इजराइल में हीब्रू - संकल्प का बल
-डॉ.
रवीन्द्र अग्निहोत्री
वेदों में
अनेक स्थलों पर संकल्प शक्ति का बखान किया गया है, यजुर्वेद का
संकल्प सूक्त तो इसका एक भण्डार ही है। संकल्प की शक्ति कैसी
होती है और यदि संकल्प कर लिया जाए तो कैसे- कैसे चमत्कार किए
जा सकते हैं- इसी का एक उदाहरण यहाँ प्रस्तुत है।
इजरायल देश से आप परिचित ही हैं जो द्वितीय विश्व युद्ध के बाद
१९४८ में विश्व भर में फैले यहूदियों को एक स्थान पर बसाने के
लिए बनाया गया। आज वहाँ की मुख्य राजभाषा हिब्रू है और सहयोगी
भाषाएँ अँग्रेजी एवं अरबी हैं। अँग्रेजी और अरबी तो आज विश्व
के अनेक देशों में बोली जाती हैं, पर हिब्रू ऐसी भाषा है जो
दुनिया के नक़्शे से लगभग गायब ही हो गई थी। इसके बावजूद यदि आज
वह जीवित है और एक देश की राजभाषा के प्रतिष्ठित पद पर आसीन
है, तो इसके पीछे एक व्यक्ति का, केवल एक व्यक्ति का, विश्वास
कीजिये केवल एक व्यक्ति का संकल्प है, संघर्ष है, जूनून है,
स्वाभिमान के साथ जीने की अदम्य इच्छाशक्ति है। जानना चाहेंगे
कि वह एक व्यक्ति कौन था, हिब्रू कैसे नष्ट हुई और उसने उसे
अपने संकल्प के बल पर पुनर्जीवित कैसे किया ?
जब विश्व की प्राचीनतम भाषाओं की चर्चा होती है तो सबसे पहला
नाम तो "संस्कृत" का लिया जाता है क्योंकि संस्कृत में लिखा
"ऋग्वेद" विश्व साहित्य में अब तक उपलब्ध प्राचीनतम ग्रन्थ है,
पर विश्व के अन्य भागों में जो भाषाएँ विकसित हुईं, उनमें एक
प्राचीन भाषा है हिब्रू। यह शब्द मूलतः मिस्र की भाषा के
"एपिरू" शब्द से बना है जिसका शाब्दिक अर्थ है- मिस्री समाज के
कुछ ऐसे वर्ग जो ख़ास तरह के काम करते थे, पर कालान्तर में यह
शब्द उस भाषा के लिए रूढ़ हो गया जिसे अरब वाले "इब्रानी" कहते
थे। इस भाषा की कतिपय विशेषताएँ आरमाइक और अरबी भाषा से मिलती-
जुलती हैं।
यों तो हिब्रू भाषा के लिखित रूप का सबसे प्राचीन उदाहरण अब से
लगभग तीन हज़ार वर्ष पूर्व का इजरायल में मिलता है जो सम्राट
डेविड और उसके बेटे सोलोमन के समय का बताया जाता है, पर
प्राचीन हिब्रू में लिखी हुई सबसे प्रसिद्ध रचना बाइबिल में
है। "बाइबिल" शब्द का मूल अर्थ यद्यपि "पुस्तक" है, पर पाठक
जानते ही हैं कि अब इस शब्द का प्रयोग यहूदियों और ईसाइयों के
उस पवित्र ग्रन्थ के लिए होता है जो स्वयं अनेक पुस्तकों का
संग्रह है। यह तो निश्चित है कि इन पुस्तकों की रचना अलग-अलग
समय पर और अलग-अलग लोगों ने की, पर वह कब हुई, और जो बाइबिल आज
हमारे सामने है उसमें उन्हें कब संकलित किया गया- इस सम्बन्ध
में विद्वान एकमत नहीं हैं। यही कारण है कि बाइबिल के विभिन्न
