मात्सुओ बाशो
जापानी कविता के महत्त्वपूर्ण स्तंभ हैं। हाउकु कविता की
लोकप्रियता और समृद्धि में उनका विशेष योगदान है। उनकी यात्रा
डायरी 'ओकु-नो-होसोमिचि' जापानी साहित्य की अमूल्य निधि मानी
जाती है। 'ओकु-नो-होसोमिचि' का शाब्दिक अर्थ है 'सुदूर की
संकरी राहें'।
कुरावाने ओकु-नो-होसोमिचि का एक महत्त्वपूर्ण पड़ाव है। यहाँ
के लोगों के आतिथ्य से बाशो इतने अभिभूत हुए थे कि वे दो
सप्ताह यहाँ टिक गए। यहाँ रह कर उन्होंने कई हाइकु कविताएँ
रचीं। आज भी यह नगर बाशो की स्मृति को गर्व के साथ संजोए हुए
है। नगर में स्थान-स्थान पर, जहाँ बाशो ने किसी हाइकु की रचना
की थी, शिला पर अंकित वह हाइकु स्थापित है। बाशो की स्मृति में
यहाँ एक 'बाशो संग्रहालय' है। कुछ बहुत महत्त्वपूर्ण
पाण्डुलिपियाँ, बाशो के हस्तलेख, 'ओकु-नो- होसोमिचि' के बाशो
के हस्तलिखित कुछ अंश यहाँ सुरक्षित हैं। संग्रहालय-भवन के
बाहर घोड़े पर सवार बाशो और उनके एक शिष्य की प्रस्तर प्रतिमा
है। इसी नगर में 'उन्गानजि' नामक जैन मंदिर है, जहाँ बाशो के
जैन गुस्र् बुच्चो का निवास था। बाशो ने उस रचना का अपनी
यात्रा-डायरी में उल्लेख किया है जो बुच्चो ने देवदार के कोयले
से एक शिला पर लिखी थी-
वर्षा के लिए है
दस हाथ चौड़ी, दस हाथ
ऊँची
यह मेरी छोटी-सी कुटिया
अन्यथा, त्याग देता मैं
इसे भी।
बाशो का यह स्मारक देख कर मुझे कुछ वर्ष पूर्व मात्सुयामा नगर
में देखे हुए एक अन्य हाइकु कवि शिकि के स्मारक का स्मरण हो
आया। जापान ने जिस प्रकार अपने कवियों को सम्मान दिया है और
उनकी स्मृतियों को जीवित रखा है, वह भारत में अकल्पनीय है। इन
स्मारक भवनों का रख-रखाव और इन्हें देखने आने वालों की भीड़
जापान के उस गर्व भाव को प्रकट करती है जो उन्हें अपने कवियों
के लिए है।
नासु होते हुए हम मात्सुशिमा की ओर बढ़ रहे थे। मैं सोच रहा
था, बाशो ने यह यात्रा तीन-सौ वर्ष पूर्व १६८९ में की थी।
निक्को वे २० मई को पहुँचे थे। आज ९ जून है। ३०७ वर्ष पूर्व वे
उस स्थान से गुज़रे थे, जहाँ से १९९६ में मैं आज गुज़र रहा
हूँ। बाशो ने यह यात्रा पैदल अथवा कहीं घोड़ों पर की थी। मेरी
यात्रा सभी आधुनिक सुविधाओं से युक्त मोटर-वाहन में सौ
किलोमीटर से भी अधिक गति से हो रही है। मार्ग में मैं
अत्यानुधिक होटलों अथवा अतिथि-गृहों में ठहर रहा हूँ। मेरे
भोजन, निवास, विश्राम आदि की समस्त चिंता मेरे जापानी मित्रों
ने संभाल रखी है। बाशो के लिए
यह यात्रा प्रकृति के साथ उनका
अंत:संलाप था, मेरे लिए यह यात्रा एक विलास।
यायावरी वृत्ति थी बाशो की। बसंत में जब बऱ्फ पिघलने लगती थी,
बाशो का मन अपनी कुटिया से निकल पड़ने के लिए मचल उठता था।
ओगिवारा सेइसेनसुइ की पंक्तियाँ मुझे याद आ रही थीं, "कब और
कहाँ जाना है", ऐसी कोई बात नहीं होती थी। जैसे जल मार्ग मिलते
