देश के बच्चे कल के भारत के निर्माता होंगे – इन
बच्चों के कन्धों पर ही देश का भविष्य निर्भर है। देश
के हर नागरिक को चाहिए कि इनके भविष्य को अतिसुन्दर
बनाने के लिए अपना जितना योगदान हो सके दें। बच्चों के
चाचा देश के पहले प्रधानमंत्री पं.
जवाहरलाल नेहरू ने यह वाक्य तब कहा था जब वह
देश की भावी योजनाओं के प्रारूपों का सुझाव दे रहे थे।
उस समय उनके लगभग सभी भाषणों में पंचवर्षीय योजनाओं,
साहित्यिक आदान–प्रदान, कला–संस्कृति, अपनी
परंपराओं आदि के
प्रचार–प्रसार के प्रयास के साथ–साथ बच्चों के भविष्य
निर्माण के लिए अच्छी–अच्छी फिल्मों के निर्माण पर बल
भी होता था।
पंडित जी के जगत प्रसिद्ध बाल–प्रेम और इस विचार के
व्यापक प्रसाद के परिणामस्वरूप बाल–फिल्मों के निर्माण
और प्रदर्शन को प्रोत्साहित करने के लिए ही सन् १९५३
में भारत सरकार ने देश के कलात्मक चलचित्रों को
वार्षिक पुरस्कार देने की जब योजना शुरू की, तब
'बाल–चित्रों' को भी पुरस्कृत करने की एक पृथक योजना
क्रियान्वित की गयी। बाद में इस योजना के तहत वर्ष के
सर्वश्रेष्ठ बाल–चित्र को जहां 'प्रधानमंत्री का
स्वर्ण पदक' की व्यवस्था की गयी, वहीं निर्माता को
२०
हजार रु. तथा निर्देशक को पाँच हजार रु. पुरस्कार
स्वरूप नकद देने तथा द्वितीय व तृतीय सर्वश्रेष्ठ
चलचित्र को भी क्रमशः २५०० रु. तथा प्रमाणपत्र देने की
व्यवस्था की गयी। जिसके क्रियान्वयन में बंगला भाषा
में बनी कलकत्ता की अरोरा फिल्म कम्पनी की बाल–फिल्म
'खेलघर' को प्रथम चलचित्र पुरस्कार समारोह
१९५४ में
योग्यता प्रमाण–पत्र प्रदान किया गया।
देखा जाये तो इस तरह का प्रोत्साहन गैर सरकारी
क्षेत्रों के लिए ही था, मगर धीरे–धीरे यह सरकारी
क्षेत्र में ही रच–बस गया, जबकि हमसे पूर्व ही कई
व्यावसायिक फिल्म निर्माताओं द्वारा तमाम समस्या
प्रधान कथानकों को लेकर बाल चलचित्रों का निर्माण किया
जा चुका था, जिनमें फजली ब्रदर्स का 'मासूम'(१९४१),
गौतम चित्र का 'यतीम'(१९४५), न्यू थियेटर्स का 'छोटा
भाई'(१९४९), आल्हाद चित्र का 'नन्हें–मुन्ने'(१९५२),
न्यू थियेटर्स का 'नया सफर'ऌ एम पी प्रोडक्शन का
'बाबला'(१९५३), राजकपूर का 'बूट पालिश', फिल्मिस्तान
का 'जागृति', के.ए.अब्बास का 'मुन्ना'(१९५४) ने अपनी
छवि बनायी। इसके बाद भी व्यावसायिक स्तर पर बच्चों के
कथानक को लेकर कई अच्छी फिल्में बनीं, जिनमें
ए.वी.एम.की 'हम पंछी एक डाल के'(१९५८), रूपवाणी की
'मासूम'(१९६०), राजश्री प्रोडक्शन की 'दोस्ती'(१९६४),
के.ए.अब्बास की 'हमारा घर'(१९६५), मरकरी प्रोडक्शन की
'नौनिहाल'(१९६७), आदर्श लोक की 'बालक'(१९६९)आदि
लोकप्रियता की दृष्टि से महत्वपूर्ण हैं। इनमें जहां
'हम पंछी एक डाल के' को १९५८ में प्रधानमंत्री का
स्वर्णपदक प्राप्त करने का सर्वप्रथम गौरव मिला, वहीं
– 'दोस्ती' ने पूरे देश में सफलता के परचम लहराये और
'हमारा घर'(विश्वबंधुत्व की भावना पर आधारित
कृष्णचन्द्र की कहानी का फिल्मांतरण) ने तो
१९६५ में
चेकोस्लावाकिया के अन्तर्राष्ट्रीय 'सिडाल्क पुरस्कार'
तथा स्पेन के बाल चित्र समारोह का दूसरा पुरस्कार
हासिल कर लिया।
जहाँ तक बाल फिल्मों का निर्माण न पुरस्कारों के
सरकारी क्षेत्रों तक सिमटने का प्रश्न है तो इसकी
शुरूआत भारत सरकार की ओर से गठित फिल्म जांच समिति की
सिफारिशों पर मई १९५५ में केन्द्रीय सूचना एवं प्रसारण
मंत्रालय द्वारा श्री हृदयनाथ कुंजरू की अध्यक्षता में
एक 'बाल चित्र समिति' (चिल्ड्रेन फिल्म सोसायटी) के
गठन के साथ ही हो गयी। यह भरत सरकार द्वारा प्रायोजित
एक स्वशासित संस्था है और इसकी वित्त व्यवस्था भी भारत
सरकार के सूचना और प्रसारण मंत्रालय के प्रशासनिक
नियंत्रण के तहत कार्यरत है। इस समिति का उद्देश्य
विशेष रूप से बच्चों के लिए स्वरूप व सुरूचिपूर्ण
फिल्मों का निर्माण, विदेशों से मिलीं 'डब' की गयीं
