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सामयिकी भारत से


उनका स्वर ही उनका स्मारक रहेगा
प्रभु जोशी


स्वर संसार के एक अभूतपूर्व नागरिक पंडित भीमसेन जोशी का अवसान दरअस्ल कंठ संगीत के महा-अध्याय की समाप्ति की दारुण सूचना है। हमारी स्वाधीनता की वय जितनी आज है, लगभग वही उनके गायन की रही है। लगभग भरे पूरे छह दशकों से वे कंठ स्वर के ऐसे अपने आप में एक अकेले साधक रहे हैं जिन्होंने भारतीय संगीत को अपनी गायन मेधा से ऐसा आलोकित रखा कि संगीत की दुनिया की सारी असहमतियाँ और आलोचनाएँ ध्वस्त हो गईं।

जब भरतीय संगीत में खासतौर से हिंदी क्षेत्र में शास्त्रीय संगीत को रसिक से अधिक बुद्धिजीवियों की सराहना से शीर्षस्थ बनाया जा रहा था तब दबे स्वर में पंडित भीमसेन जोशी के बारे में टिप्पणी की जाती थी कि वे तो व्याकरण गाते हैं। जो उनकी शक्ति थी उसे कमजोरी बताया जाने लगा। यह वैसा ही तरीका था जो परंपरा को निरस्त करने के लिये कमोबेशतर लांछन की तरह बताया जाता है। लेकिन पंडित भीमसेन जानते थे कि संगत में गायक स्वर ही उसका स्मारक होता है और दूसरी तमाम युक्तियाँ एक दिन निरर्थक हो जाती हैं। इसलिये उन्होंने स्वर को अपनी आत्मा से इतना एकाकार कर लिया था कि जब गाते हुये राग का मानचित्र गढ़ते थे तो उसमें कौशल नहीं तपस्या के दर्शन होते थे। हालाँकि, ऐसा नहीं है कि स्वर का क्रीडाभाव उनके अंदर नहीं था। वह तो था ही लेकिन उन्होंने परंपरा को तोड़ने की बजाय उसका नवीनीकरण किया।

कहते हैं उनके खरज के सामने उनकी उम्र पस्त हो जाती थी। वे गंधार से सप्तक तक ऐसे विचरण करते, गालिबन संसार का कोई स्वर उनके कंठ से बाहर नहीं है। उनके द्वारा गाए गए सभी राग एक तरह से शास्त्र का सर्वाधिक वैध प्रमाणीकरण हैं। संगत मर्मज्ञ जानते हैं के वे विवादी स्वर को भी अपने कंठ से ऐसे राजी कर लेते थे जैसे वह उस राग के लिये अनिवार्य था। गंधार से उठकर मध्यम स्वर पर लौटने की उनकी युक्ति हमें हतप्रभ कर देती है।

हालाँकि उन्हें कभी कभी क्रोधी भी मान लिया जाता था लेकिन उनके पास क्रोध नहीं था। क्रोधित दिखने की तकनीक थी। दूसरे ही क्षण वे इतने सामान्य होते थे जैसे अभी अभी जो उनकी मुद्रा थी वह हमारा भ्रम था। उन्होंने रागदारी से अलग भक्ति संगीत की ऐसी मिसालें कायम की है जिनको सुनते हुए लगता है कि जैसे भक्ति का आद्य और अलौकिक आनंद स्वर में अपनी लीला कर रहा है। उन्होंने लता मंगेशकर के साथ गाना स्वीकारा और फिल्म घरौंदा में जो भजन गाया, वह अद्भुत है। जबकि कुछेक शास्त्रीय गायकों के लिये फिल्म का संगीत एक स्थाई भर्त्सना का विषय रहा आया है। मन्ना डे ने पंडित जी की ऊँचाइयों बावजूद उनकी विनम्रता को याद करते हुए एक संस्मरण में दर्ज किया है कि वे अहम को हाशिये पर रखने में अपने गायन की अवहेलना नहीं समझते थे।

वैसे अमूमन अपने जीवन के उत्तरार्ध में एक संगीतज्ञ अपनी सार्वदेशीय स्वीकृति बनाता है लेकिन पंडित जी ने उसे अपने पूर्वार्ध में हासिल कर लिया था। बाद में जितने भी उन्हें सम्मान मिले वे उनके पास पहुँच स्वयं आलोकित और उज्जवल हुए हैं। मुझे याद है आखिरी बार उन्हें मैंने दिल्ली के एक खुले उद्यान में ऐन सुबह गाते हुए सुना था। हजारों लोग उद्यान की हरी घास पर बैठे हुए थे और वे भजन प्रस्तुत कर रहे थे। उन्हे सुनते हुए मुझे लगा वे स्वर संसार के अनश्वर नागरिक हैं। उन्हें मृत्यु हमसे चाहे छीन ले, लेकिन वह भी उनको लिवाने आए तो ठिठक जाएगी जब वे गा रहे होंगे।

पिछले काफी अरसे से उनका गाना स्थगित था, लेकिन मौन में भी स्वर में काँपता होगा उनका कंठ। मृत्यु के लिये शायद यही कालखंड सुविधाजनक लगा होगा। वर्ना भजन गाते हुए मृत्यु उनके निकट आने की हिम्मत भी नहीं कर सकती थी। पंडित भीमसेन जोशी विदा जरूर हो गए हैं लेकिन वे ईश्वर की किसी अनुकंपा की तरह छोड़ गए हैं, हमारे लिये अपना गायन।

३१ जनवरी २०११

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