इस सप्ताह- |
अनुभूति
में-
ओम प्रभाकर, प्रभु दयाल,
धर्मेन्द्र कुमार सिंह, अमिता कौंडल और तरुण भटनागर
की
रचनाएँ। |
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साहित्य व संस्कृति में-
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1
भूली बिसरी कहानियों में भारत से
हिमांशु श्रीवास्तव की कहानी-
फर्क
बच्चों के
लिये कॉरपोरेशन का स्कूल नजदीक ही, बगल की सँकरी और गन्दी गली
से आगे था। मदन के दोनो बच्चे इसी स्कूल में पढ़ते और अपने
साथियों से रोज नई नई गालियाँ सीख कर अपने घर लौटते थे। यह सब
देख-सुन और अनुभव कर मनोरमा को बड़ा दुख होता था और वह अक्सर
सोचा करती कि उसके बच्चों को ऐसा नहीं होना चाहिये था। कभी कभी उसकी
इच्छी होती कि उसकी इस टीस में उसका पति मदन भी भागीदार बने पर
मदन को जैसे इस भागीदारी से गहरी नफरत थी। जब कभी मनोरमा यह
देखती कि उसके दो लड़के उसके संतान सुख के सुनहले सपने को सूखे
हुए सरोवर में तड़पती हुई मछली का रूप देने की तैयारी कर रहे
हैं तो उसका हृदय संभल नहीं पाता और तब यदि मदन घर में होता,
वह उसके पास आकर बुझते हुए स्वर में कहती, "देखो चुन्नू या
मुन्नू दोनो में से एक भी ठीक नहीं चल रहे हैं। बड़े होकर
तुम्हें ही नोच नोच कर खाएँगे।"
पूरी कहानी पढ़ें...
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कृष्ण बजगई की लघुकथा
तर्जनी
*
गिरीश पंकज का आलेख
नागार्जुन का कथा साहित्य
*
कमलेश माथुर का निबंध
रूप रंग अमलतास
*
सामयिकी में दयानंद पांडेय का लेख
शब्दाचार्य अरविंद कुमार |
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पिछले
सप्ताह- |
1
रवीन्द्रनाथ
त्यागी का व्यंग्य
पूरब खिले पलाश पिया
*
प्रकृति और पर्यावरण में
अर्बुदा ओहरी का लेख- पेड़ पलाश का
*
पूर्णिमा वर्मन का आलेख
डाकटिकटों और प्रथम
दिवस आवरणों में पलाश
*
सुधा गोयल नवीन के शब्दों में
पुराणकथा- अग्निदेव का शाप
*
भूली बिसरी कहानियों के अंतर्गत
भारत से
अमरकांत की कहानी-
पलाश के फूल
नए मकान के
सामने पक्की चहारदीवारी खड़ी करके जो आहाता बनाया गया है,
उसमें दोनो ओर पलाश के पेड़ों पर लाला लाल फूल छा गए थे।
राय साबह अहाते का फाटक खोलकर अंदर घुसे और बरामनदे में
पहुँच गए। धोती कुर्ता गाँधी टोपी हाथ में छड़ी... हाथों में
मोटी मोटी नसें उभर आई थीं। गाल भे हुए बासी आलू के समान
सिकुड़ चले थे, मूँछ और भौंहों के बालों पर हल्की सफेदी...
“बाबू हृदय नारायण ! ...ओवरसियर साहब !” बाहर किसी को न पाकर
दरवाजे का पास खड़े होकर उन्होंने आवाज दी।
कुछ ही देर में लुंगी और कमीज में एक व्यक्ति बाहर निकल
आया। उसको देखकर राय साहब के मुँह पर प्रसन्नता फैल गई।
उन्होंने रहस्यमय ढंग से पूछा, “मुझको पहचाना?” और जब हृदय
नारायण ने कोई उत्तर न देकर संकुचित आँखों से घूरना ही उचित
समझा तो वे बोले, “कभी आप यहाँ गवर्नमेंट स्कूल में पढ़ते थे?--पूरी
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