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प्रकृति और पर्यावरण


वर्षा विगत शरद रितु आई

डा भगवती शरण मिश्र


शारदीय सुषमा, भारतीय साहित्यकारों के गुणग्राही चक्षुओं के समक्ष, सदा सतरंगी बनकर ही उभरती आयी है। वसंत के अपने झूमते-महकते, सुमन हो सकते हैं, खिलती-इठलाती कलियाँ, गंधवाही मंद बयार और भौरों की गुंजरित-उल्लासित पंक्तियाँ हो सकती हैं, पर शरद का नील-धवल, स्फटिक-सा आकाश, उसकी अमृतवर्षिणी चाँदनी और कमल-कुम़ुदिनियों-भरे उसके असंख्य ताल-तड़ाग, उसके पास कहाँ? और सबके ऊपर, संपूर्ण धरित्रि को श्वेत धरित्रि में आवेष्टित करने को आकुल, कास-जवास के ये सफेद-सफेद उर्ध्वमुखी फूल ये तो शरद की ही संपत्ति हैं-
फूले कास सकल मही छाई,
जनु कृत प्रकट बुढ़ाई।


वृद्धा वर्षा की ओट में आती अभिसारिका ने केवल तुलसीदास मुग्ध किया हो, ऐसी बात नहीं। कवि-कुल-गुरू कालिदास को भी शरद नायिका की इसी अदा ने बाँधा था -
काशांसुका विचक्रपद्म मनोज्ञ वस्त्र, सोन्मादहंसरव नूपुर नादरम्या।
आपक्वशालि रूचिरानतगात्रयष्टि : प्राप्ताशरन्नवधूरिव रूप रम्या।।
(ऋतु संहार)


लो आ गयी यह नव-वधू-सी शोभती, शरद-नायिका! कास के सफेद पुष्पों से ढकी इस श्वेत-वस्त्रा का मुख, कमल-पुष्पों से ही निर्मित है और मस्त राजहंसी की मधुर आवाज ही, इसकी नूपुर-ध्वनि है। पकी बालियों से नत, धान-पौधों की तरह तरंगायित इसकी तन-यष्टि, किसका मन नहीं मोहती।

पावस-मेघों के अथक प्रयास से धो पुँछ आये, आसमान में किसी सम्राट की शान में विहरता चाँद और उससे फूटती, धरती की ओर भागती, उसकी निर्बाध निष्कलंक चाँदनी, शरद के ही एकाधिकार है। वस्तुत: बहुत सारे शारदीय उपहारों की
तुलना में यह धवल, नूतन, शरद-ज्योत्स्ना ही भारतीय कवियों की सर्वाधिक प्रिय काव्य-प्रेरणा रही है।

भारतीय कवियों के आदि-गुरू वाल्मीकि का वृद्ध, किंतु रसलोलुप मन को शरद की इसी लुभावनी शोभा पर लोट-पोट हो आया था और शायद किसी जोत्स्नासिक्त शारदीय आकाश के नीचे ही बैठ वे गुनगुना पड़े थे --
रात्रि: शशांकोदित सौम्य वस्त्रा, तारागणोन्मीलित चारू नेत्रा।
ज्योत्स्नांशुक प्रावरणा विभाति, नारीव शुक्लांशुक संवृतांगी।।


मृदु धवल चाँदनी शोभित, शरद रजनी, किसी श्वेत-वस्त्रा सुंदरी-सी दिख रही है। खिला चाँद ही इसका मुख है और टिमटिमाते तारे ही इसके उन्मीलित नयन।

राम-चरित्र का यह अप्रतिम गायक अपने शरद-वर्णन के क्रम में बार-बार चाँद और चाँदनी पर ही आ जाता है। और तो और, उसके पुरूषोत्तम नायक का मन भी आसमान के इस सुधा-वर्षण से आकंठ सिक्त हो उठता है और यह अपनी बिछुड़ती प्रिया की याद में तड़प उठता है --
पान्डुरं गगनं दृष्ट्वा विमलं चंद्रमंडलं।
शारदीं रजनीं चैवा दृष्टवा ज्योत्सनानुलेपनम्।।

नायक, शारदीय ज्योत्स्ना से चाहे जितने प्रभावित होते हों, संस्कृत कवियों की नायिकाओं के बीच भी चाँद और चाँदनी कुछ कम नहीं आते।

कालिदास के 'अभिज्ञानशाकुंतलम्' की नायिका जब सहसा कुंठा-ग्रस्त हो जाती और दुष्यंत के आकर्षण के प्रति अपने को आश्वस्त नहीं रख पाती, तब उसकी सखियाँ उसके रूप माधुर्य की तुलना, शरद-ज्योत्स्ना से ही कर, उसके डूबते मन को सँभालती हैं - "क्व इदानीं शारदीं ज्योत्स्नां पटान्तेनवारयति?" - व्यर्थ ही तुम शंकाकुल हो रही हो न, भला कोई शरद चंद्रिका को वस्त्र की ओट देता है?

