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समकालीन कहानियों में भारत से
प्रवीण पंडित की कहानी
अपने अपने
दायरे
चौपाल
अलसाई सी उठ बैठी।
पीपल ने भी अँगड़ाई ली।
गली कूचे कुलबुला उठे।
हल्की सी ठंड भरे दिन ने बदन सेंकने के लिये सुबह के नवेले
गुलाबी गोले को बरसाती की मुंडेर पर लटका दिया, तो गुरजी घोसी
ने भी दरवाज़े पर गुहार लगा दी__
"दो SSS ध "
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माँ खामोशी से चादर लपेटने लगी। अब खाट से पांव ज़मीन पर टिका
कर धीरे- धीरे चट्टी (लकड़ी की खड़ाऊँ ) ढूँढ़ेंगी। दूध लाने के
लिये भगौना उठा कर कोठा, सहन और चौक पार करते हुए दरवाज़े तक
जाएगी-- धीरे धीरे। तब तक गुरजी की दूसरी, फुट भर ज़्यादा लम्बी
गुहार लग चुकी होगी--
"दो SSSSS ध"
दूसरी गुहार पर बाबू जी की, सोते-सोते, कसमसाती सी आवाज़ निकलती
है।
"कब तक सोती रहेगी? दूध ले ले।"
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उमेश अग्निहोत्री का व्यंग्य
मैं और फेसबुक
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कुमार रवीन्द्र की
स्मृति-यात्रा
महोबा होकर खजुराहो तक
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प्रदीप शर्मा खुसरो का आलेख
सूफी
दरगाहों में वसंत पंचमी
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पुनर्पाठ में सूरज जोशी के साथ देखें
आस्ट्रेलिया के कंगारू |