शिखर वार्ता शब्द आजकल फैशन में
है। रेडियो, टीवी, पत्र और पत्रिकाओं हर जगह यह शब्द सुनाई देता है। हमारे नेता,
व्यावसायी यहाँ तक कि घर घर में शिखर वार्ताओं का दौर छाया रहता है। बड़ी-बड़ी
बातें, दावतें, टीवी कवरेज के सिवा इन शिखर वार्ताओं में होता क्या है यह आमतौर पर
बहुत कम लोगों को मालूम नहीं होता। शिखर वार्ता सफलता की नहीं निरंतरता की परिचायत
होती हैं। वे आपकी लगातार मेहनत को परिभाषित करती हैं।
आइये इसे विस्तार से समझें। कुछ भी जो लंबा खिंचे देर तक चले, वह अंत में शिखर तक
पहुँच ही जाता है। पहले आदमी बात करता है, बात बात में कभी कभी छींका फूट जाता है
और बात बन जाती है। लेकिन जब छींका नहीं फूटता और बात भी नहीं बनती तब भी अंत वही
होता है। ऐसे या वैसे एक न एक दिन आदमी शिखर पर पहुँच जाता है। यह शिखर कौन सा है
यह इस बात पर निर्भर है कि चढ़नेवाला कौन है।
पहाड़ पर चींटी भी चढ़ जाती है शिखर पर जा विराजती है। अब शिखर का कितना हिस्सा घेर
पाती है यह चीटी की अपनी सीमा और सामर्थ्य है। अलग अलग व्यक्तियों के अलग अलग शिखर
होते हैं जैसे नेता हो तो प्रधानमंत्री या राष्ट्रपति, अध्यापक हो तो प्रधानाचार्य,
क्लर्क को हो हेड क्लर्क नामक शिखर की ओर प्रयत्नशील रहते हैं। रास्ते में वे कब
सफल रहे कब असफल इसका महत्त्व नहीं होता। महत्त्व इस बात का होता है कि वे शिखर तक
पहुँचे।
शिखरों की संख्या हर पर्वत शृंखला में अलग अलग होती है। भूगोल बताता है कि हमारे
देश में अनेक पर्वत शृंखलाएँ हैं और पर्वत शृंखलाओं में अनेक शिखर हैं। जैसे किसी
ने आसमान में तारे नहीं गिने उसी प्रकार पर्वत शिखर भी नहीं गिने गए। यह व्यक्ति
व्यक्ति पर निर्भर करता है कि वह अपना शिखर कहाँ ढूँढता है, कितना घेरता है और
कितना लाभ उठाता है। बहुत से लोग शिखर न होने पर भी अपने शिखर वार्ताएँ करते करते
अपने शिखर का निर्माण कर लेते हैं। निश्चय ही ऐसे व्यक्ति बहुत प्रतिभावान होते
हैं।
वे जानते हैं कि शिखर एक दिन में नहीं बनते। बनते बनते बनते हैं। और जब बन जाते हैं
तो सम्मानों और पुरस्कारों की कमी नहीं रहती। पिछली आधी सदी में कितने शिखर सम्मान,
कितने भारत रत्न कितने पद्म विभूषण, भूषण और पद्मश्री अनेकों राष्ट्रपतियों
प्रधानमंत्रियों खिलाड़ियों, नेता, अभिनेता, लेखक, कवि, कलाकार और पत्रकारों को
मिले। ये सब निरंतर शिखर वार्ताओं के कारण ही यहाँ तक पहुँचे। जो शिखर वार्ता करता
है वही शिखर पर पहुँचता है। जो इन सब शिखरों पर नहीं पहुँचता वह भी जहाँ होता हैं
वहाँ के शिखर पर पहुँच जाता है। यह सब शिखर वार्ताओं का ही प्रताप है।
कहते हैं कि शिखर पर जो विराजता है वह अकेला हो जाता है यानि वार्ता करने के लिये
फिर उसके पास कोई नहीं बचता। हम जानते हैं मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है बिना बोले
वह रह नहीं सकता नीचे वाले के पास कितनी बातें हैं ऊपर बैठा कितना गधा है उसने किस
किस धूर्तता के रास्ते यह स्थान प्राप्त किया है इसकी कथा और अंतर्कथाएँ वह कितना
बेइमान है वह कहाँ और कितना कमीशन खात है किसका दुश्मन है और किसको फेवर करता है
जैसे तमाम विषय बिखरे पड़े हैं जिसे पर वार्ताएँ होती है बहस और मुसाहिबें निंदारस
बतरस। शिखर पर पहुँचा हुआ व्यक्ति इन सबसे वंचित हो जाता है।
शिखर और शिखर वार्ता ये दोनों
कामकाजी लोगों के काम हैं। इनका सीधा संबंध सत्ता से है। और जिसके पास सत्ता होती