संस्करणों में संकलित पुस्तकों की संख्या ६६ से लेकर ८१ तक है।
बाइबिल से संबंधित सात ऐसी पुस्तकें भी हैं जो पहले बाइबिल में
संकलित की जाती थीं, पर बाद में जिन्हें ईसाई पंथ को मानने
वाले विद्वानों ने स्वयं अप्रामाणिक मानकर खारिज कर दिया है।
हाँ, यह ऐतिहासिक तथ्य है कि १७ वीं शताब्दी के शुरू में (१६०७
से १६११) इंग्लैण्ड में किंग जेम्स ने बाइबिल का जो अनुवाद
अँग्रेजी में ४७ अनुवादकों से कराया और बाद में उसमें कुछ
संशोधन कराकर जो संस्करण ऑक्सफोर्ड ने १७६९ में प्रकाशित किया,
आज उसे ही लगभग पूरे विश्व में अँग्रेजी का प्रामाणिक संस्करण
माना जाता है। इस बाइबिल के सामान्यतया दो भाग किए जाते हैं-
ओल्ड टेस्टामेंट और न्यू टेस्टामेंट। ओल्ड टेस्टामेंट में ३९
और न्यू टेस्टामेंट में २७ अर्थात कुल ६६ पुस्तकें हैं।
भाषा की दृष्टि से देखें तो ओल्ड टेस्टामेंट की प्रारम्भिक
पाँच पुस्तकें हिब्रू में लिखी हुई थीं जिन्हें पेंटा-ट्यूक
अथवा तोरा कहा जाता है। ओल्ड टेस्टामेंट की शेष पुस्तकें लैटिन
में और न्यू टेस्टामेंट की सभी पुस्तकें ग्रीक में लिखी हुई
थीं। पेंटा ट्यूक के बारे में ऐसा माना जाता है कि ईसा से लगभग
पाँच शताब्दी पूर्व इन्हें बाइबिल में शामिल किया गया जबकि
इनकी रचना काफी पहले, लगभग नौ शताब्दी ईसा पूर्व हो गई थी।
इस प्रकार हिब्रू भाषा बाइबिल में तो सुरक्षित हो गई, पर बाद
में कई कारणों से वह सामाजिक जीवन से गायब होती चली गई। इनमें
सबसे प्रमुख कारण था राजनीतिक। उस समय फारस (वर्तमान ईरान)
साम्राज्य का विस्तार होता जा रहा था। ईसा पूर्व छठी शताब्दी
में तो ईरानी आर्य सम्राट क्रूश (साइरस) का शासन मध्य एशिया से
लेकर भूमध्य सागर तक फैल चुका था। ("आर्य सम्राट" शब्द से
चौंके नहीं। ईरान भी अतीत में वेद, वैदिक साहित्य और वैदिक
परम्पराओं से अनुप्राणित रहा है और ईरान के शासक "आर्य सम्राट"
ही कहलाते थे। बाद में, जब ईरान में इस्लाम मज़हब फैल गया तब भी
शासकों की यह उपाधि बरकरार रही। हाँ, अब लगभग तीस वर्ष पूर्व
हुई "इस्लामी क्रान्ति" के बाद यह परम्परा समाप्त हो गई है)।
हम बात कर रहे थे ईरानी साम्राज्य की। क्रूश के पुत्र कम्बीसस,
और उसके बाद दारा (डेरियस) ने साम्राज्य का विस्तार करके
मिस्र, थ्रास (वर्तमान बुल्गारिया), मेसिडोनिया आदि स्थानों
को भी जीत लिया। इस साम्राज्य में रहने वाले यहूदियों को
"आरमाइक भाषा" (जो बेबिलोन में बोली जाती थी) अपनाने के लिए
विवश किया गया। इससे हिब्रू पृष्ठभूमि में चली गई। हिब्रू को
एक और ज़बरदस्त झटका तब लगा जब ईसा से ५८६ वर्ष पूर्व बेबिलोन
के शासक "नाबुचाडनज़र" ने यरूशलम पर कब्ज़ा कर लिया और यहूदियों