फिल्मों के माध्यम से भारतीय बच्चों को मनोरंजन और
शिक्षा प्रदान करना तथा उन्हें व्यावसायिक सिनेमा के
प्रतिकूल प्रभाव से बचाना है। समिति की फिल्म निर्माण
यूनिट मुम्बई में हैं जो सुप्रसिद्ध फिल्मकारों से
क्षेत्रीय भाषा की बाल फिल्में, कार्टून और पपेट
(कठपुतली) फिल्में बनवातीं है, साथ ही बाल–फिल्म
महोत्सव के जरिये इनका प्रचार–प्रसार करती हैं। समिति
के खाते में फिलहाल लगभग छह सौ फिल्में हैं, जिनमें
देश–विदेश की फीचर, लघु, कार्टून, पपेट और प्रायोगिक
अथवा विज्ञान विषयक फिल्में शामिल हैं। समिति निर्मित
प्रथम बाल–चित्र था नितिन बोस के निर्देशन में न्यू
थियेटर्स का 'चार दोस्त'(१९५६), जिसमें एक भालू, दो
छोटे बच्चे तथा एक लड़की के सहजे प्रेम की कहानी
चित्रित की गयी थी, जबकि इसी वर्ष बाद में समिति
द्वारा निर्मित केदार शर्मा के निर्देशन में बनी फिल्म
'जलदीप' को योग्यता–प्रमाण पत्र दिया गया। समिति को
अपनी फिल्मों के लिए मिला यह पहला पुरस्कार था। साथ ही
उसी वर्ष इस फिल्म ने वेनिस के बाल–फिल्म समारोह में
प्रथम पुरस्कार प्राप्त किया – यह एक बड़ी उपलब्धि थी।
इसी वर्ष समिति की दो फिल्में (बाल रामायण व राम
शास्त्री का
न्याय) और चर्चित हुई, किन्तु पुरस्कार से दूर रहीं।
समिति की ही पुरस्कृत अन्य फिल्मों में 'जन्म तिथि
(१९५८), विरसा एण्ड दि मैजिक हाल'(१९५९), 'वनियन
डियर(वटमृग १९६०), 'तरू'(दि ट्री १९९१), दोस्त
मगरमच्छ(सी फेज अवार्ड), 'अनोखा अस्पताल'(१९९०),
'अंकुर, मैना और कबूतर'(१९८९), 'अभयम(डब– मैं फिर
आऊंगा १९९१) तथा, 'मुझसे दोस्ती करोगे'(१९९३) का
उल्लेख भी जरूरी है। इसके अलावा समिति के कुछ
उल्लेखनीय फीचर फिल्मों – स्काउट कैम्प, हरिया,
यात्रा, गुरूभक्ति, दिल्ली की कहानी, सावित्री,
महातीर्थ, छत्रपति शिवाजी, बापू ने कहा था, राजू और
गंगाराम, हमें खेलने दो, कज़ाकी, बन्दर मेरा साथी, हरेट
प्रजापति (बंगाली), जवाब आयेगा, मुन्ना, लघु फिल्मों –
बच्चों से बातें, गंगा की लहरें, गुलाब का फूल, २६
जनवरी पंचतंत्र की कहानी, एकता, ईद मुबारक, चेतक,
बूंद–बूंद से सागर, राहुल, अनमोल मोती, कुत्ते की
कहानी, चंचल का सपना, मास्टर जी, हंगामा बाम्बे
स्टाइल, एक था चोटू–एक था मोटू, कार्टून फिल्मों –
बन्दर और घड़ियाल, मिठाई का गुड्ड़ा, जैसे को तैसा, नाग
और कौवा, विद्युत, पाषाणयुग, कठपुतली फिल्मों – ऐज यू
लाइक इट, भोला मोहन, लवकुश आदि का जिक्र भी समीचीन
होगा और भविष्य में इतिहास में दर्ज भी होगा। यही
भारतीय बाल चित्र समिति अब अपने नये नाम 'राष्ट्रीय
युवा एवं बाल–फिल्म केन्द्र'(एन.वाई.सी.एफ.सी) के नाम
से पहचानी जाती है।
बच्चों के लिये बनी इन फिल्मों से बहुत को राष्ट्रीय
और अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर सराहा तथा पुरस्कृत किया
गया, मगर इनका कथा पक्ष साधारण ही कहा जाएगा, बल्कि
यही कहा जा सकता है कि ये सभी मापदण्ड से श्रेष्ठ नहीं
होती। फिल्म यदि तकनीकी दृष्टि से खरी है तो कहानी
कमजोर है, या फिर जिस योग्यता की जरूरत फिल्मकारों में
होनी चाहिए – उनका अभाव रहता है। शायद यही कारण होगा
कि नयी पीढ़ी के विकास में उन फिल्मों के कथानकों का
अपना योगदान किसी महत्वपूर्ण योगदान के रूप में
स्वीकार नहीं किया जा सकता। इन कथानकों में पिछले कुछ
वर्षों तक सामयिक अथवा नये विषयों का अभाव रहा है जिसे
सी.वाई.सी.एफ.सी के अध्यक्ष पद पर बैठ कर सुश्री जया
बच्चन और अमोल पालेकर ने कुछ सुधारा जरूर, मगर अभी
अपेक्षित सुधार बाकी है, जिसकी प्रतीक्षा हर सिने
दर्शक को करनी होगी।
इस बीच उत्तर प्रदेश सरकार ने जरूर इस दिशा में 'उत्तर
प्रदेश फिल्म नीति' की घोषणा करके बाल फिल्मों के
निर्माण व प्रदर्शन को प्रोत्साहित किया है।
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