ही बह निकलता है अथवा जैसे बादल सहज ही आकाश में विचरण करते
हैं, उसी प्रकार प्रकृति जब शीत ऋतु से बसंत में पदार्पण करती
थी, बाशो भी सहज भाव से किसी भी ओर यात्रा पर निकल पड़ते थे।
३२ वर्ष पूर्व १९६४ की गरमियों में एक भारतीय, एक नेपाली और एक
जापानी मित्र के साथ मैं जापान के सर्वोच्च पर्वत फूजि के शिखर
पर दिन-रात पैदल चल कर पहुँचा था सूर्योदय से पूर्व शिखर तक
पहुँचने के लिए। जापान के सर्वोच्च पर्वत शिखर पर खड़ा
मंत्र-मुग्ध सा मैं सूर्योदय के सौंदर्य को पाँच-पाँच मिनट के
अंतराल के पश्चात कैमरे में बंद कर रहा था। आज चालीस वर्ष के
पश्चात कैमरे के चित्रों के चटख रंग फीके पड़ गए हैं पर
मस्तिष्क के स्मृति पटल पर अंकित वे चित्र आज भी वैसे ही सजीव
हैं। एक वर्ष पश्चात १९६५ की गरमियों में मैं
केवल एक जापानी मार्गदर्शक मित्र
के साथ अकेला ही चल पड़ा था जापान के सबसे कठिन पर्वत शिखर पर
पर्वतारोहण के लिए। वे यात्राएँ कितनी भिन्न थी आज की इस
आयोजित यात्रा से।
लगभग चार घण्टों की यात्रा के पश्चात हम मात्सुशिमा पहुँचे।
समुद्र्र तट से गुज़रते ही आंखे जुड़ गईं। 'सेतो-नाइ-काइ' अपने
छितरे हुए द्वीपों के सौंदर्य के लिए प्रसिद्ध है। १९९१ में
मैं होन्शू, क्यूशू और शिकोकु के मुख्य द्वीपों से घिरे हुए
'सेतो-नाइ-काइ' सागर की यात्रा कर चुका हूँ। पर यह सौंदर्य
अभूतपूर्व था। छोटे-बड़े अनेक द्वीप प्रशांत महासागर के वक्ष
पर जैसे मणियों की तरह जड़ दिए गए हों। हमारा रात्रि-वास सागर
तट से सटे हुए भव्य गोदाइदो होटल में था। वहाँ तामुरा जी पहुँच
कर हमारी प्रतीक्षा कर रहे थे। ११ मई को कानोकोगि को तोक्यो
वापस जाना था और उनके स्थान
पर वहाँ से आगे की यात्रा में
तामुराजी हमारे साथ होंगे। शाम हमने सागर तट पर बिताई।
१० जून की प्रात: हमने होटल छोड दिया। समुद्र तट पर पहुँच कर ९
बजे के जहाज़ से हम सागर की एक लघु परिक्रमा पर निकल पड़े।
जहाज़ के चलते ही सागर-पक्षियों का एक झुंड इस प्रकार जहाज़ पर
लपका और जहाज़ के साथ उड़ने लगा मानो जहाज़ का पीछा कर रहा हो।
थोडी देर के बाद एक युवा दंपत्ति एक लिफ़ाफ़े से कुछ निकाल कर
ऊपर पक्षियों की तरफ़ फेंकने लगे। पक्षी लपक कर आकाश में उसे
अपनी चोंच में भर लेते थे। कोई टुकड़ा किसी पक्षी की चोंच से
छिटक कर समुद्र में जा गिरता तो कोई दूसरा पक्षी उसे लपक लेता
था। एक पक्षी की चोंच में जब एक टुकड़ा पकड़ में न आ सका तो
युवती के हाथों के बिल्कुल पास आकर उड़ते हुए उसकी ओर यूँ
देखने लगा, जैसे उससे एक टुकड़ा माँग रहा हो। पक्षी की आँखों
का वह भाव किसी मानव शिशु के उस भाव से भिन्न न था जो कुछ पाने
की चाह में अपनी माँ की ओर देख रहा हो। एक जापानी महिला खाने
के पैकेट १००-१०० येन में बेच रही थी। कुछ यात्री, विशेष रूप
से बच्चे, पैकेट ख़रीद कर पक्षियों को खिलाने लगे। मैं भी इस