पर तरह-तरह के अत्याचार किए। अतः यहूदियों को अपना वतन छोड़कर
विश्व के अन्य भागों में पलायन करना पडा। इसे ही "डायस्पोरा"
कहा जाता है। बाद में ईसा के जन्म के ७० वर्ष बाद यरूशलम के
नष्ट हो जाने पर तो बचे-खुचे यहूदी भी वहाँ से अन्यत्र जाने के
लिए मजबूर हो गए। इस सबका परिणाम यह हुआ कि सैकड़ों वर्षों तक
मेसिपोटामिया के यहूदियों की बोलचाल की भाषा आरमाइक ही बनी
रही। जो यहूदी मध्य पूर्व में जा बसे थे, उन्होंने अरबी को
अपना लिया। इस प्रकार वे जिस देश में गए, उसी देश की भाषा को
अपनाते चले गए। अतः हिब्रू भाषा विस्मृति के गर्त में समाती
चली गई।
आधुनिक युग में जिस व्यक्ति के मन में इस भूली-बिसरी हिब्रू
भाषा को पुनः जीवित करने की इच्छा जागी, उसका नाम था- एलिज़र
बेन यहूदा। उसका जन्म १८५८ में एक सामान्य परिवार में
लिथुवानिया (रूस) के एक गाँव में हुआ था। रूस में तब ज़ार का
शासन था। यहूदी उसमें अपने को उपेक्षित अनुभव करते थे। अतः
यहूदियों की अस्मिता को सम्मान दिलाने के लिए एक राष्ट्रव्यापी
आन्दोलन शुरू हुआ, और बेन यहूदा भी उस आन्दोलन से जुड़ गया।
अपने जीवट, न्याय के लिए संघर्ष करने की उत्कट भावना और
यहूदियों के सम्मान को सर्वोपरि मानने के कारण वह शीघ्र ही उस
आन्दोलन का प्रमुख कार्यकर्ता बन गया। इन्हीं दिनों उसके मन
में अपनी मूल भाषा हिब्रू के प्रति विशेष प्रेम जागा। बाइबिल
में तो हिब्रू सुरक्षित थी ही और इसलिए सिनेगाग (यहूदी
प्रार्थना भवन) में उसका प्रयोग होता ही था। बेन यहूदा ने
हिब्रू को यहूदियों के आपसी संवाद की भाषा बनाने का विचार
लोगों के सामने रखा, पर शुरू में लोगों ने उसके इस विचार का
उपहास उड़ाया और कुछ लोगों ने तो उसे ' पागल' तक कह दिया।
उन्हें लगता था कि यहूदी जिस भाषा को भूल चुके हैं, उसमें
संवाद कैसे कर सकते हैं ! बाइबिल के जिस अंश में हिब्रू
सुरक्षित थी, सामान्य यहूदी तो अब न उसका अर्थ समझते थे और न
उसका ठीक से उच्चारण कर सकते थे, तो फिर उसके प्रयोग की बात
कैसे सोच सकते थे ? स्थिति कुछ- कुछ वैसी ही थी जैसी आज हमारे
समाज में अँग्रेजी माध्यम से शिक्षा पाने वाले बच्चों की
संस्कृत के सन्दर्भ में होती जा रही है।
बेन यहूदा इन आलोचनाओं और प्रतिक्रियाओं से हताश नहीं हुआ,
बल्कि इन आलोचनाओं ने उसकी इच्छा को "दृढ़ संकल्प" का रूप दे
दिया जिसे साकार करने के लिए उसने जो प्रयास किए उन्हें अपनी
सुविधा के लिए हम तीन वर्गों में बाँट सकते हैं- (१) घर में
हिब्रू का प्रयोग (२) शिक्षा के माध्यम के रूप में हिब्रू का
प्रयोग (३) विभिन्न आवश्यकताओं के लिए हिब्रू में नए शब्दों का
