पिछले दिनों जब मैं अपने नाटक की
तैयारी कर रहा था, मेरे कुछ दोस्तों ने कहा आप फेसबुक के सदस्य बन जाएँ, फेसबुक ने
बड़े-बड़े व्यापार बढाए हैं, आप भी फायदा उठाइये, नाटक का विज्ञापन करने में मदद
मिलेगी, तो मैं भी फेसबुक पर चढ़ गया। फेसबुक पर नाटक की चर्चा हुई, मैं खुश हूँ,
नाटक यहाँ हुआ, चर्चा दुनियाभर में। यह हमारी आज की दुनिया का कमाल और हक़ीकत है।
आयोजन हो न हो, धूम दुनिया के कोने-कोने में मचाई जा सकती है।
चर्चा के साथ-साथ कुछ और भी हुआ
जो मेरी जिंदगी में आज तक नहीं हुआ था। और वह यह था -- कि मेरा सदस्य बनना था-- कि
देखता हूँ कि सारी दुनिया मेरी मित्र बनने के लिये उतावली है --- जब-जब ई-मेल
खोलूँ- लिखा मिले – कि फलां शख्स मेरा मित्र बनना चाहता है, ‘स्वीकार’ करें। मैं
स्वीकार करूँ तो और ई-मेले आने लगीं। कुछ तो उन महानुभावों की भी जिनके बारे में
मेरा यकीन बन चुका है, कि वे मुझे नापसंद करते है, और इस जन्म में तो वह अगले जन्म
में भी मुझ से बात नहीं करना चाहेंगे। एक ई-मेल तो मेरे एक दोस्त की पत्नी के नाम
से भी आई कि वह मेरी मित्र बनना चाहती है। दुविधा में पड़ गया कि यह मेरे दोस्त के
होते हुए मेरे साथ अलग से दोस्ती क्यों गाँठना चाहती हैं। वह क्या बात है कि
आमने-सामने न कह कर फेसबुक के ज़रिये कहना चाहती हैं
मेरी बेटियों की सहलियों की भी ई-मेले आने लगीं। वे भी मेरी मित्र बनना चाहती थीं।
सोचने लगा कि अच्छा –खासा मुझे सादर पापा या अंकल बुलाती हैं, यह दोस्त क्यों बनना
चाहती हैं। एक बार तो एक ऐसी महिला की ई-मेल आयी जिनसे मेरा दुआ-सलाम भी नहीं था।
बताया गया कि वह किसी की फेसबुक में रही होंगी, अपने फेसबुक मित्रों से परिचय कराते
हुए उन्होंने उनका नाम भी अपनी तरफ से मुझे भेज दिया होगा। सोचता हूँ दोस्ती का
मतलब वह रहा ही नहीं जो कभी हुआ करता था। किसी को मित्र कहना बहुत बड़ी बात हुआ
करती थी। शकील बदायुनी की बात याद हो आयी। ‘बाद मुद्दत के मिले तो इस तरह देखा
मुझे, जिस तरह इक अजनबी पर अजनबी डाले नज़र, आपने यह भी न सोचा दोस्ती क्या चीज़
है।‘
अब तो देख रहा हूँ मेरी तरफ से भी
कइयों के आगे दोस्ती का हाथ बढ़ाया जा रहा है। दोस्ती की यह नई किस्म हमारे इस दौर
की देन है फेसबुक फ्रेंड। मैं इससे नावाकिफ था..इसलिये ‘परिचय’ और ‘मित्र’के बीच की
इस किस्म को न समझ सका। बहुत से लोग एक-दूसरे से फेसबुक की दोस्ती से ही खुश हैं,
मिलने के लिये आने-जाने का झंझट कौन करे, फेसबुक पर ही अपनी अच्छी-अच्छी तस्वीरें
दिखाते रहो, हाय-बाय करते रहो। जाने कितने पेशवर सोशल नेटवर्क खुल गये हैं,
ब्रिज्ज.कॉम या लिंकेंडेन.कॉम मैं उनका सदस्य तक नहीं हूँ, लेकिन उनमें भी मेरे
मित्र पैदा हो रहे हैं यह सिलसिला कब और कहाँ जाकर थमेगा कौन जाने।
आप को भी कुछ ऐसे ही अनुभव हुए होंगे। बहुतों को
फेसबुक पसंद है, क्योंकि इससे पता चलता रहता है कि मित्र क्या – कुछ कर रहे हैं।
तभी तो फेसबुक इस्तेमाल करनेवालों की तादाद ५० करोड़ से अधिक हो गई है। मुझे एक
नाटक और उसपर बनी फिल्म "सिक्स डिग्री ऑफ सेपरेशंस"
की याद हो आयी है जिसका कथानक यह है कि आपके मेरे और इस पृथ्वी पर बसे किसी दूसरे
व्यक्ति के बीच छह डिग्री का फ़र्क है ..यानी हर शख्स दूसरे से छह शख्स दूर है। मैं
उससे बात करूँ न करूँ वह मुझसे जुड़ा है। जैसे दिल्ली में शंकर रोड़ के किनारे बैठा
पान वाला मुझे जानता है, मैं कैपिटल हिल पर काम करनेवाले अजय त्रिपाठी को जानता हू,
अजय त्रिपाठी एक सैनेटर को जानता है, और वह सैनेटर, प्रेज़िडेंट ओबांमा को जानता
है, इस तरह दिल्ली में शंकर रोड पर बैठा पानवाला प्रेज़िडेंट ओबामा से जुड़ा है। और
अगर वह दोनों फेसबुक पर हों तो एक न एक दिन – वे चाहें न चाहें --एक दूसरे से जुड़
कर रहेंगे।
जिस रफ्तार से इन नेटवर्कों का
प्रचलन बढ़ रहा है, यह नई-नई हदें छू रही है। आप को मालूम ही होगा हाल ही में
इनटरनेट सोशल नेटवर्क पर एक फिल्म भी रिलीज़ हुई है, कई देशों ने इन नेटवर्कों पर
रोक भी लगा रखी है, देखिये वह इसकी बयार को कब तक रोक पाते हैं। मैं सोच रहा हूँ तब
क्या होगा कि एक दिन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की फेसबुक पर सैयद यूसुफ रज़ा गिलानी
आ जाएँ, और कहें कि मैं आपका दोस्त बनना चाहता हूँ, या प्रेजिडेंट ओबामा की ईमेल
ओसामा के नाम, या ओसामा की ओबामा के पास पहुँच जाए। कुछ भी हो सकता है..।
इंटरनेट के शरारती लोगों का कोई
भरोसा नहीं है। हम तो उस तहज़ीब से हैं जिसमें तस्वीरें दिल के आइने में छुपा कर
रखी जाती थीं, और चोरी – चोरी ज़रा गर्दन झुका कर देख ली जाती थीं, किसी को दिखाना
तो दूर की बात रही। अगर किसी की तस्वीर किसी के पास मिल जाती थी तो कहानियाँ बन
जाती थीं। अब तो तस्वीर तस्वीरों में गुम हो गयी है इतनी तस्वीरें और चेहरे हो गए
हैं कि कहने को मन होता है...
अब तो चेहरों की किताब हो गई दुनिया।
कैसा खूबसूरत हिजाब हो गई दुनिया।। |