या वरदान पाना चाहते थे।
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सभी उस वरदान की पूर्ति की कामना से पहले सिक्का
जरूर फेंकते थे। |
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सब अपनी इच्छा को गुप्त रखते थे। उनका विश्वास था
कि पहले से उजागर की गयी इच्छा पूरी नहीं होगी।
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कोई अवांछित वस्तु या कूड़ा इनमें फेंकना पाप है।
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सिक्का कितना भी छोटा क्यों न हो पर मायने रखता है।
उसे फेंकने की क्रिया ही शुभ है।
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यह धन एकत्र करके ख़ास डिब्बों में सहेज कर रखा जाता
है और केवल पुन्य कार्यों पर ही खर्चा जा सकता है।
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बुरे काम पर खर्चने से अनिष्ट होता है।
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सब मानते हैं कि इसकी चोरी अनिष्ट करेगी, बुरा
स्वास्थ्य और दुर्भाग्य लायेगी।
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कुँए या जलाशय को मल- मूत्र से अपवित्र करना घोर
पाप होता है। |
|
कुँए या जलाशय का पैसा आपकी जेब के पैसे से अधिक
मूल्यवान होता है और इसकी मूल्यवत्ता को आँकना असंभव
है, यह अत्यंत शुद्ध होता है और पवित्रता का मोल नहीं
होता । |
नवम्बर २००६ में ''फाउन्टेन मनी माउन्टेन'' नामक एक
संस्था ने एक विज्ञप्ति में बताया कि ऐसे अनेकों
जलाशयों में फेंके गए धन का योग प्रतिवर्ष ३ मिलियन
पौंड बैठता है।
इस प्रकार यह साबित होता है कि पूरे विश्व में
मानवमात्र अपनी शक्ति से परे किसी अन्य महाशक्ति का
नियंत्रण अपनी किस्मत व जीवन पर होना स्वीकार करते थे,
हैं व करते रहेंगे।
यह विश्वास मानवमात्र की आशावादिता को साबित करता
है।
इसे थोथी अंधभक्ति कहकर बेकार साबित करना असंभव है।
खासकर उस अवस्था में जबकि मानव का विश्वास टूट रहा हो,
स्वयं का अनुमान डांवा-डोल हो और जीवन में फैसला लेना
कठिन हो। सब समान रूप से दुर्भाग्य से डरते हैं। पराशक्ति में विश्वास इंसानों की नैतिकता को उठाये
रखता है।
तर्क की प्रगति चाहे कितनी भी तीव्रगामी क्यों न हो,
आदिम विश्वासों की पैठ की गहराई तक नहीं पहुँच पाती
इसीलिये, आज भी, कोई आधुनिका, मेरी बेटी की तरह,
उन्हें पुनर्जीवित कर बैठती है।
२४
मार्च २०१४ |