खेल में सम्मिलित हो गया। जहाज़ अपनी गति के साथ आगे बढ़ रहा
था और उसके दाएँ-बाएँ पीछा करते हुए पक्षियों का झुंड भी अपने
करतब दिखाता हुआ जहाज़ के साथ उड़ रहा था।
जहाज़ अब
द्वीपों के बीच से गुज़र रहा था। स्कूल में पढ़ा था कि जापान
द्वीपों का देश है। इसका सही अर्थ मैंने सेतो-नाइ-काइ के
पश्चात मात्सुशिमा में समझा। तरह-तरह की आकृति के द्वीप जैसे
किसी कुशल कुंभकार ने भांति-भांति के खिलौने बना कर सागर-वक्ष
पर तैरने के लिए छोड़ दिए हों। जहाज़ की गति के साथ दूर से
द्वीप सागर पर तैरते से लगते थे। कुछ इतने छोटे कि जैसे सागर
के गर्भ से एक शिला-खंड बाहर प्रगट हो गया हो। कुछ में कंदराएँ
सागर के जल को जैसे लीलकर पी जाना चाहती हों। सभी द्वीप
हरियाली से लदे हुए पर सीधी खड़ी चट्टानों से निर्मित। जहाज़
का पीछा करते हुए पक्षी कहीं गा़यब हो चुके थे। शायद तट की ओर
लौट गए थे किसी और जहाज़ का पीछा करने के
लिए। हम परिक्रमा पूरी कर वापस
लौट आए।
तटीय मुख्य मार्ग पर जुइगानजि मंदिर था। मंदिर का पूरा नाम
'शोतो सेईयू ज़ुइगान एम्पुकु ज़ेनजि' है। हेइआन युग (८२८) में
जिकाकु दाइशि एन्निन द्वारा स्थापित यह मंदिर 'एम्पुकुजि'
कहलाया। मूलत: यह तेंदाइ संप्रदाय का बौद्ध मंदिर था। १३ वीं
शताब्दी में मंदिर के नाम "" के प्रथम भावाक्षर को बदल कर ""
कर दिया गया। नाम वही रहा पर अब यह जैन मंदिर हो गया। यह
चमत्कार जापानी भावाक्षर लिपि में ही संभव है। इसी चमत्कार से
भारत की देवी सरस्वती जापान में पहुँच कर लक्ष्मी का प्रतिरूप
बन गई है। मंदिर के मार्ग के दोनों ओर चीड़ वृक्षों की
पंक्तियाँ थीं। एक प्रमुख स्थान पर पत्र-पेटिका लगी थी जिस पर
'हाइकु पत्र-पेटिका' लिखा हुआ था। कोई भी स्व-रचित हाइकु इस
पेटिका में डाल सकता था जो एक हाइकु पत्रिका के कार्यालय तक
पहुँच जाता था। मंदिर के साथ संग्रहालय भी है। मार्ग में अनेक
कंदराएँ बनी हुई हैं और प्रत्येक कंदरा के सामने देवताओं की एक
लंबी कतार है। मंदिर अपनी ऐतिहासिकता
के कारण विशेष रूप से दर्शनीय
है।
अपने वाहन में बैठ कर हम ओकुमात्सुशिमा होते हुए आगे बढ़ चले।
मात्सुशिमा पीछे छूट गया। सुपर एक्सप्रेस मार्ग पर १००
किलोमीटर से अधिक की गति से दौड़ती हुई हमारी गाड़ी दोपहर बाद
सेंदाई की सीमा में प्रविष्ट हुई। सेंदाई उत्तर जापान का एक
प्रमुख नगर है। शाम के लगभग साढ़े चार बजे हम होटल में पहुँचे।
होटल का नाम था वाशिंगटन होटल। होटल बढ़िया और सुविधा-संपन्न
था पर कमरा बेहद छोटा था। इतना छोटा कि सामान भी ठीक से न रखा
जा सके। छ: बजे कोकुगाकुइन विश्वविद्यालय में मेरा भाषण था।
थकान दूर करने के लिए मैं गर्म जल से स्नान का आनंद ले रहा था
कि कानोकोगि का फ़ोन आ गया, चिबा हाजिमे आ गए हैं और मुझसे
मिलना चाहते हैं। मैंने घड़ी पर नज़र डाली। ५ बजने में कुछ
