इस
सप्ताह
समकालीन कहानियों में-
भारत से
तरुण भटनागर की कहानी
कौन सी मौत
'आपको
पता चला........
और फिर दत्ता अंकल ने पिता जी के कानों के पास अपना मुँह करते हुए
धीरे से कहा-
'वो कम्यून वाला महात्मा मर गया।'
'अरे कब।'
पिता जी अपने पैर धोने के बाद तौलिया से उन्हें पोंछ रहे थे। अक्सर
शाम को ऑफ़िस से आने के बाद पिता जी बगीचे में इत्मीनान से बैठते
हैं। सुस्ताते हैं। चाय पीते हैं। और ठंडे पानी से अपने पैर धोते
हैं। रोज़ की एक-सी चीज़ें जो रोज़ की एक-सी थकान को उतार देती है।
दत्ता अंकल भी शाम को पिता जी के साथ गप्प हाँकने चले आते हैं। दत्ता
अंकल हमारे घर के पास रहते है और उसी ऑफिस में हैं जिसमें पिता जी
काम करते हैं। दोनों शाम को इस बगीचे में इकट्ठे बैठकर दुनिया जहान
की बातें करते हुए अपना समय गुज़ारते हैं। पिता जी ने महात्मा के
मरने की ख़बर को ज़्यादा तवज्जो नहीं दी। वे अपने पैर पोछने में
मशगूल रहे।
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संदीप सक्सेना का व्यंग्य
अफ़सर का कुत्ता
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प्रेरक प्रसंग में प्राण शर्मा की लघुकथा
पिंजरे के पंछी
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गणेश चतुर्थी के
अवसर पर मनोहर पुरी का
आलेख
भारतीय संस्कृति का
अभिन्न अंग गणेश
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प्रभु झिंगरन का
चिंतन
छोटे पर्दे से
गायब होता साहित्य
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पिछले सप्ताह
ज्ञान चतुर्वेदी का व्यंग्य
मूर्खता में ही होशियारी है
कृष्ण कुमार यादव का
आलेख
साझी विरासत की कड़ी- कुर्रतुल ऐन हैदर
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घर परिवार में
अर्बुदा ओहरी प्रस्तुत कर रही हैं
कहानी कॉफ़ी की
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साहित्य समाचारों
में
नॉर्वे,
भारत और
इमारात
से नए
समाचार
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समकालीन कहानियों में
भारत से
अमर गोस्वामी की कहानी
दलदल
मयंक जी शब्दों के कारीगर थे।
बहुत अच्छे कारीगर। शब्दों को गढ़ते, छीलते, काटते, तराशते।
उन्हें रूप देते। कई तरह के रूप। शब्दों से वे फूल खिलाते।
प्रकृति के रहस्यों को बूझने की कोशिश करते। उनके शब्द ग़रीबों
के घरों में जाकर उनके आँसू पोंछ आते, लाचारों की लाठी बनकर
खड़े होते। मयंक जी की कोशिश होती कि उनके शब्द सहारा बनें।
अपने कवि की इसी में सार्थकता समझते थे। मयंक जी शब्दों से हर
प्रकार का भाव जगा सकते थे। उनके
शब्दों से होकर जो गुज़रता, वह कभी हँसता तो कभी रोता। उनके
शब्दों से कभी अज़ान की आवाज़ सुनाई देती थी तो कभी मंदिर की
घंटियों की। मयंक जी उन व्यक्तियों में थे जिनके लिए शब्द
पवित्र होते हैं। वे शब्दों से प्रेम करते थे, उनसे नेताओं की
तरह खेलते नहीं थे। शब्दों की दुर्दशा होते देखते तो वे खून के
आँसू रोते। शब्दों के
संसार के मयंक जी का असली नाम अशर्फीलाल था। |
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अनुभूति में-
श्याम अंकुर, सुरेशचंद्र शौक,
विजय राठौर, मैथिलीशरण गुप्त और झीणा भाई देसाई `स्नेह
रश्मि' की रचनाएँ |
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कलम
गही नहिं हाथ
आजकल की चौड़ी सड़कों को देखकर,
जिनमें कारों की ६-६ गलियाँ एक ही ओर जाती हों, कौन विश्वास
करेगा कि सड़कों पर मस्ती वाले पल दुनिया के सबसे यादगार पल होते
हैं। धीरे धीरे किसी दुपहिया लंबे ठेले का गुज़रना और उसकी चूँ चाँ के
साथ सुर मिलाते हुए लापरवाह चलते जाना। झरती हुई नीम की एक एक पत्ती
को गिरने से पहले हथेली में रोक लेने की ज़िद में घंटों उसकी
धूप-साया में गुज़ारना। कभी बड़ के घने पेड़ के नीचे चियें की
गुठलियों से गोटियाँ बनाना और बंद हथेलियों में कौड़ियों की आवाज़ें
सुनना। किसी
बच्चे का पहिए को सरिया से घुमाते हुए चलते चले जाना सर्र् र्र् र्र्...। कैसे
सुस्त सुस्त आराम के दिन! हवाई चप्पलों में पैर अटकाए सारे दिन
दौड़ते फिरना कभी इस घर कभी उस। दौड़ ऐसी कि जिसका अंत नहीं, दोस्ती
ऐसी कि हर पल कट्टी और फिर भी जान गुइयाँ में ही अटकी। सड़क पर चोर-चोर खेलना और अनजान घरों के बरोठों में जा छिपना।
न कोई डर न फ़िक्र। बरसाती की खिड़की
से दूर तक फैले बादल की बड़ी सी छाया को धीरे धीरे पहाड़ पार करते
हुए देखना और ठंडा मीठा बर्रेफ़ की आवाज़ सुनते ही सीढ़ियाँ फलाँगते
हुए नीचे आना, यह सब दूसरी दुनिया के दिन हो गए। लगता है जैसे पिछले
जनम की बातें हों। वह शहर छूटे भी तो बरसों हो गए। सोचती हूँ फिर
कभी लौटना हुआ और सब कुछ वैसा ही मिला तो क्या वैसी ही खुशी होगी?
--पूर्णिमा वर्मन
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क्या
आप जानते हैं?
कि भारत का राष्ट्रपति भवन, विश्व के किसी भी राष्ट्रपति आवास से
अधिक बड़ा है। |
सप्ताह का विचार-
श्रेष्ठ वही है जिसके हृदय में दया व धर्म बसते हैं, जो अमृतवाणी
बोलते हैं और जिनके नेत्र विनय से झुके होते हैं। -संत मलूकदास |
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