निर्माण।
घर में हिब्रू के प्रयोग की शुरुआत उसने अपने घर से ही की, और
इसे इतना विस्तार दे दिया कि जब भी वह किसी यहूदी से घर में या
बाहर मिलता तो वार्तालाप में हिब्रू का ही प्रयोग करने का
प्रयास करता। अपने इन प्रयासों के प्रति वह कितना गंभीर था,
इसका अनुमान इन तथ्यों से लगाया जा सकता है कि जब उसके पहले
बच्चे (बेटे) का जन्म हो चुका था और घर में कोई ऐसा व्यक्ति
आता जो हिब्रू नहीं बोलता था, तो वह अपने बच्चे को दूसरे कमरे
में भेज देता था ताकि बच्चे के कान में दूसरी भाषा का कोई शब्द
तक न पड़े। उसकी (पहली) पत्नी रूस की थी और एक दिन जब यहूदा घर
पर नहीं था, वह बच्चे को सुलाने के लिए लोरी गाने लगी। अपनी
ममता में उसे ध्यान ही नहीं रहा कि लोरी रूसी भाषा में है।
संयोग से तभी बेन यहूदा घर में प्रविष्ट हुआ, और इसके बाद घर
में जो हंगामा हुआ, उसका विवरण उसी बेटे ने अपनी आत्मकथा में
दिया है।
स्कूल में हिब्रू के माध्यम से शिक्षा देने की कठिनाइयाँ और भी
अधिक थीं। एक ओर तो हिब्रू में वर्तमान युग की आवश्यकताओं के
अनुरूप शब्दों का अभाव था, तो दूसरी ओर ऐसे लोगों का अभाव था
जो हिब्रू माध्यम से शिक्षा देने की ज़िम्मेदारी निभा सकें।
बेन यहूदा ने शब्द निर्माता, शब्दकोश निर्माता, शिक्षक, नेता -
सभी प्रकार की भूमिकाएँ निभाईं। उसने आइस क्रीम, जेली, आमलेट,
रूमाल, तौलिया, गुड़िया, ग्राहक, साइकिल, समाचार पत्र,
सम्पादक, सैनिक आदि के लिए हिब्रू में शब्द बनाए। अपने बनाए
शब्द वह अपने समाचार पत्र, हत्ज्वी में भी छापता था। यह
सर्वज्ञात है कि यहूदी लोग सामान्यतया पढ़ने में रुचिशील होते
हैं। अतः उसके प्रयासों की जानकारी केवल फिलिस्तीन में नहीं,
विश्व में यहूदी जहाँ भी थे, वहाँ तक पहुँच गई।
उसकी निष्ठा रंग लाई। उसके संकल्प के आगे अन्यमनस्क और उदासीन
लोगों के मन में भी स्वभाषा प्रेम जागा। अब वे उसके आदोलन से
धीरे- धीरे जुड़ने लगे। हिब्रू भाषा को जीवित करने के लिए उसने
दिसंबर १८९० में "हिब्रू लैंगुएज काउन्सिल“ बनाई, पर बाद में
कार्य की गुरुता का अहसास होने पर उसे अकेडमी का रूप दिया। तब
जाकर उसका स्वप्न साकार होता दिखाई देने लगा।
प्रारम्भ में बेन यहूदा ने बाइबिल वाली प्राचीन हिब्रू को ही
पुनर्जीवित करने की कोशिश की थी, पर डायस्पोरा के बाद से यहूदी
काफी लम्बे समय से विभिन्न स्थानों पर रह रहे थे, और उन्हीं
स्थानों की भाषाओं का प्रयोग करते आ रहे थे, अतः उन्हीं भाषाओं
के अभ्यासी बन चुके थे। ऐसी स्थिति में बेन यहूदा ने भी
"आधुनिक हिब्रू" का जो रूप विकसित किया, उसमें रूसी, अरबी,