मिनट बाकी थे। मैंने कानोकोगि जी से पांच मिनट का समय माँगा।
जल्दी-जल्दी तैयार हुआ।
ठीक पाँच मिनट के बाद कानोकोगि चिबा हाजिमे के साथ मेरे कमरे
में थे।
चिबा हाजिमे तोहोकु विश्वविद्यालय में एसोसिएट प्रोफेसर थे।
भारत से अच्छी तरह परिचित हैं और सेंदाई के 'दक्षिण एशिया
शोध-केंद्र' के साथ सक्रिय रूप से जुड़े हुए थे। औपचारिकताओं
के पश्चात हम बाहर निकले और कार से कोकुगाकुएन विश्वविद्यालय
पहुँचे। सभाकक्ष में प्रविष्ट हुए। कॉफी के प्यालों के साथ
हमारा स्वागत हुआ। कॉफी पीते-पीते
लोग आने लगे। छ: बजने से पहले पूरा सभा-कक्ष भर चुका था।
ठीक छ: बजे कार्यक्रम आरंभ हो गया। मेरे परिचय में विशेष रूप
से बताया गया था कि मैं लियू ह्युबरमैन की पूँजीवादी व्यवस्था
के इतिहास की पुस्तक "मैन्स वर्डली गुड्स" का अनुवादक हूँ। यह
पुस्तक जापानी में भी अनूदित हैं और अर्थशास्त्र के अध्येताओं
में सुपरिचित है। इस आकर्षण से मेरे भाषण में अर्थशास्त्र से
संबंन्धित लोग अधिक आए थे - अध्यापक भी और विद्यार्थी भी। यह
स्थिति मेरे लिए अनपेक्षित थी। मेरे भाषण का मूल विषय था -
"संस्कृतियों की भिन्नता और भारत-जापान संबंध"। मैं साहित्य और
संस्कृति की बात करने आया था पर लोगों की रुचि को देखते हुए
मैंने भारत और जापान के ऐतिहासिक संबंधों की पृष्ठभूमि में
द्वितीय विश्वयुद्ध के पश्चात के दोनों देशों के आर्थिक विकास
की बात करते हुए भारत और जापान की कार्य-शैली और चिंतन के अंतर
पर चर्चा की। दोनों देशों की राजनीतिक, आर्थिक परिस्थितियों की
तुलना के साथ विश्व में दोनों देशों की भूमिका में मैंने इस
बात पर बल दिया कि दोनों देशों के बीच परस्पर सहयोग एक नई
विश्व-संस्कृति को जन्म दे सकता है। अब प्रश्नोत्तर आरंभ हुए।
प्रश्न करने वालों में केवल अध्यापक ही थे। जापानी विद्यार्थी
प्राय: प्रश्न पूछने में संकोची होते हैं। अपने भाषण में मैंने
कहीं कह दिया था कि
अमरीका के पास कोई संस्कृति नहीं है। इस पर काफ़ी तीखी
प्रतिक्रिया हुई थी।
अगले दिन ११ जून की प्रात: साढे नौ बजे के लगभग हमने होटल छोड़
दिया। नगर पार कर अब हम पर्वतों के बीच तोहोकु राजमार्ग पर बढ़
रहे थे। एक घंटे के पश्चात हम चोज़ाहारा सेवा क्षेत्र में
रुके। जापान के राजमार्गों पर ऐसे सेवा क्षेत्र और पार्किंग
क्षेत्र स्थान-स्थान पर बने हुए हैं। सेवा क्षेत्र में पेट्रोल
पंप, भोजनालय, पेय पदार्थों आदि की व्यवस्था होती है। यात्रा
संबंधी सूचनाएँ, मार्गों के नक्शे, गत्ते के फोल्ड होने वाले
डिब्बे मिलते हैं जो कार में कूड़ेदान के रूप में प्रयोग किए
जा सकते हैं। जापान में राह में या जहाँ मन चाहे वहाँ कूड़ा
नहीं फेंका जा सकता है। खाने-पीने की दूकानें और रेस्टोरेंट भी
होते हैं। बिना दूध और चीनी की जापानी हरी चाय सामान्य चाय,
