चौथी
ऋतु- मेरी प्रिय कहानी
अचला शर्मा
यह कहानी मैंने ज़माना पहले लिखी थी। शायद बीस साल हो गए, या
उससे भी ज़्यादा। ढूँढ़ने बैठी तो पाया कि मेरे जिस संग्रह
सूखा हुआ समुद्र में यह कहानी शामिल थी उस संग्रह की एक भी
प्रति मेरे पास नहीं बची। यहाँ तक कि कोई टाईप की हुई प्रति भी
नहीं मिली। बहुत कोशिश के बाद पुराने काग़ज़ों में दबा कहानी
का हाथ से लिखा हुआ पहला ड्राफ़्ट मिला। उसी को फिर से टाईप
किया। बहुत संभव है कि प्रकाशित कहानी और इस पाठ में यहाँ-वहाँ
कुछ शब्दों का अंतर हो। लेकिन कहानी मैं यही भेजना चाहती थी।
इसकी पहली वजह तो यही है कि तेजेंद्र ने अपनी कोई प्रिय कहानी
चुनने का निर्देश दिया था। अब इस सवाल का जवाब कि चौथी ऋतु
मुझे क्यों प्रिय है।
अस्ल में चौथी ऋतु अपने लिखे जाने से लेकर आज तक, हर साल यह
एहसास कराती रही है कि क्रिसमस के महीने को झेलने के लिए
ज़रूरी है कि आप जवान और तंदुरुस्त हों, आपका बड़ा सा परिवार
हो या बहुत सारे दोस्त हों। ताकि आप त्यौहार की रौनक और
उपहारों की ख़रीदारी को लेकर उत्साहित महसूस कर सकें। अन्यथा
क्रिसमस और उसके पहले का समय, किसी को भी घोर अवसाद में डुबो
सकता है। मेरे लंदन प्रवास के आरंभिक दौर में एक अँगरेज़
दंपति, जो मेरे मित्र थे, क्रिसमस के मौक़े पर मेरा खास ख़्याल
रखते रहे। अपने मॉँ बाप, भाई-बहन के साथ मुझे भी अपने घर
आमंत्रित करते। चूँकि 25 दिसंबर को लंदन में सार्वजनिक परिवहन
व्यवस्था भी बंद रहती है, इसलिए मुझे घर से ले जाने और वापस
पहुँचाने का भी इंतज़ाम होता। मैं इस देश में नई थी और अकेली
थी। किसी ग़रीब या अकेले इंसान को थोड़ी सी ख़ुशी देना क्रिसमस
की भावना के अनुकूल है। इसीलिए क्रिसमस की छुट्टियाँ आते ही
अचानक अख़बार, रेडियो, टेलिविजन सभी, समाज के उन वर्गों की बात
करने लगते हैं जो आमतौर पर चर्चा का विषय नहीं बनते- अनाथ,
बेघर और बुज़ुर्ग।
यह तो हुई क्रिसमस की बात। अब यहाँ के बुज़ुर्गों की बात। चौथी
ऋतु बुज़ुर्गों की कहानी है जिसे लिखे भले ही दो दशक बीत गए
हों लेकिन उसके पात्र मुझे अपने आसपास आज भी दिखाई देते हैं।
मुझे याद है, जब पहले पहल यहाँ आई थी तो एक दिन ट्रैफ़िक लाइट
पर एक बूढ़ी महिला को देखा। हाथ में शॉ़पिंग ट्रॉली थी। कमर
इतनी झुकी हुई की लगे सजदे में झुकी हैं। बाँए हाथ से ट्रॉली
खींचते हुए, दाहिने हाथ से लाठी टेकते हुए सड़क पार करने की
कोशिश कर रहीं थीं। दोनों तरफ़ कारें रुकी हुई थीं। लाल बत्ती
हरी हो चुकी थी। कारों में बैठे लोगों की बेताबी का अंदाज़ा