अंग्रेज़ी आदि के भी अनेक शब्द एवं अन्य विशेषताएँ आ गईं। बेन
यहूदा अपने समाचार पत्र में जो शब्द प्रकाशित करता रहा था, बाद
में उन्हें संकलित करके तथा अन्य भी अनेक शब्द बनाकर उसने एक
विशाल शब्दकोश "ए कम्प्लीट डिक्शनरी ऑफ़ ऐन्शिएँट एँड माडर्न
हिब्रू" तैयार किया जो १२ खण्डों में है, पर इस कोश का काम
उसके जीवन काल में पूरा नहीं हो पाया, इसे उसके देहांत के बाद
उसकी दूसरी पत्नी और बेटे ने पूरा किया। यह शब्दकोश आज भी
अद्वितीय माना जाता है। आधुनिक हिब्रू की लिपि भी आरमाइक भाषा
की लिपि से ली गई और उसे "स्क्वायर" नाम दिया गया। इस लिपि को
अपनाने का एक विशेष कारण यह था कि पिछले लगभग दो हज़ार वर्ष से
इसी लिपि में हिब्रू भाषा वाले बाइबिल के अंश की नक़ल उतारी
जाती रही थी। वे इसी लिपि में उसे पढ़ते आ रहे थे और इस प्रकार
अब यह उनकी अपनी लिपि बन चुकी थी ।
सन १९४८ में जब इजरायल राष्ट्र का उदय हुआ तो बेन यहूदा के
संकल्प को एक नया आयाम मिल गया। उसका तो ६४ वर्ष की आयु में सन
१९२२ में क्षयरोग से निधन हो चुका था, पर उसके सत्प्रयासों से
जीवित की गई हिब्रू भाषा इजरायल की राजभाषा बन गई। ज़रा ध्यान
दीजिए कि इजरायल को बने लगभग उतना ही समय बीता है जितना हमें
स्वतंत्र हुए, पर यह यहूदियों का स्वभाषा प्रेम और स्वाभिमान
ही है जिसके बल पर वहाँ व्यापार, प्रशासन, शिक्षा, ज्ञान,
विज्ञान, साहित्य, कला, राजनीति आदि जीवन के प्रत्येक क्षेत्र
में हिब्रू का ही प्रयोग हो रहा है। पूरे विश्व में यहूदियों
की कुल संख्या लगभग एक करोड़ है, जिनमें से लगभग आधे अर्थात ५०
लाख इजरायल में रहते हैं, पर हिब्रू भाषा केवल इजरायल में रहने
वाले यहूदियों की नहीं, बल्कि पूरे विश्व में बिखरे सभी
यहूदियों की भाषा बन चुकी है। यों तो हर यहूदी आज बहु-
भाषाभाषी है, पर जीवन के विभिन्न क्षेत्रों से संबंधित साहित्य
की रचना हिब्रू में करना गौरव की बात समझता है।
यह इस बात का प्रमाण है कि अगर अपनी भाषा के प्रति अनुराग हो,
अपनी भाषा को लेकर स्वाभिमान का भाव हो तो ऐसी भाषा को भी
"जीवित" किया जा सकता है जिसे दूसरे लोग "मृत" समझते हैं। उस
भाषा को नया रूप दिया जा सकता है, समाज को नए संस्कार दिए जा
सकते हैं और हर बाधा को पार किया जा सकता है। क्या हम भी अपनी
भाषाओं के लिए इससे कुछ प्रेरणा लेंगे? हमारी भाषाएँ तो मृत
नहीं, जीवित हैं। हमें तो केवल इन भाषाओं के प्रयोग करने का
संकल्प लेना है। अपने स्वभाषा प्रेम और स्वाभिमान को जगाना है।
बेन यहूदा का उदाहरण क्या हमारे मन में ऊर्जा का संचार नहीं
करता ? अपने अन्दर झांकिए और अपनी संकल्प शक्ति का परिचय
दीजिए। |