प्रौढ़-शिक्षा
की कक्षाओं में मैंने उन दिनों नया- नया पढ़ाना शुरू किया
था। सुबह आठ बजे से कक्षायें आरम्भ होतीं। मेरे लिये गर्मी
की छुट्टियों का यह सार्थक उपयोग था।
अठारह से लेकर अट्टाइस वर्ष की उम्र की छात्रायें इन
कक्षाओं के माध्यम से बिहार बोर्ड की माध्यमिक परीक्षा के
लिये तैयार हो रही थीं। पचास छात्राएं क्लास में। सभी
आदिवासी। राँची और उसके आसपास के क्षेत्रों से आई हुई। कुछ
ऐसी कि कभी स्कूल का मुँह नहीं देखा था, इससे पहले । कुछ
ने बीच में पढ़ाई छोड़ दी थी। इन सबको भौतिकी जैसे कठिन माने
जाने वाले विषय को पढ़ाने का दायित्व मेरा। कभी भौतिकी के
प्रारम्भिक ज्ञान से आरम्भ कर गणित भी समझाना होता क्योंकि
उनमें से कई को दशमलव के जोड़- घटाव भी नहीं आते थे। मैं
पूर्ण मनोयोग से उन्हें विषय समझाने की कोशिश करती, लेकिन
अक्सर ही खीझ जाती जब पहली पंक्ति में चौथी बेंच पर बैठी
उस छात्रा को हर रोज सोता पाती। मेरी तमाम कोशिशें बेकार
रहीं- उसकी बेंच के करीब जाकर, बेंच थपथपाकर उठाने की
कोशिश, जोर से बोलना… किसी चीज का असर ही न होता। वह हर
रोज जैसे सोने के लिये ही क्लास में आती थी।
आखिर एक दिन मेरा धीरज छूट
गया-
“यह क्लास में आती क्यों है, जब इसे सोना है सारे वक्त? घर
पर सोया करे।“ मैंने बाकी कक्षा की ओर उन्मुख हो कर हवा
में प्रश्न उछाला।
“मैडम, ई बहुत थकी रहती है, इसीलिये सो जाती है। हर रोज
तीन बजे उठती है, घर का सब काम करती है – पानी लाना, गोबर
पाथना, घर लीपना, भात पकाना, सब करके आती है। घर में माँ
आउर छोटा भाई- बहन है। पन्दरह किलोमीटर है, इसका घर यहाँ
से। सुबह चार बजे चलना शुरू करती है, तब पहुँचती है। थक
जाती है।“ उसकी बगल की बेंच पर बैठी लड़की ने मेरे प्रश्न
का उत्तर दिया।
“लेकिन इस तरह तो पढ़ाई होने से रही। आने की जरूरत क्या
है?”
“इसको यहाँ आके पढ़ने का जो पैसा मिलता है, उसी से घर का
खर्चा चलता है, मैडम। घर में खाने को भी नहीं है।“
२३ जनवरी २०१२ |