कॉफी, ठंडा पानी स्वचालित मशीनों से मुफ़्त मिलता है। हम ऐसे
सेवा क्षेत्रों में जब भी रुकते थे, चाय-कॉफी पी लेते थे। मैं
प्राय: जापानी चाय ही लेता था। यहाँ भी हमने चाय आदि पी कर
गाड़ी में पेट्रोल भरवाया और आगे बढ़ गए। रास्ते में कई सुरंगे
मिली जिनमें कुछ एक हज़ार
मीटर से भी लंबी थीं।
होसाका जी ने मुझे अपनी भारत यात्रा की डायरी दी। होसाका जी ४
से १६ मार्च १९९५ में भारत के बौद्ध स्थलों की यात्रा पर आए
थे। डायरी कम्प्यूटर प्रिंट में है और प्रत्येक पृष्ठ
रेखाचित्रों या यात्रा के फोटो से सज्जित है। गंतव्य स्थान,
वाहन, पहुँचने का समय, तापमान, ठहरने का स्थान, समुद्र तल से
ऊँचाई आदि सूचनाओं के साथ डायरी आरंभ होती है। विभिन्न पृष्ठों
पर स्वरचित कविताएँ भी हैं। बीच-बीच में जापानी की काताकाना
लिपि में सामान्य आवश्यकता के भारतीय शब्दों के अर्थ दिए हैं,
यथा- चलोजी, अच्छा, सस्ता कीजिए, कितना दाम आदि। दालों के नाम,
मजदूरी की दर, सिक्के आदि
भी। डायरी की यह शैली मुझे अच्छी लगी।
रास्ते में चूसोन पार्किंग क्षेत्र में स्र्के। यहाँ लकड़ी की
दो तख्तियाँ लगी हुई थीं। एक पर लिखा था - 'ओकु-नो-होसोमिचि'
और दूसरी पर बाशो की एक कविता थी-
"सामिदारे नो (मई की वर्षा)
फुरिनोकोशिते या (भीगने से बचा है)
हिकारि दोओ" (स्वर्णिम गर्भगृह)
यह हाइकु हमारे अगले
गंतव्य स्थल हिराइज़ुमि के चूसोनजि मंदिर के सोने के बने
गर्भगृह पर लिखा गया है।
दोपहर लगभग साढ़े बारह बजे हम हिराइज़ुमि के चूसोनजि मंदिर में
पहुँचे। गाड़ी पार्क की। मंदिर तक का रास्ता पैदल काफ़ी चढ़ाई
का था। रास्ते में एक दूकान मिली जिसका नाम था
'ओकु-नो-होसोमिचितेन'। तेन का अर्थ है दूकान। दूकान के एक भाग
में संग्रहालय है जिसमें बाशो और अन्य प्रसिद्ध लेखकों, कवियों
के हस्तलेख, पाण्डुलिपियाँ, ओकु-नो-होसोमिचि का नक्शा आदि थे।
अनेक मंदिरों से होते हुए हम कोञ्जिकिदोओ पहुँचे। सामान्य
जापानी भवन के भीतर स्वर्ण मंडित जगमगाता हुआ मंडप अपनी पूर्ण
गरिमा के साथ प्रकाशमान था। भीतर केन्द्र में पदमासन मुद्रा
में आमिदा बुत्सु (भगवान बुद्ध) विराजमान थे। इनके चारों ओर
अनेक छोटी बुद्ध प्रतिमाएँ थीं। बाशो ने-
"सामिदारे नो फुरिनोकोशिते या हिकारि दोओ" हाइकु की रचना इसी
मंदिर पर की थी।
कोंजिकिदोओ ही बाशो का
हिकारिदोओ है।
यहाँ से हम मोत्सुजि मंदिर पहुँचे। मंदिर के विशाल उद्यान में
एक रम्य सरोवर है। पर्वतों से निकल कर एक पतली जल-धार छोटी नदी
की तरह बहती हुई सरोवर में गिर रही है। यह धारा क्योकुसुइ
कहलाती है जिसका अर्थ है टेढ़ी-मेढ़ी अथवा घुमावदार जल-धारा।
हिराइज़ुमि में इसका उच्चारण गोकुसुइ है। प्रतिवर्ष यहाँ मई
मास के अंतिम सप्ताह में हाइकु-उत्सव होता है। एक विषय दे दिया
जाता है। धारा के दोनों ओर थोड़े-थोड़े अंतर पर हाइकु कवि