किसी का शरद-चाँदनी को वस्त्र की ओट देना आश्चर्यजनक हो या नहीं, पर यह किसी आश्चर्य से कम नहीं कि संस्कृत कवि भारवि ने अपने ' किरातार्जुनीयम्' के शरद-वर्णन के संपूर्ण चतुर्थ सर्ग में एक बार भी चाँद अथवा चाँदनी को नहीं याद किया है। उन्होंने चाँद-चाँदनी के जूठे प्रसंग को त्याग, कुछ बड़े अनूठे बिंब प्रस्तुत किये हैं -
विमुच्यमनैरपि तस्य मन्थरं, गवां हिमानीविशदै: कदम्बकै:।
शरन्नदीनां पुलिनै: कुतूहलं, गलद्दुकूलैर्जघनैरिवादधै।।

-हिम -श्वेत गौओं द्वारा धीरे-धीरे छोड़े जाते हुए, शरद-ऋतु के नदी तटों ने अर्जुन को ऐसा कुतूहल प्र्रदान किया, जैसे वे किसी रमणी के निर्वस्त्र जघन-प्रदेश को देख रहे हों।

कालिदास के ऋतु-संहार की गणना यद्यपि उनकी प्रारंभिक रचनाओं में होती है, पर उनका शरद-वर्णन कभी भी किसी कच्चे कलाकार की कल्पना नहीं लगता। 'उपमा कालिदासस्य' की उक्ति को चरितार्थ करते हुए बहुत सारे अनुपमेय बिंब इस वर्णन के क्रम में आये हैं, पर चाँद-चाँदनी का उल्लेख यहाँ भी घूम-फिरकर अनेक बार आया है।

चाँद-चाँदनी संबंधी बहुत सारे मनोहारी वर्णनों में निम्न श्लोक की शब्दयोजना देखने योग्य है -
स्फुट कुमुदचितानां राजहंसाश्रितानां, मरकतमणियासा वारिणाभूषितानाम्।
त्रियमतिशयरूपां व्योम तोयाशयानां, वहति विगतमैधम् चंद्रतारावकीर्णम्।।


-
खिलखिलाते चंद्रमा और टिमटिमाते तारों से पूरित शारदीय आकाश उन तड़ागों की शोभा प्रस्तुत कर रहा है, जिनमें नीलम-सा स्वच्छ सलिल-भरा है और जहाँ, खिली कुमुदिनियों के मध्य राजहंस शोभित हो रहा है।

वर्षा और कभी-कभी वसंत-वर्णन को भी, शरद-वर्णन ने जो संस्कृत-काव्यों में मात दी है, उसके कुछ मांसल और व्यावहारिक कारण भी हैं। वर्षा में वपन हुए बीज, शरद के आरंभ तक पुष्ट पौधे बन जाते हैं और शरद की समाप्ति होते न होते, ये पौधे पके फलों से झूम-झूम उठते हैं। धान की पीली बालियों से बोझिल धान-क्यारियाँ, केसर-क्यारियों की याद दिलाती हैं और अन्न-गंध से भरी बयार, नासिका-रंध्रों की राह उदर-प्रदेश में प्रवेश कर एक अद्भुत तृप्ति और आसन्न भविष्य के प्रति एक स्पष्ट आश्वासन से भर देती है।

यही कारण है कि 'किरातार्जुनीयम्' का भारवि भी जो शरद-चाँद को सहज ही उपेक्षित कर जाता है, वाल्मीकि और कालिदास की परंपरा में ही धान की पकी बालियों की यशो-गाथा पर पंक्तियों पर पंक्तियाँ लिख मारता है। शरद के व्यावहारिक और मांसल पक्ष का इससे स्पष्ट प्रमाण क्या हो सकता है कि धान की बालियाँ और पुष्पों के पराग के साथ-साथ शरद के संयत जल की मनोहारी मछलियाँ भी भारवि के मन को बांधने में पीछे नहीं रहतीं। वाल्मीकि के सदृश, निरामिष-सा प्रतीत होता कवि भी मछलियों की ओर से आंखें नहीं मोड़ पाता -
- मीनोपसंदर्भित मेखलानां नदी वधूनांगतयोद्य मंदा:।