है उसके पास दुखदर्द भी होते हैं। हालाँकि दुखदर्द बाँटने वाला कोई नहीं होता।
किससे कहें कि पाँव का काँटा निकाल दे। सामने मुंडी हिलानेवाले गुड्डे बैठे हैं
चाभी आपके हाथ में है भरते रहो और गुड्डे सिर हिलाते रहेंगे। संवेदना सादर साफ़-
सपेद झूठ की तरह न सिर न पैर।
शिखर अक्सर कुर्सीकाल तक ही नसीब होता है।
कुर्सीकाल का अंत हुआ, गुड्डों का मुंडी हिलना बंद और मुस्कानें तिरोहित। शिखर पर
स्थित साहब अपने दुख दर्द के साथ निपट अकेला होता है। मातहतों से मातहतों की
नालायकी का रोना नहीं रो सकता। अपने दूर बैठे बास ने फटकारा है यह नहीं कह सकता।
उसकी चरण धूलि लेने के लिये किस किस किस्म की कसरत और कवायद करनी पड़ती है इसका दुख
नहीं गा सकता ।
मन की गागर छोटी है उसमें इससे ज्यादा सागर नहीं
समा सकता। इसलिये एक शिखर दूसरे शिखर से वार्ता करने लगाता है। दो शिखरों में शिखर
वार्ताएँ होने लगती हैं। मन की भड़ास पूरी नहीं निकाली जा सकती इसलिये शिखर
वार्ताएँ सौहार्दपूर्ण वातावरण में होती हैं। और उसमें होने वाली चर्चाएँ सार्थक
होती है। कुल मिलाकर ये सफल रहती हैं और दोनो शिखरों के पेड़-पौधे खग-मृग और
मानव-मानवियों के संबंध मैत्रीपूर्ण व प्रगाढ़ हो जाते हैं।
शिखर वार्ता का एक लाभ यह भी है कि प्रेस की
पब्लिसिटी फोटक में मिल जाती है। आप चाहें कुछ करें या न करें, किसी निष्कर्ष पर
पहुँचें या न पहुँचें दुनिया भर में आपके नाम और शिखर वार्ता में होनेवाले काम का
ढिंढोरा पीटना आसान हो जाता है। अब यह तो सब जानते हैं कि काम करो या न करों नाम
उसकी को होता है जो ढिंढोरची को बस में रखे। और मीडिया से बेहतर ढिंढोरची भला कौन
हो सकता है।
शिखर पर बैठा व्यक्ति कौड़ी को हीरा और हीरे को
कौड़ी रूप में आँकने की सामर्थ्य रखता हैं। हम जानते हैं कि शिखर से ऊपर आसमान है।
आसमान से भी ऊपर भगवान है। है कि नहीं यह अलग बात है लेकिन शिखर पर बैठा व्यक्ति
शिखर वार्ताओं के बहाने एक से एक गलत काम भगवान के नाम पर करता है। और शिखर हो जाने
के बाद समस्त नीचाताओं से बरी हो जाता है।
भू वैज्ञानिक कहते हैं कि पहाड़ों की ऊँचाई
सालों साल में एक सूत भी घटती बढ़ती है या नहीं यह भी पक्का नहीं है। लेकिन शिखर पर
पहुँचा हुआ व्यक्ति यह नहीं जान पाता। क्यों कि शिखर पर बैठने के बाद आइना देखने का
समय नहीं मिलता। शिखर पर बने रहने की जद्दोजहद और हर ओर दिखाई देनेवाली गहरी खाई का
भय उसे कहीं का नहीं छोड़ता। जितना ऊँचा शिखर उतनी गहरी खाई। एक ओर शिखर की
विलासिता का लालच दूसरी ओर गहरी खाई का डर क्या करे क्या न करे इस विषय में शिखर
वार्ता करनेवाला भी वहाँ कोई नहीं होता।
अपनी संपूर्ण गुरुता से लदा फँदा वह धीमे धीमे
शिखर की ओर बढ़ती चींटी को देखता है। यह कौन है चीटी है सर, इतनी धीरे क्यों चलती
है? इसे तेज चलाइये आप करते क्या रहते हैं। सवाल महावत से हैं। महावत अचकचा जाता है
अपनी नौकरी पर बनी जानकर चींटी के माथेपर अंकुश गड़ा देता है। चींटी तेज वेज चलना
नहीं शुरू करती इठलाकर इतराकर शिखर की गोद में चढ़ जाती है और पिया की गोद में बैठी
पटर पटर पलकें पटपटा कर महावत को देखती है। महावत की मुश्कें कसी है। यह क्या है
कैसे महावत हो चींटी पर अंकुश लगाते हो चीटी महावत को मुँह चिढ़ा देती है लेकिन
शिखर वार्ताओं में छोटे छोटे मसलों पर विचार नहीं होता। |