बैठते हैं। सबसे ऊपर बैठा हुआ कवि एक हाइकु रच कर उसे एक
नौकानुमा पात्र में रख कर धारा में बहा देता है। अगला कवि उसे
निकाल कर उसमें अपना एक हाइकु जोड़ कर उसे आगे बढ़ा देता है।
यह क्रम चलता रहता है। रेंगा शृंखलित-पद्य रचना का यह भी एक
रूप है। काव्य-रचना के साथ साके (एक प्रकार की मदिरा), जिसे
जापान का राष्ट्रीय पेय कहा जा सकता है, का दौर भी चलता रहता
है। गत वर्ष का विषय था 'हिकारि' अर्थात प्रकाश और इस वर्ष का
विषय था 'कोरोमो' अर्थात वस्त्र। एक स्थान पर मैंने इस वर्ष
हुए रेंगा उत्सव का एक आकर्षक पोस्टर देखा। मंदिर के कार्यालय
से मैंने पूछा, पोस्टर की एक प्रति मिल सकेगी क्या? यह जानकर
कि मैं भारत से ओकु-नो-होसोमिचि की यात्रा पर आया हूँ और यह
पोस्टर भारत ले जाना चाहता हूँ, अधिकारियों ने अपने कार्यालय
में लगा हुआ पोस्टर उतार कर मुझे दे दिया।
लगभग ४ बजे हमने हिराइज़ुमि छोड़ दिया और दो घंटे की यात्रा के
पश्चात सायं छ: बजे हम नाकानीदामाचि पहुँचे। छोटा-सा देहाती
नगर है चारों ओर खेतों से घिरा हुआ। यहाँ हमारे रात्रि-विश्राम
की व्यवस्था थी 'नाकानीदामाचि कोर्य सैंटर' में। इतने छोटे से
देहात में ऐसा भव्य सांस्कृतिक भवन! यह भवन इस क्षेत्र की
सांस्कृतिक रुचि का जीवित प्रतीक था। एक विशाल सभागार, गोष्ठी
कक्ष, अतिथिगृह जिसमें ७ जापानी शैली के कमरे जिनमें ४१ लोग
ठहर सकते हैं। एक कमरे में ५ से ७ लागों के ठहरने की व्यवस्था
है। दो योरोपीय शैली के कमरे हैं डबलबैड स्नानागार के साथ।
मेरे ठहरने की व्यवस्था इन्हीं दो कमरों में से एक में थी।
मेरे शेष चारों साथी - ओनो, तामुरा, होसाका और हिरानो जापानी
शैली के एक कमरे में ठहराए गए। मेरा कमरा काफ़ी बड़ा था और
पलंग भी चौड़ा तथा आरामदेह। कमरे में प्रवेश के साथ ही सूचना
दी गई कि भोजन तैयार है। यहाँ की व्यवस्था केइको चिबा के हाथ
में थी जो मुझे तोक्यो में मेरे सम्मान समारोह में मिल चुकी
थी। उन्होंने यहाँ के कार्यक्रम का एक पोस्टर मुझे दिया था जिस
पर उनके हाथ का बनाया मेरा रेखा-चित्र था। यह चित्र उन्होंने
अपनी कल्पना से बनाया था। अपना चित्र देख कर मैंने हंस कर उनसे
पूछा था, "क्या मैं ऐसा दिखता हूँ?" उन्होंने बड़ी मासूमियत के
साथ लज्जा से लाल हुए चेहरे पर हल्की मुस्कान के साथ
संक्षिप्त-सा उत्तर दिया था, "नहीं?" चिबा जी व्यवसाय से
मूर्ति-शिल्पी हैं और शौकिया चित्रकार भी। उन्होंने मुझे एक
पुस्तक भेंट की जो बाशो के इवादेयामा' में एक रात रुकने के
विषय पर लिखी गई थी। पुस्तक की लेखिका सुगिवारा युकिए
हैं और रेखाचित्र केइको चिबा के।
अगले दिन १२ जून की
प्रात: नाश्ते के बाद तामुराजी मेरे कमरे में आए। तामुराजी
कैमरा ले कर नहीं चलते। चित्रकारी का सामान ले कर चलते हैं। जो
दृश्य उन्हें पसंद आ जाता है, उसका चित्र बना लेते हैं। वे