भक्त कवि तुलसी के साथ-साथ (जल संकोच विकल भई मीना) प्राय: सभी प्राचीन कवि शारदीय मत्स्य-विहार पर विमुग्ध हुए हैं और कालिदास भी मछलियों को नहीं भूल पाते हैं -
शफरी रसनाकलापा:
पर्यन्तसंस्थितसिताण्डज पंकित हारा:।।


शरद की शस्याच्छादित धरती, वाल्मीकि से लेकर भारवि तक के मन को तो मोहती ही रही है, कालिदास ने एक पग आगे पढ़कर पशुओं के उपजीव्य तक की चिंता कर ली और झूमते धान-खेतों के साथ-साथ, हरी-घास से पटे मैदानों में आहार-निरत, गौ-परिवारों का गीत गाना भी वे नहीं भूले।

शरद का वर्णन हो और काम-क्रीड़ा अचर्चित रह जाए, ऐसी अपेक्षा कम से कम संस्कृत कवियों से नहीं की जा सकती। केलि-प्रसंगों के वर्णन में ' कुख्यात' कालिदास की बात ही क्या, उनकी कामिनी तो सुबह होते न होते सखियों के समक्ष रात्रि की अपनी संपूर्ण प्रणय-लीला उगल देती हैं, पर आदि कवि के नायक का भी अब तक का सहेजा, प्रिया-विनोद शरद
के आगमन के साथ ही असह्य हो उठता है --
प्रिया विहीने दु:खार्ते हृदराज्ये विवासिते
कृपां न कुरूते राजा, सुग्रीवो मयि लक्ष्मण


- लक्ष्मण! राज्य से निष्कासित और प्रिया-वियोग से पीड़ित, इस दुखी व्यक्ति पर भी सुग्रीव कृपा नहीं कर रहा।

और तो और, भारवि का कामजयी नायक भी, जिसे कभी स्वर्ग की अप्सरा का रूप भी नहीं रिझा पाया था, शरद ऋतु में धान की रखवाली करती औरतों के रूप से ही कृतार्थ हो उठता है - सतेन पाण्डो: कलमस्य गोपिकां निरीक्ष्यमेने शरद: कृतार्थता।

वाल्मीकि यहाँ भी पीछे नहीं रहते। शरद-प्रसूत कामोन्मत्तता के वर्णन में वे अपने परवर्ती श्रृंगारिक कवियों तक के कान काट ले गये हैं। नदियों के नंगे तटों से शनै:-शनै: खिसकते जल में उन्हें अल्हड़ नायिका द्वारा प्रथम समागम के समय धीरे-धीरे निर्वस्त्र होते जानु-प्रदेशों की याद आती है -

दर्शयन्ति शरन्नध: पुलिनानि शनै:-शनै:।
नव संगमसवोडा जघनानीव योषित:।।

कालिदास फिर भी काम-वर्णन में अद्वितीय हैं। शरद के आगमन पर उनकी प्रेषित-पतिका नायिकाएँ अपने पतियों के अभिसार के लिए, स्तन-प्रदेशों को चंदन और मोती-माल तथा नितंबों को करधनी से युक्त करती हैं -

हारै: नर्चदेनरसै: स्तनमंडलानि श्रेणी
तटं सुविपुलं रसना-कलापै:।


नीले आसमान से झरती दुग्ध-धवल चाँदनी, हिम-मंडित, श्वेत गिरि-शिखर, शुभ्र फूलों में लदे कास-जवास स्वच्छ पारदर्शी जल से पूरित मंद-गामिनी सरिताएँ और श्वेत-संयत सलिल भरे तालतड़ाग। सब लेकर एक श्वेत, पवित्र रूप ही शरद का उभरता है, हमारी आंखों के समक्ष और शायद शरद की यह श्वेत वसना, शुभ्रा धरती ही थी, संस्कृत साहित्य के अमर गायक कालिदास की आंखों के सामने, जब उन्होंने शारदीय सुषमा को इन शब्दों में बाँधा था -

संपन्न शालिनिचयावृत भूतलानि
स्वस्थास्थित प्रचुर गोकुल शोभितानि।
हंसै: संसारसकुलै: प्रतिनादितानि,
सीमांतराणि जनयंति नृणां प्रमोदम्।।

 
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