इस सप्ताह- |
अनुभूति
में-
विजयकुमार सिंह,
लोकेश नशीने नदीश, वर्तिका नंदा, डॉ. मीना अग्रवाल और अनूप
सेठी की रचनाएँ। |
- घर परिवार में |
रसोईघर में- दाल हम रोज खाते हैं, पर कुछ नया हो तो क्या
कहने? प्रस्तुत है १२
व्यंजनों की स्वादिष्ट शृंखला में
अंतिम-
दाल
मखनी। |
बचपन की
आहट- संयुक्त अरब इमारात में शिशु-विकास के अध्ययन में
संलग्न इला गौतम से जानें एक साल का शिशु-
नहीं पर नियंत्रण।
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बागबानी में-
कीट रक्षक पौधे- गेंदे के फूल,
लहसुन, चाइव, रोजमेरी, बेसिल, तुलसी और पुदीना ये सभी पौधे
देखने में सुंदर होते हैं ... |
वेब की सबसे लोकप्रिय भारत की
जानीमानी ज्योतिषाचार्य संगीता पुरी के संगणक से-
१ मई से १५ मई २०१२ तक का भविष्यफल।
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- रचना और मनोरंजन में |
नवगीत की पाठशाला में-
कार्यशाला-२१ में हरसिंगार के फूल पर
आधारित नवगीतों का प्रकाशन पूरा हो चुका है। जल्दी ही नए विषय
की घोषणा होगी। |
साहित्य समाचार में-
देश-विदेश से
साहित्यिक-सांस्कृतिक समाचारों,
सूचनाओं, घोषणाओं, गोष्ठियों आदि के विषय में जानने के लिये
यहाँ देखें |
लोकप्रिय कहानियों के अंतर्गत-
प्रस्तुत है- ९ जनवरी
२००४ को
प्रकाशित,
भारत से रजनी गुप्ता की कहानी—
सुबह होती
है शाम होती है।
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वर्ग पहेली-०८०
गोपालकृष्ण-भट्ट-आकुल
और रश्मि आशीष के सहयोग से
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सप्ताह
का कार्टून-
कीर्तीश
की कूची से |
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साहित्य एवं
संस्कृति में- |
१
समकालीन कहानियों में
भारत से
तरुण भटनागर
की
कहानी- देश तिब्बत राजधानी ल्हासा
जब तक मैंने वहाँ के बाशिंदों को
नहीं देखा था, पहले-पहल वह गाँव ठेठ ही लगा। यह बात थी उन्नीस
सौ अस्सी की। वह गाँव इतना ठेठ लगा था, कि लगता है वह आज भी जस
का तस है। रुका हुआ और अ-बदला। छत्तीसगढ में वह समुद्र
तल से सबसे अधिक ऊँचाई पर बसी जगह है।
वहाँ के रहवासी हमारे यहाँ के नहीं जाने जाते हैं। उन लोगों को
देखकर उस गाँव का ठेठपन चुकने लगता है और उसकी जगह अजीब सा
बेगानापन घिर आता है। लंबे बीते समय ने यह जतलाया कि चपटी
खोपडी वाले ये लोग दूसरों से अलग नहीं हैं, सिवाय इसके कि वे
अलग दिखते है। ...और यह भी कि इस गाँव में बीते पचास
सालों में और उस दिन जब मैं वहाँ गया था, बीत चुके छब्बीस
सालों में, उन्होंने यह मानने की भरसक कोशिश की है, कि यह
जमीन, यह आकाश, यह जंगल, दूर तक फैले हरे घास के मैदान, लोग,
जानवर...सब उनके ही तो हैं। वे आज भी एक झूठा ढाँढस खुद को
देते हैं, पर जैसे वे हमेशा जानते रहेंगे, कि उनके लिए सारे
रास्ते बंद हो चुके हैं। विस्तार
से पढ़ें...
*
कमलेश पांडेय का व्यंग्य
संत सुनेजा
*
वेदप्रकाश अमिताभ का निबंध
गीत में घर और गाँव-
अपनी जड़ों की तलाश
*
डा. रवीन्द्र अग्निहोत्री का आलेख
इजराइल में हीब्रू-संकल्प का
बल
*
पुनर्पाठ में हेमंत शुक्ल मोही की
कलम से-
बाल फिल्मों
के प्रेरणास्रोत
|
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पिछले सप्ताह-
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१
इला प्रसाद की लघुकथा
शिक्षा का मूल्य
*
प्रकृति और पर्यावरण में
अनुपम मिश्र का आलेख- सागर के आगर
*
डॉ. गणपति चंद्र गुप्त से जानें-
इंगलैंड में अँग्रेजी कैसे लागू की गई
*
पुनर्पाठ में कला दीर्घा के अंतर्गत
हेब्बार और उनकी कला से परिचय
*
समकालीन कहानियों में
ब्रिटेन से
जकिया जुबैरी
की
कहानी-
मन की साँकल
क्या उसने अपने गिरने की
कोई सीमा तय नहीं कर रखी?
सीमा के आँसुओं ने भी बहने की सीमा तोड़ दी है। इनकार कर
दिया रुकने से। आँसू बेतहाशा बहे जा रहे हैं।
वह चाह रही है कि समीर कमरे में आए और एक बार फिर अपने नन्हें
मुन्ने हाथों से सूखा धनिया मुँह में रखने को कहे, ताकि उसके
आँसू रुक सकें। बचपन में ऐसा ही हुआ करता था कि समीर माँ की
आँखों से बहते हुए आँसू देखकर बेचैन हो उठता और लपक कर मसालों
की अलमारी के पास पहुँच जाता, उचक उचक कर मसाले की बोतलें
खींचने लगता; पंजों के बल खड़े खड़े जब थक जाता तो कुर्सी खींच
कर लाता और ऊपर चढ़ कर बोतल में से धनिये के बीज निकाल कर माँ
के मुँह में डाल देता कि माँ की आँखों से प्याज़ काटने से जो
आँसू बह रहे है वे धनिया मुँह में रखने से रुक जाएँगे। सीमा
मुस्करा देती समीर की मासूमियत भरी मुहब्बत पर।
विस्तार
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