मेरा चित्र बनाना चाहते थे। उसके लिए वे मुझसे एक बैठक चाहते
थे। कल रात भी वे आए थे पर प्रकाश कम था अत: यह कार्यक्रम आज
प्रात: के लिए रखा गया था।
लगभग दो घंटे मुझे उनके लिए मॅाडल बन कर बैठना पड़ा। पहली बार
मुझे अनुभव हुआ कि मॉडल बन कर बैठना कितना दुरूह कार्य है। वे
चाहते थे कि मैं एक ही मुद्रा में और सहज हो कर बैठा रहूँ। बीच
में हर १५-२० मिनट के बाद उन्हें सिगरेट पीने की आवश्यकता होती
थी और मुझे भी विश्राम मिल जाता था। पर फिर मुझे उसी मुद्रा
में लौट आना पड़ता था। मैं सोच रहा था जो लड़कियाँ नग्न मॉडल
बनती हैं, उन्हें इस प्रकार बैठना कैसा लगता होगा। चित्र पूरा
हो गया। मेरे चेहरे का अच्छा अंकन किया था उन्होंने। मैंने
अपने कैमरे से उस चित्र का फोटो लिया और उन्हें धन्यवाद दिया।
बाद में वह चित्र उन्होंने फ्रेम में मढ़ कर मुझे भेंट किया जो
आज भी मेरे अध्ययन कक्ष में उनकी स्मृति के
साथ शोभित है।
लगभग दस बजे केइको चिबा और उनके साथ कल भेंट में प्राप्त
पुस्तक की लेखिका सुगिवारा युकिए हमें लेने आ गईं। हमारी
यात्रा फिर आरंभ हुई। सबसे पहले वे हमें बाश हॉल दिखाने ले
गईं। छोटा-सा कस्बानुमा नगर लगभग १५,००० की आबादी का और उसमें
यह भव्य ऑडिटोरियम जिसमें ८०० लागों के बैठने की व्यवस्था है।
मंच पर प्यानो रखा है जो दीवार में समा जाता है। एक जापानी
सुकुमारी बाला ने प्यानो को खींच कर बाहर निकाला और उसे बजाकर
हॉल में उसके प्रभाव को दिखाया। सामान्यत: पहले भवन का निर्माण
होता है और फिर उसमें ध्वनि-प्रभाव की व्यवस्था होती है। इस
भवन के निर्माण से पहले विशेषज्ञों ने ध्वनि-प्रभाव को भवन के
स्थापत्य के साथ संयोजित किया है और फिर भवन का निर्माण हुआ
है। यहाँ प्राय: संगीत के आयोजन होते रहते हैं। मुझे बताया गया
कि नगर के बजट का एक तिहाई भाग इस हॉल के निर्माण में खर्च हो
गया और शेष रकम लोगों ने स्वेच्छा से अनुदान में दी। एक छोटे
से देहात में ऐसी
सांस्कृतिक रुचि मेरे लिए किसी आश्चर्य से कम नहीं थी।
जोमोन युग के संग्रहालय को देखते हुए हम नाकादानिमाचि को छोड़
कर 'इवादेमाचि' की ओर बढ़े। इवादेमाचि के कोमिनकान (समुदाय
भवन) में केइको चिबा ने स्वयं अपने हाथों से मेरे लिए भारतीय
शाकाहारी भोजन तैयार किया था। वे मणिपुर और कलकत्ता हो आई हैं
और अपनी भारत यात्रा में उन्होंने भारतीय दाल-सब्ज़ी बनाना
सीखा था।
भोजन के
पश्चात हम 'युबिकान' पहुँचे। रम्य विशाल सरोवर के साथ एक
उद्यान है। सरोवर को स्पर्श करता हुआ जापानी पारंपरिक स्थापत्य
का चाय-कुटीर जैसा सुंदर भवन है। लकड़ी के फर्श पर चटाइयाँ
जड़ी हुई हैं जिन्हें जापानी में तातामि कहते हैं। यहाँ आज की
गोष्ठी आयोजित की गई थी। सरोवर के पारदर्शी जल में सुनहरी
कार्प मछलियाँ थीं। मैं ज्यों ही सरोवर के पास गया, ढेरों