बिना हॉर्न की आवाज़ आए भी लगाया जा सकता था। मैंने आगे बढ़ कर
उनकी बाहँ थामी। सोचा सड़क पार करा दूँ। लेकिन वृद्धा ने मेरा
हाथ झटक दिया। बोलीं- ‘नो थैंकयू, आई कैन मैनेज’। बेशक
उन्होंने मैनेज कर लिया। भले ही सड़क पार करने के बाद एक बैंच
पर सुस्ताने के लिए पाँच मिनट बैठी रहीं। मेरे लिए उनका संदेश
था- ‘मैं आत्मनिर्भर हूँ’। यह आत्मनिर्भरता है या अकेले होने
का अभिशाप, इसका फ़ैसला मेरे हाथ में न तब था, न आज है।
मुझे यह देख कर अच्छा ही लगता है कि यहाँ के बुज़ुर्ग जब तक
संभव हो अपना जीवन अपने तरीक़े से, गरिमा के साथ जीते हैं।
बच्चों से ज़्यादा अपेक्षाएँ नहीं करते। वैसे भी ज़्यादातर
बच्चे अट्ठारह वर्ष के होते-होते अपनी आत्मनिर्भरता की तलाश
शुरु कर देते हैं। बीस साल पहले यहाँ के एशियाई परिवारों में
यह चलन नहीं था लेकिन दो दशकों में उनके बच्चों की एक और पीढ़ी
जवान हो गई है। यह पीढ़ी यहीं जन्मी है। वैसे भी एकल परिवार की
परिभाषा बदल रही है। एकल परिवार की तस्वीर में अब माँ-बाप के
साथ बच्चे तभी तक दिखाई देते हैं जब तक वे स्कूली शिक्षा
प्राप्त करते हैं। यह एक वास्तविकता है, सही ग़लत की बहस नहीं।
वास्तविकता यह भी है कि ज़्यादातर विकसित देशों में वृद्धों की
संख्या में इज़ाफ़ा हुआ है। यहाँ ब्रिटन में सन् 2001 की
जनगणना के आधार पर 60 मिलियन की आबादी में सरकारी पैंशन पाने
वाले लोगों की संख्या 2006 में 11 मिलियन से अधिक हो गई थी जो
2031 तक 15 मिलियन से भी ऊपर पहुँच जाएगी। बेहतर खाना-पीना और
बेहतर चिकित्सा सुविधाएँ, औसत आयु में वृद्धि के मुख्य कारण
बताए जाते हैं। लेकिन साथ ही, इस बीच पारिवारिक बिखराव और बढ़ा
है। जीवनयापन के साधन और महँगे हो गये हैं। बुज़ुर्गों को
मिलने वाली सरकारी सुविधाएँ भी कुछ कम हुई हैं क्योंकि
सुविधाओं के हक़दार ज़्यादा हो गए हैं। और बूढ़े लोगों की
तन्हाई का कोई इलाज सामने नहीं आया।
मतलब यह कि लगभग बीस वर्ष पहले चौथी ऋतु के पात्रों की जिस
पीड़ा से मेरा परिचय हुआ था, वह पीड़ा आज और गहरी हो गई है।
जिन दिनों यह कहानी लिखी थी, उन्हीं दिनों मैंने शाम का
क्रिसमस शीर्षक से इस कहानी का रेडियो के लिए नाट्य रुपांतर
किया जो क्रिसमस के मौक़े पर बीबीसी हिंदी से प्रसारित हुआ था।
कितने क्रिसमस आए और गए। हर साल दिसंबर के अंतिम सप्ताह मन में
बस यही प्रार्थना उठती है कि ‘गरिमा के साथ बुढ़ापा काटते किसी
वृद्ध के जीवन की शाम इतनी अकेली न हो कि उसकी अंतिम साँसों की
एकमात्र गवाह एक बिल्ली हो।’
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