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कहानियाँ

समकालीन हिंदी कहानियों के स्तंभ में इस सप्ताह प्रस्तुत है
यू.के. से ज़किया ज़ुबैरी की कहानी- मन की साँकल


क्या उसने अपने गिरने की कोई सीमा तय नहीं कर रखी?
सीमा के आँसुओं ने भी बहने की सीमा तोड़ दी है... इनकार कर दिया रुकने से.... आँसू बेतहाशा बहे जा रहे हैं....
 
वह चाह रही है कि समीर कमरे में आए और एक बार फिर अपने नन्हें मुन्ने हाथों से सूखा धनिया मुँह में रखने को कहे, ताकि उसके आँसू रुक सकें। बचपन में ऐसा ही हुआ करता था कि समीर माँ की आँखों से बहते हुए आँसू देखकर बेचैन हो उठता और लपक कर मसालों की अलमारी के पास पहुँच जाता, उचक उचक कर मसाले की बोतलें खींचने लगता; पंजों के बल खड़े खड़े जब थक जाता तो कुर्सी खींच कर लाता और ऊपर चढ़ कर बोतल में से धनिये के बीज निकाल कर माँ के मुँह में डाल देता कि माँ की आँखों से प्याज़ काटने से जो आँसू बह रहे है वे धनिया मुँह में रखने से रुक जाएँगे।

सीमा मुस्करा देती समीर की मासूमियत भरी मुहब्बत पर। वो शरमा जाता। माँ की टाँगों से लिपटते हुए कहता मैंने सूज़ी आंटी को कहते हुए सुना था जब आपके साथ आपके बाल बनवाने गया था। माँ खो गई है वक़्त के उन सुहाने सपनों में जब समीर हर समय सीमा के साथ ही रहना चाहता था।

“माँ ! मैं डरता हूँ कहीं आपको कुछ हो ना जाए इसी लिए मैं आपके साथ साथ आता हूँ।” ये कहकर वो अपने प्यारे प्यारे हाथों से सीमा के मुँह को पकड़ कर अपनी तरफ मोड़ लेता।

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