मछलियाँ तट की ओर लपकीं और मुँह खोल कर मेरी ओर देखने लगीं
जैसे कुछ खाने को माँग
रही हों। यहाँ लोग मछलियों को चारा डालते हैं और मछलियाँ
मनुष्यों से हिली हुई हैं।
गोष्ठी दोपहर दो बजे आरंभ हुई। काफ़ी लोग थे। एक अस्सी वर्ष की
महिला सेंदाई से आई थी। समाचार पत्रों के प्रतिनिधि भी अपने
कैमरों के साथ उपस्थित थे। एक बौद्ध भिक्षु थे। हाइकु पत्रिका
की संपादिका किएको योमोगिदा थीं। गोष्ठी में हाइकु ही चर्चा का
विषय रहा।
मैं मुख्य वक्ता था और उसके पश्चात परस्पर बातचीत शैली में
खुली चर्चा। गोष्ठी के पश्चात किएको योमोगिदा ने अपनी पत्रिका
की एक प्रति मुझे दी और एक हाइकु मुझे भेंट किया। हाइकु था-
मिदोरि सासु तातामि नो उए नि सुवास्र् वर्मा सेन्सेइ।
हरियाली खिली तातामि पर विराजमान वर्मा जी
यदि जापानी अभिव्यक्ति 'वर्मा' तक ही समाप्त हो जाती तो ५-७-५
का क्रम ठीक बैठ जाता पर सम्मान-बोधक 'सेन्सेइ'
लगाने की विवशता ने तीसरी पंक्ति
को लंबा खींच दिया। सेन्होकु दैनिक पत्र का प्रतिनिधि काफ़ी
देर तक मुझसे बात करता रहा जब तक कि ओनोजी मुझे उससे छुड़ा कर
नहीं ले गए कि समय बहुत हो गया है।
पास ही जापानी मदिरा साके की एक प्रसिद्ध दूकान थी। मेरे साथी
वहाँ की मदिरा ख़रीदना चाहते थे। हम दूकान पर गए। मदिरा का नाम
था - 'ओकु-नो-होसोमिचि'। मुझे भारत की हाइकु साड़ी की याद आ
गई। जिन दिनों मैं 'हाइकु' नाम से द्विमासिक पत्रिका निकाला
करता था, किसी साड़ी-निर्माता ने अपनी साड़ी का नाम 'हाइकु
साड़ी' ही रख दिया था।
५ बजे के लगभग हम नारुगो
के लिए रवाना हुए। नारुगो छोटा-सा नगर है जो कोकेशि नाम की
गुड़ियों के लिए प्रसिद्ध है। आज का हमारा रात्रि-निवास इसी
नगर में था। 'बाबा ओन्सेन' में हमारे ठहरने की व्यवस्था थी और
रात्रि-भोजन के साथ चर्चा गोष्ठी भी। 'बाबा ओन्सेन' जापानी
शैली का योर्कान यात्री-निवास है जिसमें गर्म पानी के चश्मे के
जल में स्नान का प्रबंध रहता है। मुझे एक अलग कमरा दे दिया
गया। स्नान की व्यवस्था जापानी ढंग के सामूहिक स्नान की थी।
मेरे लिए यह व्यवस्था कर दी गई कि मैं जब स्नान के लिए जाऊँ तो
प्रवेश पर तख्ती लगा दी जाएगी "सफ़ाई के लिए बंद है" ताकि कोई
दूसरा स्नानगृह में प्रवेश न करें।
रात्रि-भोजन एक गोष्ठी के रूप मे था। आज ओनोजी बोलने के लिए
आकुल थे। वही आज के मुख्य वक्ता रहे। शेष परस्पर चर्चा और
बातचीत। चिबा और सुगिवारा भी इस चर्चा-गोष्ठी में आई हुई थीं।
नारुगो की एक कवयित्री ताकाहाशि मासाको भी थीं। ताकाहाशि ने
मुझे नारुगो के कवियों का एक हाइकु संकलन भेंट किया जिसमें
उनकी अपनी कविताएँ भी थीं।
अगले दिन १३ जून की प्रात: ६ बजे हमने बाबा ओन्सेन छोड़ दिया।
हर बसेरा केवल एक रात का। हमारा अगला पड़ाव था जापान सागर के
तट पर बसा महानगर कानाज़ावा। |