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कहानियाँ

समकालीन हिंदी कहानियों के स्तंभ में इस सप्ताह प्रस्तुत है
भारत से प्रवीण पंडित की कहानी— अपने अपने दायरे


चौपाल अलसाई सी उठ बैठी।
पीपल ने भी अंगड़ाई ली।
गली कूंचे कुलबुला उठे।
हल्की सी ठंड भरे दिन ने बदन सेंकने के लिये सुबह के नवेले गुलाबी गोले को बरसाती की मुंडेर पर लटका दिया, तो गुरजी घोसी ने भी दरवाज़े पर गुहार लगा दी__
"दो
SSS ध "

माँ खामोशी से चादर लपेटने लगी। अब खाट से पांव ज़मीन पर टिका कर धीरे- धीरे चट्टी (लकड़ी की खड़ाऊँ ) ढ़ूढ़ेंगी। दूध लाने के लिये भगौना उठा कर कोठा, सहन और चौक पार करते हुए दरवाज़े तक जाएगी-- धीरे धीरे। तब तक गुरजी की दूसरी, फ़ीट भर ज़्यादा लम्बी गुहार लग चुकी होगी--
"दो
SSSSS ध "।
दूसरी गुहार पर बाबू जी की, सोते-सोते, कसमसाती सी आवाज़ निकलती है।
"कब तक सोती रहेगी ? दूध ले ले।"
बाबू जी की हुमहुमी माँ के कान मे जब पड़ती है, तब वो सहन से चौक के दरम्यां होती है । माँ दबी आवाज़ मे गुर्राती सी बोल उठती है --
"ले तो रई हूँ, सो कां रई हूँ ?"

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