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२७. १२. २०१

सप्ताह का विचार- अपने संवेगों और भावनाओं पर नियंत्रण, निर्णय में मजबूती और वचनों में दृढता से जीवन-को-सफल-बनाया-जा-सकता-है।--स्वामी-शिवानंद

अनुभूति में-
हरिशंकर सक्सेना, आचार्य गौरीशंकर अरुण, अभिषेक झा, ज़्देन्येक वाग्नेर और डॉ. शैल रस्तोगी की रचनाएँ।

रसोईघर से सौंदर्य सुझाव- एक केले का गूदा बनाकर उसमें ५ बूँद नीबू डालें और चेहरे पर लगा लें। २० मिनट बाद धोने पर चेहरे पर चमक आ जाएगी।

पुनर्पाठ में- १६ अप्रैल २००२ को प्रकाशित चंद्रकांता की कहानी- "रसूल अहमद बल्द महदजू उर्फ ऋषि परंपरा का दुखांत"।

क्या आप जानते हैं? कि गिद्ध को उड़ने के लिये सामान्य पक्षी की तरह अपने डैनों को हिलाते रहने की आवश्यकता नहीं होती।

नवगीत-की-पाठशाला-में- नए साल की रचनाओं का प्रकाशन जारी है। चुनी हुई रचनाओं को अनुभूति के नव वर्ष विशेषांक में पढ़ा जा सकेगा। आगे पढ़ें...

शुक्रवार चौपाल- २४ दिसंबर की शुक्रवार चौपाल में सुबह के पहले सत्र में कंप्यूटर पर इनस्क्रिप्ट टाइपिंग का अभ्यास हुआ... आगे पढ़ें

वर्ग पहेली- ००९


हास परिहास


सप्ताह का कार्टून
कीर्तीश की कूची से

इस सप्ताह
मेरी प्रिय कहानी के अंतर्गत यू.के. से
अचला शर्मा की कहानी चौथी ऋतु

लिंडा ने फ़ायरप्लेस के ऊपर सजे क्रिसमस कार्ड्स पर एक भरपूर नज़र डाली और फिर टाईम्स की सुर्ख़ी पर- तीस साल बाद लंदन में इतनी भारी बर्फ़ पड़ी है। वह बुदबदाईं, चाहो तो एक मिनट में उँगलियों में गिन लो, चाहो तो तीस वसंत याद करो या फिर तीस पतझड़। भला कितने साल की थीं वे तीस साल पहले। यही कोई चालीस-इकतालीस की। घुटनों पर रखा टाईम्स फिसल कर ज़मीन पर नीचे गिर गया। ऐसे ही तो गुज़र जाता है वक्त-एक हल्की सरसराहट के साथ। अब तो उनके पति को गुज़रे भी दस साल हो गए। लिंडा की नज़र दीवार पर टंगी जॉर्ज की तस्वीर की और गई। मन में एक उलाहना सा उठा- बुढ़ापा काटने की बारी आई तो अकेला छोड़ गए। दस साल से नितांत अकेली ही तो हैं वह। साल में एकाध बार बेटी आकर मिल जाती है। उसके बच्चों से घर महक उठता है। पर कितने दिन...हफ़्ता...ज़्यादा से ज़्यादा दस दिन... पूरी कहानी पढ़ें...
*

लेखिका का वक्तव्य
चौथी ऋतु- मेरी प्रिय कहानी
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मनीष कुमार जोशी से सामयिकी में
एशियाड- २०१० सफलता की नई उड़ान

*

प्रो. सत्य भूषण वर्मा का आलेख
हाइकु कविताओं के देश में
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समाचारों में
देश-विदेश से साहित्यिक-सांस्कृतिक सूचनाएँ

पिछले सप्ताह

अलका पाठक का व्यंग्य
शिखर वार्ता
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गोपीचंद श्रीनागर का आलेख
डाकटिकट हस्ताक्षर वाले
*

गुरमीत बेदी की वैज्ञानिक पड़ताल
हवा हो जाएँगी चिड़ियाँ
*

अर्बुदा ओहरी के साथ करें
सुबह के नाश्ते को सलाम

*

मथुरा कलौनी की कहानी सब कुछ ठीक ठाक है

एक जमाना था जब हम जवाँ थे, एक जमाना यह है जब कहना पड़ रहा है कि हम अब भी जवाँ हैं। फर्क इतना है कि तब दिल से सोचते थे और अब थोड़ा बहुत दिमाग से भी सोच लेते हैं। प्यार तब भी अपरिभाषित था और आज भी अपरिभाषित ही है। इसमें दिमागी सोच कम ही काम करती है।
ग़ालिब कह गये हैं - 'यह आग का दरिया है..'
सामरसेट माम कह गये हैं - 'प्यार के मामले में तटस्थ मत रहो..'
प्यार के इस पहलू पर लिखी गई यह कहानी काल्पनिक हैं पर कपोल काल्पनिक नहीं। - अवकाश प्राप्त करने के बाद पिताजी गाँव चंदनी में बस गये हैं। बीस बीघा जमीन है। जमीन के बीचोबीच आरामदेह और सुरुचिपूर्ण मकान बनाया है। दाहिने और बाएँ पड़ोस में उनके मित्र बसे हुए हैं। यारदोस्त अच्छे हें। पेन्शन है। बैंक में अच्छा बैलेन्स है। मतलब पिताजी सुखपूर्वक जीवन
... पूरी कहानी पढ़ें...

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प्रकाशन : प्रवीण सक्सेना -|- परियोजना निदेशन : अश्विन गांधी
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